Magazine - Year 1955 - Version 2
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Language: HINDI
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दूसरों के दोष मत देखिए
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(श्री दौलतराम कटहरा, दमोह)
दूसरों के दोष देखने की आदत बहुत बुरी है। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जब तक मैं अपनी पत्नी के दोष ही देखता रहा, तब तक मेरा गृहस्थ−जीवन कभी शान्तिमय नहीं रहा। दोष देखने की आदत पड़ जाने से सामने वाले व्यक्ति के दोष ही दोष दीखते हैं, उसमें अच्छे अच्छे गुण भी हों पर वे तिल का ताड़ बनाने की इस बुरी आदत के कारण वैसे ही नहीं दीखते जैसे कि तिनके की आड़ में पहाड़ छुप जाता है। दूसरों के दोष देखना, छिद्रान्वेषण करना महान मानस रोग है। इससे मुक्त होना चाहिए।
भगवती पार्वती के दो पुत्र थे। एक के छह मुख और बारह आँखें थीं और दूसरे के हाथी जैसे लम्बी नाक थी। पहला दूसरे की नाक हाथ से नापने लगता और दूसरा पहले की आँखें गिनने लगता। एक, दो, तीन, चार...दस, ग्यारह, बारह। बस फिर लड़ाई ठन जाती और वे आपस में खूब लड़ने लगते। माता पार्वती इनकी लड़ाई से परेशान हो गई। बरजतीं, पर वे न मानते। एक दिन उन्हें पकड़ कर शंकर जी के पास ले गईं और बोली कि महाराज, ये लड़ाके लड़के दिन भर लड़ते रहते हैं। इन्हें किसी तरह समझा दीजिए। ज्ञान−विधान शंकर जी उनके लड़ने का कारण समझ गये और उन्होंने उन्हें बड़े प्रेम से पास बिठाकर दूसरों के ऐब देखने की बुराई समझा दी। लड़कों ने लड़ना बन्द कर दिया। इसीलिए किसी ने कहा है—
अगर है मंजूर तुझको बेहतरी,
न देख ऐब दूसरों का तू कभी।
कि बद (दोष)−बीनी आदत है शैतान की,
इसी में बुराई की जड़ है छिपी॥
महात्मा सूरदास का बहुत सुन्दर भजन है—
हमारे प्रभु अवगुन चित न धरौ। ...इत्यादि।
भगवान से की गई यह प्रार्थना हृदय को चुम्बक जैसे पकड़ लेती है। भगवान हमारे अपराधों को क्षमा करें, हमारे दोष को न देखें, यह भाव हृदय में आते ही विचार आता है कि अपने अपराधों को क्षमा करवाने वालों को दूसरों के अपराधों को स्वयं भी तो क्षमा करना चाहिये। हम जब स्वयं क्षमाशील होंगे तभी हमारे अपराध भी क्षमा हो सकेंगे। बाइबिल का वचन है कि ‘यदि तू चाहता है कि तेरे दोषों पर विचार न किया जाय तो तू दूसरों के दोषों पर विचार मत कर’।
हजरत नूह एक दिन शराब पीकर उन्मत्त से हो गए। उनके कपड़े यहाँ वहाँ बिखर गए और वे नंगे हो गए। उनके लड़के शाम और जेफेथ उलटे पैरों उन तक गए और उन्होंने एक कपड़े से उन्हें ढक दिया। उन्होंने अपने प्रिय पिता का नंगापन नहीं देखा। हमारे हृदय में भी यही भाव होना चाहिए कि अपने प्रिय परिजनों और अन्य लोगों की नग्नता उनकी बुराइयाँ हम व्यर्थ में ही न देखते फिरें। हमारा स्वभाव तो कपास जैसा होना चाहिए। तुलसीदास जी कहते हैं कि—
साधु चरित शुभ सरिस कपासू।
सरस विसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा।
वन्दनीय जेहि जग जसु पावा॥
दूसरों के शरीरों की नग्नता और छिद्रों को ढकने के लिए, कपास अपने आपको ओंटवाता है और भी कष्ट स्वयं सहकर दूसरों के शारीरिक दोषों को ढक देता है। साधु को दूसरों के दोषों को स्वयं कष्ट सहकर भी ढकने का प्रयत्न करना चाहिए।
मैंने अनुभव किया है कि दूसरों के दोष देखना भगवान के प्रति कृतघ्न होना है। हम शिकायत करते रहते हैं कि हमारा अमुक सम्बन्धी ऐसा है, वैसा है। पर हम समस्या के दूसरे पहलू पर विचार नहीं करते। हम अपने उस सम्बन्धी के उन विशेष गुणों का ख्याल ही नहीं करते जो अन्य लोगों में नहीं हैं और जिनके कारण हम उन उलझनों से बचे रहते हैं जिनसे कि दूसरे परेशान हैं। हम बहुधा यह भूल जाते हैं कि हमें जो सम्बन्धी मिला है वह दूसरों के सम्बन्धियों की अपेक्षा अनेक बातों में बहुत अच्छा है ओर व्यर्थ में ही हम अपने उस सम्बन्धी के कारण अपने भाग्य को कोसते हैं। इस तरह हम विधाता के प्रति कृतघ्न बनते हैं। इसके अतिरिक्त हम इसलिए भी कृतघ्न हैं कि हम अपने सम्बन्धी की की हुई सेवाओं की सराहना नहीं करते। कृतज्ञता का सबक हमें भगवान राम से सीखना चाहिए। महर्षि वाल्मीकि राम के लिए कहते हैं—
न स्मरत्युपकाराणां शतमप्यात्मवत्तया।
कथंचिदुपकारेण कृतेनैकेन तुष्यति॥
वे कौशिल्यानन्दन ऐसे हैं कि किसी के द्वारा अपने प्रति किए गए सैकड़ों अपराधों का भी स्मरण नहीं करते किन्तु यदि कोई किसी भी प्रकार उनका कैसा भी उपकार करदे तो उससे ही उन्हें सन्तोष हो जाता है। महाकवि ने राम के इसी गुण के कारण उन्हें बार बार ‘अनसूय’ कह कर स्मरण किया है। ‘अनसूय’ अर्थात् असूया—दोष रहित। किसी के गुणों में दोष देखना अथवा किसी के गुणों से जलना ही असूया है। भगवान राम न तो किसी के गुणों में दोष देखते थे और न किसी के गुणों से जलते थे। राम−भक्त को भी ऐसा ही होना चाहिए।
पर−दोष−दर्शन के दोष से मुक्ति पाने के लिए हमें पर−गुण−चिन्तन की आदत डालनी चाहिए प्रतिपक्षी के गुणों का विचार करना चाहिए। आइए हम परमेश्वर के पवित्र तेज का ध्यान कर उससे ऐसी सत्प्रेरणा प्राप्त करें कि वह हमें ऐसी सुबुद्धि दे कि हम महात्मा तुलसीदास जैसी ही प्रार्थना करें कि हम दूसरों के गुणों को देखें, दोषों को नहीं।
परुष−वचन अतिदुसह श्रवणसुनि, तेहिपावक न दहोंगो
विगत−मान सीतल मन पर गुन नहिं दोष कहौंगो।