Magazine - Year 1955 - Version 2
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Language: HINDI
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विवेक वचन
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गरल वृक्ष संसार में, दोइ फल उत्तम सार।
स्वाध्याय रस पान पुनि, सत संगति ही सार ॥1॥
ब्रह्मचर्य आश्रम सुखद, श्रम सहि करो सप्रीति।
बढ़े बाल और बालिका, यही सनातन रीति ॥2॥
विद्या धन आधार है, विद्या बल आधार।
यह मत जो धारण करे, वह सब गुण आधार ॥3॥
कर्त्तव्याकर्त्तव्य गुनि, गहै प्रशस्त विचार।
रहें सदा सुविवेक रत, साँचो शिक्षा सार ॥4॥
पड़ी न आई काम पै, चित्रग्रीव की उक्ति।
अपनी अपनी क्यों करौ, सबतें सबकी युक्ति ॥5॥
निर्बल, निरुघर, निर्घनी, नास्तिक, निपट, निरास।
जड़ कायर करिदेत हैं, नरहि अन्ध विश्वास ॥6॥
बिना ग्यान कौं करम कहुँ, तारि सके संसार।
कहा काट करिहै जु कर, धार बिना तरवार ॥7॥
जनमत ही पावै नहीं, भली बुरी कोउ बात।
बूझत बूझत पाइये, ज्यों ज्यों समझत जात ॥8॥
भलौ ज्ञान, अज्ञान नहिं है अज्ञान न ज्ञान।
भानु उदे तो तम नहीं, है तम उदे न भान ॥9॥
सरसुति के भण्डार की, बड़ी अपूरव बात।
ज्यों खरचे त्यों−त्यों बढै, बिन खरचे घटि जात ॥10॥
देखा देखी करत सब, नाहिन तत्व विचार।
यह निश्चय ही जानिए, भेड़ चाल संसार ॥11॥
ज्यों ज्यों छुटे अयान पन, त्यों त्यों प्रेम प्रकास।
जैसे कैरी आम की, पकरत पके मिठास॥12॥
गहत तत्व ज्ञानी पुरुष, बात विचार विचार।
मथनि हारितजि छाछ कों, माखन लेत निकार ॥13॥
या लच्छन ते जानिये, उर अज्ञान निवास।
अरुचि होय सत्संग में, रुचे हास परिहास ॥14॥
ग्रन्थ कीट बनि व्यर्थ क्यों, करत सुबुद्धि विनाश।
खोलहु द्वार दिमाग के, पावहु पुण्य प्रकाश ॥15॥
केवल ग्रन्थन के पढ़े, आवागमन न जाय।
षट् रत भोजन लखें ते, बिन खाये न अघाव ॥16॥
होय कछू समुझे कछु, जाकी मति विपरीत।
कमलवाय रोगी लखै, श्याम सेत को पीत ॥17॥
कोउ बिन देखे बिन सुने, कैसे सकै विचार।
कूप भेख जाने कहा, सागर का विस्तार ॥18॥
साँचा झूठ निरनय करे, नीति निपुन जो होय।
राज हंस बिन को करे, नीर छीर कौ दोय ॥19॥
फल विचार कारज करौ, करहु न व्यर्थ अमेल।
ज्यों तिलबाय पेरिए, नाहिन निकसै तेल ॥20॥
पीछे कारज कीजिये, पहले पहुँच विचार।
कैसे पावत उच्च फल, बावन बांह पसार ॥21॥
फिर पीछे पछताइए, जो न करे मति सूध।
बदन जीभ हिय जरत है, पीवत तातौ दूध ॥22॥