
अमृत पुत्र अभिनन्दन (Kavita)
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जगती के विषमय आँगन में अमृत पुत्र अभिनन्दन!
माँग रही म्रियमाणा मनुजता है तुमसे नवजीवन!
सिसकियाँ और चीत्कार भरे हैं सभी ओर अम्बर में,
सुलग रही विद्वेष वह्नि पर, जन-जन के अन्तर में,
हरो हृदय का ताप-पाप, कर स्नेह-सुधा रस-वर्षण!
जगती के विषमय आँगन में अमृत पुत्र अभिनन्दन!
यह प्रज्ञा का द्वन्द्व आज, आदर्शों की टकराहट,
प्राचीरों से घिरी विकल कर रही सभ्यता छटपटाहट,
कुसुम-सरों से काटो उसके कठिन लौह के बन्धन!
जगती के विषमय आँगन में अमृत पुत्र अभिनन्दन।
तुम आओ किरणों के रथ पे, अन्धकार मिट जाये,
निस्तरंग जीवन-सागर में लाल लहर लहराये,
बाँटो जग में स्निग्ध विभाकरण जला-जला निज यौवन!
जगती के विषमय आँगन में अमृत पुत्र अभिनन्दन!
देखा, हार रहे हैं वे भी जिन्हें गर्व भुजबल का,
पौरुष की फीकी परिभाषा, बुझता तेज अनल का;
छाया पुर के चाँद दिखाओ अपना ज्योतित आनन!
जगती के विषमय आँगन में अमृत पुत्र अभिनन्दन!
तुम वंशी के कोमल स्वर से कर दो असि को कुँठित,
भौतिकता के शव में कर संस्कृति की आत्मा जागृत,
नश्वर वीणा पर गाओ कवि शाश्वत गीत चिरंतन!
जगती के विषमय आँगन में अमृत पुत्र अभिनन्दन!
प्रकटे स्वर्ण-शस्य धरती पर आगत मंगलमय हो,
नूतन युग के नव मानव की दिशि-दिशि में जय-जय हो,
नई चेतना के निर्माता, करो अमर व सर्जन!
जगती के विषमय आँगन में अमृत पुत्र अभिनन्दन!
*समाप्त*
(प्रो. आनन्द नारायण शर्मा, एम. ए.)
(प्रो. आनन्द नारायण शर्मा, एम. ए.)