
Magazine - Year 1955 - Version 2
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Language: HINDI
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चरित्र बल से ही राष्ट्र निर्माण होगा
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(सन्त टी. एल. वास्वानी)
प्राचीन फारस के ऋषि जरथुस्र कहते थे—“पवित्रता ही आत्म−ज्ञान का केन्द्र है, इसलिये चन्द्र के समान पवित्र बनो।” क्या आपने कभी सोचा है कि भारतवर्ष का अर्थ क्या है? भारत शब्द का उच्चारण तुम बार−बार करते हो, किन्तु उसका असली शब्दार्थ क्या है? ‘इण्डिया’ शब्द ग्रीस−वासियों ने प्रचलित किया। इसका अर्थ है इन्द्र का देश, चन्द्रमा का देश, पवित्रता का देश। भारतवर्ष पवित्रता का देश है। जरथुस्र कहते हैं—‘चन्द्र के समान पवित्र बनो।’ मैं कहता हूँ—’तुम पूर्ण रूप से भारतीय बनो। भाषा, वेश और भोजन में, विचार और आकाँक्षाओं में, अंग−अंग में और नस−नस में भारतीय बनो। अपने व्यक्तित्व की रग−रग और इंच−इंच में भारतीय बनो।” जब मैं कहता हूँ, ‘भारतीय बनो’ तब मेरा मतलब है ‘पवित्र बनो,’ क्योंकि भारत का अर्थ है ‘पवित्रता का देश। किन्तु शोक! आज भारतीय पवित्रता के पथ का परित्याग कर रहे हैं। देश में छुआ−छूत का भूत प्रबल है।
प्राचीन भारत के तीन महापुरुष हैं, श्रीराम, श्रीकृष्ण और भगवान् बुद्ध। इन सभी के जीवन और शिक्षाओं का साराँश है—“पवित्र बनो, आत्म−संयमी बनो।” तीनों ने तपस्या के जीवन के आनन्द का अनुभव किया था। ब्रह्मचारी या तपस्वी के हृदय में आनन्द निवास करता है। श्रीराम तपस्या का महत्व समझते थे, इसीलिये वे वनवासी हुए। ब्रह्मचर्य या तपस्या का जीवन संन्यासी का शुष्क जीवन नहीं है, किन्तु अत्यन्त सौंदर्य का जीवन है।
श्री कृष्ण ने भी तपस्वी जीवन का महत्व समझा था। जो लोग उनके सन्देश और उनके चरित्र के विषय में उल्टे सीधे अर्थ लगाते हैं, वे बड़े भ्रम में हैं। वे योगी थे, योगीश्वर थे। उन्होंने संसार को गीता सरीखा ज्ञान प्रदान किया। उन्होंने उच्चतर जीवन की महत्ता बतलाई, उच्च पवित्रता तथा उच्च प्रेम की एकता प्रतिपादन की। गीता में एक बड़ा सुन्दर प्रसंग है, जिसमें भगवान् कहते हैं—
“यदा संहरते चाऽयं कूर्मोंऽडंगानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यः तस्य प्रजा प्रतिष्ठिता।।
जब मनुष्य कामनाओं, वस्तुओं, कर्मों, इंद्रियों और इन्द्रियार्थों सभी से अपने मन को खींच लेता है तभी वह योगी होता है।
भारत को नवीन राष्ट्र न बना सकने का दोष हमारे ही सिर है। जितना ही अधिक मैं सोचता हूँ, मुझे समझ पड़ता है कि हमने उचित रीति का अनुकरण नहीं किया। वह नियम, जो राष्ट्रों को उन्नति पथ पर चलाने की नीति का नियन्त्रण करता है, आत्म− संयम ही है। फ्रान्सिस गेल्टन ने, जो समाज−शास्त्र का एक प्राचीन विद्वान् हो गया है, प्राचीन ग्रीस की अधोगति और पतन के कारणों का विवेचन किया है। एक समय था, जब ग्रीस संस्कृति का क्रीड़ा−क्षेत्र था, कला का मन्दिर था, वह यूरोपीय सभ्यता का उद्गम स्थान था। उसका पतन क्यों हुआ? गेल्टन बतलाता है कि ग्रीस का पतन ‘सामाजिक सदाचार के अभाव के कारण हुआ। ग्रीस से आत्म−संयम की शक्ति चली गई। अपनी समृद्धि के समय में ग्रीस आरामतलबी के गड्ढे में गिर पड़ा। विलासिता राष्ट्रीय शक्ति−धारा का शोषण कर लेती है। युवकों से मैं कहता हूँ—“विलासिता का त्याग करो। कर्मयोग के मार्ग की ओर मुँह फेरो, क्योंकि आरामतलबी माता के प्रति महापाप है, मातृभूमि को बलवान सन्तानों की आवश्यकता है। शक्तिशाली सुतों की जरूरत है।”
एक समय वह था, जब रोम का झण्डा दूर−दूर के देशों पर फहराता था। एक समय रोम-साम्राज्य बहुत विशाल था, जैसा कि आज इंग्लैंड का है, किन्तु रोम की शक्ति भीतर−ही−भीतर खोखली हो गई। उसकी जड़ों को अन्दर के कीड़े खा गये, उसकी शक्ति को विलासिता चाट गई। फलतः जब हूण और गौल लोगों ने आक्रमण किए तो रोम उनके सामने खड़ा न हो सका। हुण और गौल जंगली लोग थे, रोम वालों की तरह ‘सभ्य’ नहीं थे, किन्तु उनकी तरह वे नाजुक भी नहीं थे। वे शक्ति, बल और वीरता के उपासक थे, शक्ति की सन्तान थे। उनमें चरित्रबल की दृढ़ता अधिक थी, अतः उन्होंने नाजुक रोमनों पर विजय पाई।
अक्सर कहा जाता है कि भारत की अधोगति और पतन इस कारण हुआ कि उसमें एकता नहीं थी, किन्तु मेरी समझ में उसके पतन का एक गूढ़तर कारण है। भारत का पतन तभी हुआ जब उसका चरित्र−बल जा चुका था। वह अपने प्राचीन ऋषियों के उच्चादर्शों के प्रति विश्वासघात कर चुका था। मानवी बातों को नियन्त्रण करने वाला एक महान् नियम है। इतिहास का एक नियम, जोकि सभी जगह लागू है, वह यह है कि कोई राष्ट्र उसी परिमाण में अधोगति का पहुँचता है, जिस परिमाण में उसकी शक्ति का क्षय होता है, और शक्ति उसी परिमाण में घटती है, जिस परिमाण में उस राष्ट्र के मनुष्य आत्म−संयम की शक्ति को छोड़ते ओर आराम−तलबी तथा विलासिता के मार्ग का अवलम्बन करते हैं। राष्ट्र का तेज उसके आत्मसंयम और चरित्र बल की वृद्धि के साथ ही साथ बढ़ता है। प्रत्येक राष्ट्र में तत्व होता है जिसे उसकी ‘जीवन शक्ति ‘ कह सकता हूँ, और उसकी अभिव्यक्ति कला−संस्कृति और तत्वज्ञान के रूप में होती है। जब वह जीवन शक्ति अपव्यय और दुर्बलता से क्षीण होने लगती है, तब वह राष्ट्र अधःपतन के गढ़े में गिर पड़ता है।