
भारतीय संस्कृति ही मानवता का उद्धार कर सकती है।
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(श्री शिवदत्त ज्ञानी एम0ए0)
भारतीय संस्कृति की प्राचीनता को संसार के सभी विद्वानों ने स्वीकार किया है। चाहे इसे पाँच छः हजार वर्ष पुरानी माना जाय अथवा आठ, दस हजार वर्ष पहले की बतलाया जाये, पर इसमें संदेह नहीं कि भूमंडल में इस समय जितनी सभ्यताएं प्रसिद्ध हैं यह उन सबसे पुरानी और उनकी मूल स्वरूप है। यह जिन सिद्धान्तों पर आधार रखती है वे किसी खास जाति या समय से संबंधित न होकर मानव मात्र का कल्याण करने वाले हैं। प्राचीन भारत के आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक आदि सिद्धाँतों को यदि इस कसौटी पर कसा जाय तो वे अब भी खरे उतरेंगे। इस दृष्टि से यदि इस संस्कृति को मानव-संस्कृति कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं।
मानवता के सिद्धाँतों पर ही स्थित होने के कारण भारतीय संस्कृति इतनी पुरानी होते हुए आज भी वर्तमान है। चाहे समय के प्रभाव से उसका स्वरूप कुछ विकृत भले ही हो गया हो, पर आज भी उसमें यह अग्नि है जिसको यदि देदीप्यमान किया जाये तो उसके प्रचार से समस्त विश्व पुनः जगमगा उठेगा। इसी जीवनी-शक्ति के कारण उसने कितने ही आघातों को सहन किया और अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखा है। आरम्भिक समय में तो यह संस्कृति इतनी शक्तिशाली और जीवनयुक्त थी कि संसार के दूर-दूर तक के भागों पर उसका प्रभाव पड़ा था और वहाँ के निवासियों ने इससे बहुत अधिक प्रेरणा प्राप्त की थी। प्राचीन काल के भारतवासी वेदों का पवित्र सन्देश लेकर संसार के अनेक निकटवर्ती और दूरवर्ती देशों में पहुँचे थे और उन्होंने मानव जाति को इस कल्याणकारी संस्कृति का पाठ पढ़ाया था। कुछ अग्निहोत्री ब्राह्मण ईरान में जाकर बस गये और वहाँ उन्होंने इस संस्कृति का नया प्रकाश फैलाया जो पारसी धर्म के रूप में प्रकट हुआ। इसी साँस्कृतिक प्रकाश से यहूदी, ईसाई, इस्लाम आदि मतों ने प्रेरणा ली अनेक इतिहासकारों का यह भी मत है कि भारत के क्षत्रियों ने ही बैबीलोनिया, सीरिया, मिश्र आदि देशों में पहुँच कर वहाँ राज्यों की स्थापना की और वहाँ के मूल निवासियों को सभ्यता का पाठ पढ़ाया था। यूनान और रोम में आर्य जाति पहले से ही बस चुकी थी, जिसका प्रभाव यूरोप में आज भी दिखाई पड़ता है।
अब से 2100 वर्ष पूर्व भारतीय सम्राट अशोक ने पश्चिमी एशिया, अफ्रीका, यूरोप आदि में प्रचारक भेज कर यहाँ की संस्कृति को और फैलाया। पूर्वीय देशों का भी यही हाल है। भारतीय संस्कृति ने बौद्ध धर्म के रूप में मध्य एशिया तिब्बत, मंगोलिया, चीन, कोरिया, जापान आदि देशों को नवीन ज्ञान प्रदान करके उन्नति का रास्ता दिखलाया। इसके बाद ब्राह्मण प्रचारकों ने यही काम जावा, सुमात्रा, वोर्नियो, बाली आदि द्वीपों पर किया। और तो क्या अमरीका के मेक्सिको में भी आर्य-सभ्यता के अमिट प्रमाण मिल चुके हैं। इस प्रकार प्राचीन भारतीयों ने अपनी संस्कृति को संसार के दूर-दूर के भागों में फैलाकर विश्व कल्याण का कार्य किया था।
ऐतिहासिक काल में इस संस्कृति पर अनेक प्रहार हुए, पर ईसा की 11 वीं शताब्दी तक तो इन प्रहारों का इसके सुदृढ़ संगठन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। इसके विपरीत आक्रमणकारियों को ही इसके चरणों में बैठ कर इसका शिष्यत्व स्वीकार करना पड़ा। यूनान का बादशाह सिकन्दर विजय का उद्देश्य लेकर भारत को जीतने आया। किसी प्रकार व्यास नदी के किनारे तक पहुँच सका। वहाँ जब उसके सिपाहियों ने सुना कि पूर्व में एक बड़ा भारी साम्राज्य (मगध) है, तो उनके छक्के छूट गये। सिकन्दर की महत्वाकांक्षा आगे बढ़ने की थी पर उसे वापिस लौटना पड़ा। भारतीय संस्कृति पर सिकन्दर के आक्रमण का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इसके पश्चात् यूनानी, पार्थियन, शक आदिवासी, विदेशी जातियाँ भारत के पश्चिमोत्तर भाग (वर्तमान सीमाप्राँत) में बसने लगीं। ये जातियाँ राजनीतिक दृष्टि से भले ही कुछ समय तक विजयी रहीं हों, किन्तु साँस्कृतिक दृष्टि से भारत ने उन्हें पूर्णतया जीत लिया था। वैक्ट्रिया के आक्रमणकारी सिकन्दर ने बौद्ध धर्म के आगे सर झुकाया था। यूनानी राजा एण्टियाक्लीडास का राजदूत विदिशा नरी में पहुँच कर वैष्णव बन गया था और उसने परम भागवत’ की उपाधि स्वीकार करके “गरुणध्वज” की स्थापना की थी। इस प्रकार शक, यूशी आदि जातियाँ भी भारतीय संस्कृति द्वारा पचा ली गई। कनिष्क और वासुदेव यूशी जाति के होते हुए भी साँस्कृतिक दृष्टि से पूर्णतया भारतीय ही थे, और उनकी गणना भारतवर्ष के प्रसिद्ध शासकों में की जाती है। हूणो का भी यही हाल हुआ। परमाण और मिहिरगुल आदि हूणराजा, पक्के भारतीय थे, जैसा उनके द्वारा स्थापित कीर्ति स्तम्भों के लेखों से स्पष्ट होता है। इस प्रकार ग्यारहवीं या बारहवीं शताब्दी तक भारतीय संस्कृति की शक्ति इसी प्रकार कायम रही और वह अन्य जातियों का अपने में सम्मिलित करके अपना एक अंग बनाने में समर्थ रही।
राजनैतिक और साँस्कृतिक दृष्टि से मुस्लिम आक्रमण भारत के लिए अवश्य हानिकारक थे। मुसलमान आक्रमणकारी सभ्यता अथवा संस्कृति की दृष्टि से तो भारतवासियों से काफी पिछड़े थे, उनमें धार्मिक कट्टरता का भाव बहुत अधिक था। पर उनका सामाजिक संगठन भी युद्ध की दृष्टि से बहुत कारगर था, इससे इस देश वालों को हरा कर उन पर अपना राजनीतिक तथा धार्मिक आधिपत्य लादने में वे सफल मनोरथ हो सके। दूसरा कारण यह भी था कि समय के प्रभाव से इस अवसर पर भारतीय समाज में अनेकों त्रुटियाँ पैदा हो चुकी थीं जिससे और भीतरी वैमनस्य से वह काफी कमजोर हो गया था। इसलिए वह इन बर्बरतापूर्ण आक्रमणों से एकबार सहम गया, और यहाँ की जन संख्या का कुछ भाग इस्लाम मत स्वीकार करने को बाध्य हुआ। पर कुछ समय बाद ही इसने अपने होश हवास ठीक कर लिये और कबीर, तुलसी, नरसिंह मेहता, चैतन्य, तुकाराम, बल्लयाचार्य आदि संतों और महात्माओं ने भारतीय संस्कृति को समयानुकूल रूप देकर फिर से शक्ति शाली बनाया।
ईसा की उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ से ही अंगरेजी राज्य की स्थापना के फलस्वरूप हमारी संस्कृति पर पश्चिमीय संस्कृति का आक्रमण हुआ। एक समय तो ऐसा मालूम पड़ने लगा कि यह संस्कृति सदा के लिए संसार से विदा हो जायगी। पर राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद, स्वामी रामतीर्थ, स्वामी विवेकानन्द आदि दिव्य विभूतियों ने फिर इस संस्कृति में चेतना शक्ति भर दी। भारतीय जाग उठे, वे अपने स्वरूप को समझने लगे और अपने खोये हुये रत्नों को पुनः पहिचानने लगे। इस प्रकार साँस्कृतिक नव जागृति के युग का आगमन हुआ। अन्त में महात्मा गाँधी ने उसे वह बल प्रदान किया, जिससे न केवल भारत में वरन् फिर से समस्त संसार में उसका महत्त्व स्थापित हो गया है। वे विश्व के संघर्षशील राष्ट्रों को यह संदेश दे गये हैं कि मानवता के सिद्धान्तों पर आश्रित भारतीय संस्कृति के द्वारा ही सच्ची शान्ति प्राप्त हो सकती है। इस प्रकार एक बार फिर भारतीय संस्कृति का उज्ज्वल भविष्य दृष्टिगोचर होने लगा है।