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Magazine - Year 1954 - Version 2

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कर्त्तव्य पथ पर दृढ़ रहिए।

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(श्री पं. देवदत्त शास्त्री)

निन्दन्तु नीति निपुणा यदि वास्तु वन्तु

लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेच्छम।

अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा

न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥

‘नीति-विशारद लोग चाहे निन्दा करें अथवा प्रशंसा, लक्ष्मी आवे अथवा स्वेच्छानुसार चली जाय, मृत्यु आज हो अथवा युग-युगान्तर में, किन्तु कर्त्तव्यनिष्ठ, धीर पुरुष न्याय के पथ से विचलित नहीं होते।’ जिस समय साँसारिक सन्तापों से पुरुष उद्विग्न हो जाता है उस समय उसका मन स्थिर नहीं रहता। मनुष्य की इच्छा स्वभावतः अनन्त सुख के भोग करने की है, इस स्वाभाविकता को वह भूल कर यदि संसार के अनुतापदायी विविध विषयों में अनुरक्त हो जाय तो उसके भाग्य में शोक के अतिरिक्त और कुछ नहीं रहेगा।

अपनी वृत्तियों को शान्त और सहनशील बनाना मनुष्य मात्र का कर्त्तव्य है। मन की वृत्ति को विवेकपूर्ण रखने से जिस प्रकार अतीव निर्धन सुदामा को अपने दारिद्र्य का, हरिश्चन्द्र को नीच सेवा का और वीर केशरी छत्रपति शिवाजी को कठोर कारागृह का घोर दुःख अनुभव नहीं हुआ उसी प्रकार प्रत्येक विवेकी कर्त्तव्यनिष्ठ व्यक्ति को दुःख प्रतीत नहीं होता। इतना ही नहीं, किन्तु सत्पुरुषों की भाँति वह अपने ध्येय से विमुख भी नहीं हो सकता। अतएव बाह्य उपाधियों पर निर्भर रहने की कोई आवश्यकता नहीं। सुख दुःख का स्थान मन है इसलिए यह ध्रुव सत्य है कि जिस प्रकार मन की भावना होगी उसी प्रकार मनुष्य को सुख अथवा दुःख का मान होगा।

महान् दुःखों की उत्पत्ति का केन्द्र मन ही है, इसलिए मनुष्य को चाहिए कि कर्त्तव्यारुढ़ होकर महासुख की खोज भी उसी जगह करे? भविष्यत् में क्या होगा? यह बात जब हमारी समझ में नहीं आती तब भावी संकट का स्वरूप हमें विशाल और भयानक दिखाई देने लगता है। ऐसी अवस्था में कर्त्तव्याकर्त्तव्य का विवेक नहीं रहता। अनेकों मार्गों के चित्रपट हमारी दृष्टि के सामने आने लगते हैं। निदान किसी न किसी मार्ग का अवलम्बन करना ही पड़ता है। परन्तु अपने जीवन में हम चाहे जिस मार्ग से जायं, हमें इस बात का दृढ़ विश्वास रखना चाहिए कि हम किसी एक पथ-दर्शक के अनुगामी हैं। सच पूछा जाय तो वह मार्गदर्शक सदा हमारे ही पास रहता है। विवेक और सद्विचार ही ईश्वर निर्मित गुरु हैं। जो व्यक्ति इनकी आज्ञानुसार कर्त्तव्य करेगा वह कभी भी आपत्ति में न फँसेगा। निखिल-शास्त्र-सम्पन्न पुरुष यदि विवेक और सद्विचारों से शून्य है तो वह दुःख उठायेगा और उचित मात्रा में दुखी अवश्य होगा। धर्म भी एक उत्तम पथ प्रदर्शक है, किन्तु इस मार्ग में विविध कारणों से अनेक प्रकार के विघ्न पड़ जाने की आशंका बनी रहती है। विश्वास किस बात पर किया जाय? इस विषय में शंका उत्पन्न हो तो भी हमें अपना कर्त्तव्य निश्चित करने में कोई बाधा उपस्थित न होनी चाहिए। हमें प्रत्येक परिस्थिति में अपने कर्त्तव्य पर दृढ़ रहने की आदत डाल लेनी चाहिए।

जीवात्मा को ईश्वर-प्राप्ति का सबसे वृहत् साधन मानव शरीर मिला है। इसके द्वारा सभी व्यक्ति स्वर्ग-अपवर्ग जैसे दुर्लभ पदों की प्राप्ति कर सकते हैं। इसीलिए विषयी पुरुषों से लेकर त्यागी योगी महापुरुष भी इस शरीर की रक्षा करते हैं। जिस सन्दूक में द्रव्य रहता है उसकी रक्षा के अनेक उपाय किए जाते हैं। जिस शरीररूपी सन्दूक के गर्भ में ईश्वर-रूपी अमूल्य रत्न है भला साधु, महात्मा, गृहस्थ आदि उसकी बिना रक्षा किये हुए कैसे रह सकते हैं। तात्पर्य यह है कि कर्त्तव्याकर्त्तव्य के सम्पादन में शरीर का भी प्रमुख भाग रहता है। कर्त्तव्य-निष्ठा स्नेहमयी माता के समान मनुष्य की अभिभाविका है। कोई व्यक्ति यदि विषय वासनाओं से विरक्त हो मनुष्य समाज को त्याग कर एकान्तवास करने लग जाय और अपने को इतने से ही कृतकृत्य समझने लगे तो यह उसकी कर्त्तव्य निष्ठा नहीं स्वार्थ निष्ठा होगी। दूसरों के लिए उपयोगी होना ही हमारा मुख्य कर्त्तव्य है। उसी से हमारा जन्म सफल और जीवन सुखी एवं आनन्दमय हो सकता है। कुछ लोगों की गलत धारणा यह है कि जो कार्य हमें इष्ट है उसे करने के लिए यदि हम पूर्ण रूप से स्वाधीन हों तो इसके समान कोई अन्य सुख ही नहीं है। यह निश्चित है कि एक आदमी से सभी कर्त्तव्य पूरे नहीं किये जा सकते, तथापि यह धारणा अवश्य रखनी चाहिए कि हमसे जितने भी कर्त्तव्य, कर्म हों, उनका परिणाम अच्छा ही हो। हममें भीम का सा बल नहीं है, दूसरों की दुष्ट बुद्धि को नष्ट करना भी हमें नहीं आता, परन्तु स्वयं हमारे शरीर में जो अवगुण हैं उन्हें हम निकाल सकते हैं।

हमारा कर्त्तव्य है कि भय, लोभ, ईर्ष्या और क्रोध आदि दुर्गुणों को स्थान न दें, क्योंकि क्रोधादि की उत्पत्ति से अविवेक जाग्रत होता है। ज्ञान शून्य मनुष्य स्वभावतः कृपण हो जाते हैं। उन्हें चेतन और अचेतन का ध्यान नहीं रहता। अविवेक सर्वनाश का प्रथम सोपान है, क्योंकि “विवेक भ्रष्टानाँ भवति विनिपातः शतमुखः।” विवेकरहितों के पद-पद में विनाश की आशंका का यही कारण है कि अविवेक के बाद स्मृति का नाश सम्भावित है। स्मरण शक्ति भ्रष्ट हो जाने पर मनुष्य कार्याकार्य विवेक-शून्य हो जाता है। उसकी स्मृति इस प्रकार छिन्न-भिन्न हो जाती है कि वह उसके द्वारा कोई सिद्धि नहीं प्राप्त कर सकता। स्मृति भ्रष्ट होने से बुद्धि का भ्रष्ट होना आवश्यक है। बुद्धि-भ्रष्ट व्यक्ति ही कर्त्तव्य-च्युत होता है। उसके प्रत्येक कार्य में निर्दयता, अपटुता, कटुता, प्रतिघातिता, जड़ता आदि दोषों का समावेश होता है। उपर्युक्त क्रमिक दोषों से मनुष्य इतना पतित हो जाता है कि सद्गति और लौकिक-प्रतिष्ठा दोनों से उसे हाथ धोना पड़ता है। अपनी उन्नत अवस्था से अधःपतन की ओर जाना कर्त्तव्य भ्रष्ट होना है। वस्तुतः बुद्धियोग के द्वारा मनुष्य सच्चा कर्त्तव्यनिष्ठ बन सकता है। इसके बिना हम सत्य की उपलब्धि नहीं कर सकते। बिना सत्य के कोई सुख नहीं मिलता। बिना निर्मल बुद्धि के जीवन का कोई मूल्य नहीं। बुद्धि योग ही हमें कर्त्तव्य-सिद्धि प्रदान कर सकता है। कर्त्तव्य के मर्म को भली भाँति समझ लेना जीवन का वास्तविक महत्त्व समझना है। यथाशक्ति सत्कर्म करने का नाम कर्त्तव्य-पालन है। कर्त्तव्य पालन जितना कहने में सरल है उतना ही करने में कठिन है।

इसलिए कर्त्तव्य निष्ठा को कठिनाइयों का सामना करने में सदैव सन्नद्ध रहना चाहिए। सत्य, न्याय और परोपकार पर सदा दृढ़ रहना कर्त्तव्यनिष्ठ की दृढ़ निष्ठा है। गिरे को ऊँचा उठाना, दीन-दुखियों की मदद करना, साधु-रक्षण, दुष्ट संहार आदि प्रत्येक सत्कर्म कर्त्तव्य-पालन के उदाहरण हैं। हमें कर्त्तव्य निष्ठ बनने के लिए प्रकृति की प्रेरणा और सहायता सदैव मिलती है। वह स्वयं उदाहरण बन कर हमारी दृष्टि के सामने खड़ी मुस्कराया करती है। जब हम अंतःहृदय से विचार करते हैं तो भगवती प्रकृति सूर्य, चन्द्र और ताराओं के रूप में कर्त्तव्य पालन करने में तत्पर दिखाई देती है। त्रैलोक्य में कितनी ही उत्क्रान्तियाँ और परिवर्तन क्यों न हों, परन्तु हम इन्हें अपने कार्य पर सदैव अटल देखते हैं। इनके कर्त्तव्य की डोरी कभी ढीली नहीं पड़ती। अनवरत परिश्रम से परिश्रान्त भी वे नहीं उकताते। प्रकृति का एक लघु उदाहरण हमारे सामने पुष्प का है। वह चाहे सुसज्जित वाटिका या उपवन अथवा निर्जन वन में जहाँ कहीं भी हो समय से मुकुलित होगा, प्रफुल्लित होगा, गन्ध बिखेरेगा और फिर समय पाकर मुरझा जायगा। वह किसी की अपेक्षा नहीं करता कि मुझे कोई देखे या सूँघे अथवा सराहे। कर्त्तव्य मक्खन से भी अधिक कोमल और अग्नि से भी अधिक कठोर होता है। कर्त्तव्य-पालन में जिस प्रकार औचित्य का समावेश रहता है उसी प्रकार उसमें अनौचित्य की चरमसीमा भी रह सकती है। यही कर्त्तव्य की विलक्षणता है। यह वैलक्षण्य हमें जड़ प्रकृति में भी दिखाई पड़ता है। जैसे एक हरा भरा वृक्ष ढेला मारने पर भी फूल पुष्प दान करता है-केवल अपना कर्त्तव्य समझ कर। यहाँ तक कि जब जड़ से भी काटा जाने लगता है तो भी अपनी छाया काटने वाले के ऊपर से नहीं हटाता। यह तो कर्त्तव्यनिष्ठा की कोमलता और परोपकारिता का उदाहरण है। अब कठोरता में अग्नि को देखिए-अग्नि का प्रधान कर्त्तव्य हर एक पदार्थ को भस्मसात् करना है। चाहे जो कुछ हो वह जला डालता है। यहाँ तक कि गोद तक का बालक भी यदि उसके निकट आ जाय तो वह अपना कर्त्तव्य समझ कर उस निरीह अबोध शिशु को अकारण भस्म कर देगा।

हमारी जननी भारत भूमि ने अपने गर्भ से प्रायः कर्त्तव्यनिष्ठ पुत्रों को ही पैदा किया है। और आज भी उसकी गोद ऐसे लालों से खाली नहीं है। सतयुग में हमें शिवि, दधीचि, हरिश्चन्द्र जैसे दृढ़प्रतिज्ञ कर्त्तव्यनिष्ठ महापुरुषों के उदाहरण मिलते हैं, जिनसे समस्त विश्व आज भी शिक्षा ले रहा है। त्रेता में मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम ने अपनी सगर्भा पत्नी सीता को पुनः निर्वासित कर कर्त्तव्य का पालन किया। द्वापर में धर्मराज युधिष्ठिर आदि राज-वंशोंत्पन्न सपूतों ने अपनी कर्त्तव्यनिष्ठा की मर्यादा रखी। कलियुग घृणित और दुष्कर्मों का केन्द्र कहा जाता है। परन्तु हिन्दू-कुल-सूर्य महाराणा प्रताप, छत्रपति शूरवीर कर्त्तव्यनिष्ठ पुत्रों ने जननी और जन्म भूमि को लज्जित नहीं होने दिया। कर्त्तव्य एकदेशीय या किसी व्यक्ति की सम्पत्ति नहीं है, उसके लिए सभी समान हैं और वह सर्वत्र व्याप्त है। कर्त्तव्य परमात्मा की प्रेरणा का एक अमूल्य रत्न है जो हर एक को शीघ्र नहीं मिलता। उसमें तीव्रता और मधुरता दोनों हैं। कर्त्तव्यनिष्ठा ही क्षुद्र मानव को सुर नर बन्ध बना देती है। इसी की बदौलत समाज और राष्ट्र का अभ्युत्थान हुआ करता है। सारी समृद्धियाँ और प्रत्येक संघर्ष में विजय कर्त्तव्य निष्ठा पर ही अवलम्बित रहती है।

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