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Magazine - Year 1954 - Version 2

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प्रेम सम्बन्धों को काटने की कैंची

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(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम.ए.)

लेन-देन देखने में कितना अच्छा और उपकारी रिवाज लगता है। किसी के यहाँ खुशी का अवसर है, आप अपनी ओर से कुछ प्रेमोपहार देते हैं। लेने वाले को हर्ष होता है। वह सोचता है कि आप उसके मित्र हैं, सुहृद हैं, सच्चे हितैषी हैं। त्यौहारों पर मिठाई विवाह के अवसरों पर वस्त्र एवं रुपये, जन्म पर नाना वस्तुएं, वर्षगाँठ पर मुबारकबाद की अनेक योजनाएँ आप नित्य कार्यान्वित करते हैं। पर वास्तव में लेन-देन अनेक झगड़ों की जड़ है।

हमारे एक निकट सम्बन्धी की आप बीती सुन लीजिए। उनकी पुत्री के जन्मोत्सव पर उनकी पत्नी की सहेली ने कुछ वस्त्र भेंट किये। पत्नी प्रसन्न हुई। वे वस्त्र शौक से छोटे बच्चे को पहनाये गए।

कुछ मास पश्चात् इस सहेली की पुत्री हुई। यह जरूरी था कि मित्र की पत्नी इस शुभ अवसर पर वस्त्रों का उपहार देती। उन्होंने बड़े प्रेम से वस्त्र पहनाये और भेंट किये। लेकिन यह क्या? सहेली को वे पसन्द न आये। वे बोल उठी, मैंने सब वस्त्र रेशम के दिये थे और मुझे सूती दिये गये। क्या मैं इस योग्य नहीं कि मेरी पुत्री रेशम पहने।” बस तनातनी ठन गई। दोनों में बोलचाल बन्द। फिर घर आना-जाना भी बन्द। अन्ततः मित्रता बिल्कुल टूट गई।

सोच कर देखिये, यदि यह व्यर्थ सभ्यता का ढोंग दोनों के मध्य में न होता और लेन-देन में पारस्परिक प्रतियोगिता की भावना न होती, तो मित्रता क्यों टूटती।

हम जो कुछ दूसरे को देते हैं, उससे ज्यादा माल या ज्यादा अच्छी चीज बदले में लेने की कामना करते हैं। यह आशा दूसरे की हैसियत से बढ़ी-चढ़ी होती है। दूसरा अपनी हैसियत के अनुसार देता है, किन्तु आपकी आशाएँ तो संसार की स्थिति भूल कर आकाश में विहार करने लगती हैं। बेचारे की स्थिति आप भूल कर उसे अपनी हैसियत से नापते हैं। फलतः उसकी दी हुई चीज आपको पसन्द नहीं आती। आप इसे अपना अपमान समझते हैं और वर्षों का प्रेम सम्बन्ध लेन-देन के चक्र में आकर टूट-फूट जाता है।

विवाहों के अवसर पर लेन-देन बड़ा भयंकर रूप धारण करता है। कुछ व्यक्ति निर्लज्ज होकर दहेज आदि का सौदा करते हैं और देने में तनिक सी भी कमी होने पर तूफान मचा देते हैं। मुँह से कुछ न माँग कर कन्या पक्ष से बड़ी-बड़ी आशाएँ बाँधे रहते हैं। देने में कमी आने से कन्या को अनेक अमानवीय व्यंग्य या यन्त्रणाएं दिया करते हैं। ये दोनों ही निंद्य स्वरूप हैं, और त्याज्य हैं।

लेन-देन का प्रश्न सम्मुख आते ही पुराना प्रेम टूट जाता है। हम व्यापारी के स्तर पर आ जाते हैं। एक दूसरे का शोषण करना चाहता है। कम देकर अधिक हड़पने की आकाँक्षा करता है। यह स्वार्थमयी मनः स्थिति प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति के लिए अशोभनीय है।

शेक्सपीयर इस तथ्य से भली-भाँति परिचित था। “न कभी किसी को कुछ दो, न लो।” उसका तात्पर्य रुपया उधार देना या लेने की मूर्खता से है। किन्तु हम इसका व्यापक अर्थ ले सकते हैं। जो व्यक्ति देता है, वह उससे अधिक लेने की आशा करता है। यदि आप किसी से एक वस्तु उधार लेते हैं तो कल को वह आप से दो वस्तुएं लेने की इच्छा करेगा। आप न दे सकेंगे तो मनमुटाव होगा। प्रेम कटुता में बदला जायगा।

रुपये का लेन-देन सबसे अनर्थकारी है। मित्र को रुपया ऋण पर देना मानो उसकी मित्रता की जड़ खोद डालना है। न आप उससे अपना वापस माँग सकते हैं, न रुपया बिना लिए छोड़ ही सकते हैं। एक अजीब असमंजस में आप पड़ जाते हैं। एक तो स्वयं अपना रुपया वापस माँगते हुए आपको लज्जा आती है, दूसरे मित्र अपने जाने पहचाने का रुपया होने के कारण उसे यथा समय लौटाने के इच्छुक नहीं होते।

वे व्यापार ठप्प होते हैं जिनमें उधार देने की प्रवृत्ति अधिक होती है। नियम वही है। जिसके पास एक बार अधिक रुपया कर्ज बढ़ जाता है वह उसे लौटाना नहीं चाहता। दूसरी दुकान से खरीदना प्रारम्भ कर देता है। ग्राहक और रुपया दोनों ही चले जाते है।

पुत्र-पुत्री में क्या अन्तर है? दोनों एक ही माता पिता की सन्तानें हैं, उतने ही श्रम से उनका पालन पोषण शिक्षण विवाह इत्यादि हुए हैं। क्या कारण है कि विवाहित पुत्री को घर बुलाते हुए माता-पिता सकुचाते, कतराते हैं?

कारण लेन-देन का विषम प्रश्न है। हमारे समाज की त्रुटिपूर्ण रचना कुछ इस प्रकार की है कि पिता को विवाह के पश्चात् भी प्रत्येक बार पुत्री को कुछ वस्त्र, आभूषण, रुपये तथा अन्य छोटा-मोटा सामान देना ही पड़ता है। अनेकों ऐसे अवसर आते हैं जिन पर देना ही देना रहता है। पुत्री जब कभी आती है मन ही मन पिता से कुछ लेने की गुप्त आकाँक्षा लेकर आती है। इस लेन-देन से घबरा कर अनेक माता-पिता पुत्री के आगमन से कतराने लगते हैं। यदि लेन-देन का प्रश्न सम्मुख न आये, तो स्नेह अटूट रह सकता है।

मित्र तथा निकट सम्बन्धियों के मधुर सम्बन्ध मानवीय भावनाओं की दृष्टि से बड़े सुन्दर हैं। हमें अपने मित्रों, सुहृदों, सम्बन्धियों से उत्तम सम्बन्ध अवश्य रखने चाहिए। अपने सहयोग, सलाह, पथ-प्रदर्शन, श्रमदान से उनका हाथ बंटाना चाहिए पर यथा सम्भव लेन-देन की संकुचित वृत्ति को मध्य में न आने देना चाहिए। अमुक ने हमें दावत दी, हम भी दें। हमें चाय पिलाई, हमें भी अवश्य पिलानी चाहिये। हमें अमुक उपहार दिया था, हम उससे बढ़-चढ़ कर दें, विवाह में टीके का रुपया दिया, हमें एक के स्थान पर दो देने चाहिए। ये प्रश्न निकट भविष्य में कटुता उत्पन्न करने वाले हैं।

वास्तव में होना यह चाहिए कि मित्रों या निकट सम्बन्धियों में अर्थ सम्बन्धी लेन-देन न रहे। यदि रहे तो इतना कम कि दूसरा न दे सके, तो किसी के ऊपर बड़ा भार न पड़े। कर्ज तो बिल्कुल ही न दिया जाय। यदि दिया जाय तो मन में यह सोचकर कि इसे वापस न लेंगे। या स्वयं जब मित्र या सम्बन्धी लौटाएंगे, तभी ले लेंगे।

लेन-देन का एक स्वरूप साझे का व्यापार है। तीन या चार व्यक्ति पूँजी एकत्रित कर कोई व्यापार प्रारम्भ करते हैं। प्रारम्भ में उन्हें कुछ उत्साह रहता है, किन्तु कुछ काल के पश्चात् उनकी रुचि और दिलचस्पी कम होने लगती है। एक या दो व्यक्ति दूसरों की अपेक्षा अधिक कार्य करते हैं। शेष लाभ में से हिस्सा बंटाना मात्र चाहते हैं। धीरे-धीरे व्यापार ठप्प हो जाता है और पूँजी मारी जाती है।

लेन-देन में ‘देन’ अर्थात् देना कठिन और श्रम साध्य है। मनुष्य की यह प्रवृत्ति है कि उसके अधिकार में जो थोड़ा बहुत चीज आ जाती है, चाहे वह उधार माँगी हुई पुस्तक, थर्मामीटर, फर्नीचर, दरी, बर्तन, सीढ़ी या फाउन्टेन पेन ही क्यों न हो, उस वस्तु के प्रति एक कच्चा सा मोह हो जाता है। वह उससे पृथक नहीं होना चाहता। वापस देते हुए उसका मोह जोर मारता है। अतः वह चीज को वापिस करना टालता रहता है। एक दिन, दो दिन, सप्ताह, मास निकलते जाते हैं। जब दूसरे के पुनः-पुनः तकाजे आते हैं, तब भी उसकी मोह निद्रा भंग नहीं होती। मामूली तकाजों की कोई भी परवाह नहीं की जाती। सख्त तकाजा करने से वस्तु तो वापस आ जाती है (चाहे टूट-फूट कर ही सही) किन्तु प्रेम सम्बन्ध टूट जाता है।

शुद्ध प्रेम लेन-देन पर आधारित नहीं होता। लेन-देन की प्रवृत्ति साँसारिकता है, कोरा दिखावा मात्र है। जहाँ लेन-देन की कृत्रिमता है, वहाँ निर्मल प्रेम कैसे निर्भर रह सकता है?

लेन-देन कीजिए पर अपनी बुद्धि विवेक को साथ रखिये। इस दिशा में अति करना आपके सम्बन्धियों के लिए हानिकर हो सकता है।

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