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Magazine - Year 1957 - Version 2

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उत्सव व तीर्थों को धर्म-प्रचार के साधन बनाइये।

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(‘एक भक्त’)

हिन्दू-धर्म पर अनेक अन्य देशीय लोग अन्धविश्वास का प्रचारक होने का दोषारोपण किया करते हैं। उनके मतानुसार इसकी रीति-रिवाजें, कर्मकाण्ड सम्बन्धी क्रियाएं, उत्सव और तीर्थ आदि अज्ञ पुरुषों के लायक हैं, अर्थात् वे सर्वथा दिखावटी और ऊँची श्रेणी के आध्यात्मिक ज्ञान से रहित हैं इसमें संदेह नहीं कि हिन्दू धर्म में विभिन्न योग्यता वाले व्यक्तियों के लिए अलग-अलग प्रकार की धार्मिक व्यवस्था की गई हैं। ऊँचे दर्जे के आध्यात्मिक वृत्ति वाले व्यक्तियों के लिये वेदों और उपनिषदों के धार्मिक सिद्धान्त प्रस्तुत किये हैं, दार्शनिक प्रवृत्ति वालों के लिये पट दर्शन और अन्य शास्त्र मौजूद हैं, और सामान्य श्रेणी की जनता के लिये पुराण आदि लिखे गये हैं। क्योंकि ये विदेशी लोग इस देश के नगरों और शहरों में घूम कर प्रायः सामान्य लोगों को ही देखते हैं, इसलिये वे हिन्दू मात्र को अंधविश्वासी और दिखावटी रूढ़ियों में फँसा हुआ समझ लेते हैं।

जिन उत्सवों और तीर्थों को, आलोचना करने वाले व्यक्ति लकीर पीटना या अंधविश्वास का चिन्ह समझते हैं, उनमें एक बहुत बड़ा तत्व व्यापक है। सच पूछा जाय तो विदेशियों के प्रबल आक्रमण के समय इन्हीं चीजों ने हिन्दू धर्म की रक्षा की है और विदेशी धर्म तथा संस्कृति के प्रभाव को इन्हीं ने कुँठित किया है। प्रत्येक उत्सव अथवा तीर्थ किसी महान विभूति अथवा किसी महान धार्मिक कार्य की स्मृति में नियत किया गया है। उत्सव व तीर्थों द्वारा, हमारे पूर्वज उन महान व्यक्तियों अथवा उनके कार्यों की स्मृति सदैव नई बनी रहती है और नये लोगों को उनके पद चिन्हों पर चलने के लिये प्रेरणा मिलती है जनता के सम्मुख सदैव एक आदर्श उपस्थित रहता है और उस आदर्श की बराबर याद आते रहने से कल्याण पथ के थके-माँदे पथिकों में फिर से जीवन का संचार हो जाता है। किसी धार्मिक उत्सव में भाग लेने अथवा किसी तीर्थ की यात्रा का निश्चय करने से उसके सम्बन्ध के विचारों की एक शृंखला बन जाती है और हमारा मन कुछ समय के लिये निजी स्वार्थ-साधन के विचारों से हटकर धार्मिक वातावरण में चला जाता है इससे मन में श्रद्धा, भक्ति, व पवित्रता के भावों का उत्थान होता है।

इसके अतिरिक्त ऐसे उत्सवों अथवा तीर्थों में एक ही प्रकार के बहुसंख्यक व्यक्तियों के इकट्ठे होने से धार्मिक चर्चा और विचारों का आदान-प्रदान होता है, जिससे लोगों को धार्मिक कार्य करने की नवीन शक्ति प्राप्त होती है। उत्सव के समय व तीर्थों में जो धार्मिक कृत्य होते हैं उससे धार्मिक पद्धतियों के संबंध में कुछ शिक्षा भी मिल जाती है और भूली हुई बातें फिर से नई हो जाती हैं। इसी सिद्धान्त पर उत्सव व यज्ञ आदि में लोगों को बुला-बुलाकर सम्मिलित किया जाता है। उत्सव में आने वाले विद्वानों तथा आचार्यों के दर्शन और उपदेशों से भी मनुष्य बहुत लाभ उठा सकते हैं और अपनी शंकाओं का समाधान करके आगे का कार्यक्रम निश्चित करने में सहायता प्राप्त कर सकते हैं।

उत्सव तथा तीर्थों का एक उद्देश्य मनुष्य के जीवन की शुष्कता और नीरसता को दूर करना भी है। धार्मिक आचरण करने के लिये अपनी इच्छाओं पर शासन करना पड़ता है। साधारण मनुष्य का मन इच्छाओं के दमन की कठोरता से अनेक बार ऊब जाता है। परन्तु उत्सव और तीर्थ आदि ऐसी वस्तुएँ हैं कि जो इच्छाओं को धर्म प्रधान रखते हुये भी जीवन को सरस बना दें, और उसकी कठोरता को कम कर दे। मनुष्य का यह स्वभाव है कि दृश्य परिवर्तन से उसका शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य सुधरता है। एक ही प्रकार का जीवन व्यतीत करने से मन व शरीर दोनों के थक जाने की संभावना रहती है। इसलिये मनुष्य के जीवन में उत्सव व तीर्थयात्रा नवीन शक्ति का संचार करके उसे संसार के पुनः उपयुक्त बनाने में सहायक होते हैं। तीर्थयात्रा से जलवायु का परिवर्तन हो जाता है और अधिकाँश तीर्थ स्थान ऐसे ही स्वास्थ्यदायक स्थानों पर बनाये गये हैं जहाँ कोई नदी या सरोवर आदि हो और जहाँ का प्राकृतिक दृश्य भी हृदय को प्रफुल्लित करने वाला हो।

सामाजिक संगठन में भी उत्सव और तीर्थों से बड़ी सहायता मिलती है। हिन्दुओं में जात-पाँत, प्राँतीयता और भाषा के इतने भेद होते हुये भी जो एक साँस्कृतिक भाव पाया जाता है उसका बहुत कुछ श्रेय तीर्थों को ही है। दूर-दूर के लोग जब एक तीर्थ में एकत्र होते हैं तो उनमें भ्रातृभाव और सहानुभूति की प्रवृत्ति को कुछ उत्तेजना मिलती ही है। ऐसे अवसरों पर सामाजिक संगठन के अन्य कार्य भी सहज में किये जा सकते हैं। यही कारण है कि कुँभ आदि स्नानों के अवसर पर सब तरह के सभा-सम्मेलनों की धूम मच जाती है। उत्सवों से भी सामाजिक संगठन के एक विशेष प्रयोजन की पूर्ति होती है। बहुधा किसी जातीय उत्सव से सारे जाति की विचार शक्ति किसी विशेष विचार पर केन्द्रित हो जाती है, और वह जाति उस विचार की सफलता के लिये विशेष प्रयत्नशील हो जाती है। उदाहरणार्थ दिवाली के उत्सव को देखिये। इसके पहले धनतेरस और रूप चतुर्दशी होती है। धनतेरस के लिये यह नियम रखा गया है कि प्रत्येक गृहस्थ अपने घर की वस्तुओं में कुछ न कुछ वृद्धि करे, और कुछ नहीं तो एक छोटा सा बर्तन ही खरीद लावे। रूप चतुर्दशी का यह नियम है कि प्रत्येक मनुष्य शरीर को स्वच्छ और सुन्दर बनावे तथा सुन्दर वस्त्र पहने।

इस प्रकार दोनों दिन सारी जाति का ध्यान धर्मानुसार धन प्राप्ति और स्वच्छता तथा सुन्दरता की आवश्यकता की ओर आकर्षित होता है इस प्रकार के उत्सव समाज में विशेष विचारों के प्रचार के लिये बड़े उपयोगी होते हैं और समाज को समृद्धिशाली बनाने में सहायक होते है।

परन्तु ये सब लाभ तभी संभव हैं जब हम उत्सवों तथा तीर्थों का बुद्धिमानी के साथ प्रयोग करें। अन्यथा जिस प्रकार आजकल दिवाली पर हजारों व्यक्ति जुए में बर्बाद हो जाते हैं और होली पर गन्दी गाली गलौज और धूल, कीचड़ के फेंकने से अनेक बार दंगे-फसाद हो जाते हैं, उससे प्रायः सभी उत्सव हानिकारक सिद्ध होने लगते हैं। बहुत से लोग इन उत्सवों की सफलता तभी समझते हैं जब इनकी सजावट, दिखावट, नाच गाना आदि में लाखों रुपया खर्च कर दिया जाय। कई जातियों में रथ यात्रा या अन्य धार्मिक उत्सवों के नाम पर प्रति वर्ष दस-दस बीस-बीस लाख की रकम फूँक दी जाती है। यदि इस धन को किसी भी सार्वजनिक हित के कार्य में खर्च किया जाय तो कितने ही लोगों का भला हो सकता है। उत्सवों और तीर्थों में लोग अस्वास्थ्यकर तरीकों से रहते हैं और अनेक बार उनमें हैजा आदि फैल जाने से सैकड़ों व्यक्ति मर जाते हैं। दूसरा दोष हुल्लड़बाजी का है, हुल्लड़ से नीच प्रकृति के लोगों का मनोरंजन होता है, परन्तु इससे धर्मस्थानों की प्रतिष्ठ बढ़ने के बजाय उनका पतन होने लगता है। तीर्थ यात्रा या धार्मिक उत्सव जीवन के मुख्य उद्देश्य नहीं है। मुख्य उद्देश्य तो सदाचार पालन द्वारा आत्मा का उद्धार करना है। तीर्थ यात्रा केवल एक सहायक साधन है। उस साधन का उपयोग तभी उचित है जबकि परिस्थिति अनुकूल हो। प्रतिकूल परिस्थिति में वह साधन बजाय लाभदायक के हानिकारक सिद्ध हो सकता है।

इतना ही नहीं आजकल अनेक तीर्थों में अधर्म फैल गया है। कितने ही तीर्थों को तो स्पष्टता दुराचार और ठगी के अड्डे कहा जाता है। तीर्थयात्रा के फल से हम धर्म में श्रद्धा बढ़ने की आशा करते हैं। परन्तु बहुत से व्यक्ति जो श्रद्धा का भाव लेकर वहाँ जाते हैं वहाँ के अधर्म को देखकर उल्टा उस श्रद्धा को गँवा बैठते हैं। इसलिए धार्मिक उत्सवों और तीर्थों की प्रणाली को तो हमें कायम रखना चाहिए, पर उनमें जो दोष आ गये हैं, उनका रूप जो विकृत हो गया है, उसका संशोधन अवश्य करना चाहिए।

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