
पहले अपने को सुधारो
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(श्री स्वामी शिवानन्द जी)
संसार में इधर-उधर निरुद्देश्य होकर विचरण न करो। अपना उद्देश्य निश्चित करके चलो। ज्ञान की पहाड़ी पर धीरे-धीरे दृढ़ता के साथ चढ़ कर उस चोटी पर पहुँचो जहाँ पर अमृतत्व का भव्य भवन स्थापित है।
अध्यात्म के मार्ग में निरन्तर कठिनाइयाँ एवं असफलताएं आती रहती हैं। इसलिए इस मार्ग में चलने के लिए अध्यवसाय, जागरुकता एवं अपरिमित साहस की आवश्यकता है।
जब धीरे-धीरे हृदय की ग्रन्थियाँ शिथिल हो जाती हैं और वासनाएं क्षीण होने लगती हैं। -जब कर्म के बन्धन ढीले पड़ते हैं और अज्ञान कम होता है-जब कमजोरी नष्ट हो जाती है तब तुम अधिकाधिक शान्त एवं शक्तिशाली बन जाते हो। तब तुम्हें अपने अन्दर से ही प्रकाश प्राप्त होने लगता है। तब तुम नित्य-प्रति अधिक दिव्य बनते जाते हो।
आसुरी शक्तियों पर विजय प्राप्त करना बड़ा कठिन है। चित्त-वृत्तियों को एकाग्र करना ध्यान लगाना भी एक कठिन काम है। लेकिन जागरुकता, अध्यवसाय, निरन्तर अभ्यास, सतत् प्रयत्न सत्संग और दृढ़ संकल्प शक्ति द्वारा सारी कठिनाइयाँ दूर हो जायेंगी और मार्ग सुगम सुहावना और आकर्षक बन जायगा।
साहस के साथ मन से संघर्ष करो। प्यारे साधक! आगे बढ़ो! संघर्ष जारी रखो। साहसी बनो! युद्ध के अन्त में तुम्हें शाश्वत आनन्द, अमृतत्व का भव्य-भवन और ब्रह्म के अक्षय पद प्राप्त होंगे।
निरन्तर प्रयत्न करते रहो। निराश मत हो। मार्ग में तुम्हें प्रकाश मिलने वाला है। सब जीवों की सेवा करो सत्य से प्रेम करो। शान्त बनो। नियमपूर्वक ध्यान लगाओ। तुम्हें शीघ्र ही सुन्दर जीवन और परम शान्ति प्राप्त होगी।
अगर तुम्हें सत्य की थोड़ी भी झाँकी मिल जायगी तो तुम्हारा सारा जीवन ही बदल जायगा। तुम्हारे हृदय में नवीनता आ जायगी और तुम्हारा दृष्टिकोण भी नवीन होगा। आध्यात्मिक जीवन की एक नवीन लहर तुम्हारे सारे शरीर में प्रवेश कर जायगी। उस समय तुम्हारी जो अवस्था होगी उसका वर्णन कर सकना असम्भव है।
तुम व्यर्थ ही अपने बन्धन क्यों बढ़ाते हो? दिव्यता तुम्हारा जन्म-सिद्ध अधिकार है। तुम उसको आज ही क्यों नहीं प्राप्त कर लेते? विलम्ब का अर्थ है तुम्हारे कष्टों के दूर होने में विलम्ब। तुम इन बन्धनों को किसी भी क्षण नष्ट कर सकते हो। यह तो तुम्हारे हाथ में है। फिर इन्हें आज ही क्यों नहीं नष्ट कर डालते? यह स्वतन्त्रता ही अमरता और शाश्वत आनन्द है।
तुम्हारे अन्दर जो दिव्य-शक्ति है वह बाहर की सभी-शक्तियों से बड़ी है। इसलिए किसी बात से डरो मत। अपने अन्तरात्मा पर विश्वास रखो।
अपना सुधार करो। अपने चरित्र का निर्माण करो। हृदय को पवित्र बनाओ। सद्गुणों को अपने अन्दर बढ़ाओ। बुराइयों को निकालो। अनुशासन के द्वारा अपने अन्दर की पाशविक शक्तियों को दैवी शक्तियों का दास बना डालो। इसके लिए तुम्हें तप, संयम और ध्यान की भी आवश्यकता पड़ेगी। यहाँ से तुम्हारी स्वतंत्रता प्रारम्भ होती है।
बिना त्याग के तुम कभी सुखी नहीं बन सकते। बिना त्याग के तुम कभी मोक्ष भी प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिए प्रत्येक चीज का त्याग कर दो और त्याग को अपने जीवन में सर्वोत्तम स्थान दो।
पहले तुम भले आदमी बनो। अपनी इन्द्रियों पर अधिकार रखो। तब सात्विक मन से आसुरी मन पर विजय प्राप्त करो। तब दिव्य प्रकाश अपने आप प्राप्त होगा। तभी तुम्हारे अन्दर दिव्यता धारण करने की पवित्रता आयेगी। जब तक तुम इन्द्रियों पर विजय प्राप्त नहीं कर लेते तब तक तुम्हें तप, संयम और प्रत्याहार का अभ्यास करना होगा।
भगवत्कृपा और चरित्र की शक्ति-इन दो चीजों की चट्टान के ऊपर तुम आध्यात्मिक जीवन की दृढ़ नींव डालो। ईश्वर और उसके शाश्वत नियम की शरण जाओ। फिर संसार में या अन्यत्र कोई ऐसी शक्ति नहीं जो तुम्हारी उन्नति को रोक सके। फिर आत्मानुभूति निश्चित है। तुम्हारे लिए असफलता जैसी कोई चीज नहीं रहेगी।
पहले अपने हृदय को पवित्र बनाओ और फिर दृढ़ता के साथ योग के सोपान पर चढ़ो। अपने अन्दर साहस रखो। ऋतम्भरा प्रज्ञा को प्राप्त कर सोपान की चोटी पर पहुँचकर ज्ञान-मन्दिर में प्रवेश करो।
कष्टों के सहन करने से मनुष्य की आत्मा पवित्र बनती है। वे मनुष्य के पाप और कलंक जला डालते हैं। फिर दिव्यता प्रकट होती है। वे आत्मिक-शक्ति बढ़ाकर दृढ़ इच्छा शक्ति प्रदान करते हैं। इसीलिये हम कह सकते हैं कि कष्ट भी गुप्त रूप से मनुष्य का कल्याण करते हैं।
ध्यान और पूजा से आत्मिक-शक्ति प्रकट होती है। इसलिए नियम पूर्वक ध्यान का अभ्यास करो। तुम्हें शीघ्र ही निर्विकल्प समाधि प्राप्त होगी।
मन को शान्त करके एक स्थान पर बैठ जाओ। यह अनुभव करो कि तुम इस शरीर और मन दोनों के स्वामी हो। हृदय के भीतरी भाग में प्रवेश करो और शान्ति के अगाध सागर में गोते लगाओ।
अज्ञान के कारण तुमने चारों ओर जेल की दीवारें खड़ी कर रखी हैं। विवेक द्वारा तुम उन्हें नष्ट कर सकते हो।
जब बिजली के लैम्प पर कपड़ा लगा होता है तब प्रकाश साफ नहीं दिखाई पड़ता है पर जब कपड़ा हटा दिया जाता है तो प्रकाश बिल्कुल साफ होता है। उसी प्रकार यह स्वयं प्रकाशवान आत्मा पंचकोषों से आवृत है। शुद्ध आत्मा का ध्यान करने से और “नेति-नेति” का अभ्यास करने से ही आत्मा का प्रकाश प्रकट हो सकेगा।