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Magazine - Year 1957 - Version 2

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अपने पसीने की रोटी खाइये।

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(महात्मा टॉलस्टाय)

एक महान लेखक का कथन है कि मनुष्य के जीवन में महत्वपूर्ण बातों की संख्या एक नहीं अनेक है। इनमें अनेक व्यक्ति इस बात का विचार किया करते हैं कि कौन−सी बात बढ़िया है और कौन−सी घटिया। हमारी सम्मति में सोचने का यह तरीका ठीक नहीं है। इसके विपरीत हमको यह विचार करना चाहिये कि संसार में जितनी भी उत्तम और आवश्यक बातें हैं उनमें सबसे पहले करने योग्य किसको समझा जाय? और उसके बाद क्रमानुसार आगे बढ़ते हुये सबसे अन्त में किस को रखा जाय?

इस लेखक के मतानुसार मनुष्यों के जीवन में बुराइयाँ और आपत्तियाँ इसलिए आती हैं क्योंकि उन्होंने बहुत से हानिकार और निरर्थक नियमों को धार्मिक कर्तव्यों का रूप दे रखा है। पर जो सबसे प्रमुख और परमावश्यक कर्तव्य है उसको अपनी आँखों से ओझल कर रखा है। इस कर्तव्य की संक्षेप में यह व्याख्या की जा सकती है कि “मनुष्य को चाहिये कि वह अपना पसीना बहा कर अपना उदर पोषण करे।”

ऊपर से देखने पर तो यह नियम अत्यन्त सरल जान पड़ता है, क्योंकि हम अपने जीवन में इसे प्रायः सुनते आये हैं। ईसाइयों की बाइबिल तथा अन्य धर्मों के ग्रन्थों में भी इसका प्रतिपादन किया गया है। हम विचार करते हैं कि इसमें क्या नवीनता है, अपने पसीने की कमाई तो हम खाते हैं और सब को खाना ही चाहिये। लेकिन सच बात तो यह है इस नियम को स्वीकार करना और इसका पालन करना तो दूर रहा, अधिकाँश व्यक्ति इससे उलटे नियम को मानते हैं और उसी पर आचरण करते हैं। यदि भली प्रकार ध्यान देकर देखा जाये तो हमारे अधिकाँश पापों अर्थात् हमारी भूलों और बुरे कामों की जड़ यही है, कि हम इस नियम की उपेक्षा करते हैं। मनुष्य के लिये जितने कर्तव्य निश्चित किये गये हैं उनमें सर्वप्रधान, सर्वप्रथम और निर्विकल्प (जिसके बदले में दूसरा कोई कर्तव्य बतलाया न जा सकता हो) यही है कि मनुष्य अपने हाथों से अपनी रोटी कमाये। यहाँ रोटी के लिये मजदूरी से मतलब उन तमाम भारी तथा कर्कश कामों से है जो भूख और प्यास से होने वाली मृत्यु से बचने के लिए मनुष्य को करने पड़ते हैं। और ‘रोटी’ शब्द से तात्पर्य अनाज, पानी, पेय पदार्थ, वस्त्र, मकान और ईंधन आदि जीवन धारण करने के समस्त अनिवार्य पदार्थों से है। इस सम्बन्ध में हमको यह बात अपने हृदय में जमा लेनी चाहिये कि “जीवित रहने के लिये मनुष्य को परिश्रम करना आवश्यक है।” इस नियम को हम लोग अब तक जीवन का सिर्फ एक अवश्यम्भावी नियम मानते रहते हैं, लेकिन भविष्य में हमको इसे मनुष्य जीवन का एक लाभदायक नियम मान लेना चाहिये और इसका पालन करना प्रत्येक व्यक्ति के लिये अनिवार्य बना देना चाहिए। हम यहाँ तक कह सकते हैं कि यह नियम समाज का एक धार्मिक नियम बन जाना चाहिये। अगर हम इस नियम को स्वीकार करके एक वर्ष में दो महीने भी रोटी के लिये मजदूरी कर लें तो, इससे बिना किसी प्रकार की हानि या कठिनाई के अपरिमित लाभ उठा सकते हैं।

आरंभ में यह बात पाठकों को विचित्र अवश्य मालूम होगी कि सब की समझ में आने लायक और इतने सरल साधन के द्वारा, जिसमें किसी प्रकार के कौशल अथवा पाँडित्य की आवश्यकता नहीं हम किस प्रकार मनुष्य जाति को असंख्य बुराइयों से बचा सकते हैं? लेकिन इससे भी विचित्र बात यह है कि हम लोग कितने अनाड़ी हैं कि अपने पास इतने स्पष्ट, सरल और दीर्घ काल से परिचित साधन के होते हुये भी उसकी उपेक्षा कर रहे हैं, और अपनी बुराइयों की दवा नाना प्रकार की जटिलताओं, पाँडित्य और कौशलपूर्ण बातों में खोजते फिरते हैं। समाज में प्रचलित बुराइयों को दूर करने के लिये हम आजकल जिन असंख्य उपायों को काम में ला रहे हैं, वे सब इसी प्रकार के उपाय हैं। हम रोग की जड़ को तो छूते तक नहीं और उसके पत्तों और डालियों के काटने में हमने अपनी सारी शक्ति लगा दी है। क्या इससे रोग का नाश हो सकता है?

समाज के अन्दर दो प्रकार की बुराइयाँ होती हैं। एक तो हिंसा मूलक-जैसे किसी की हत्या कर डालना, किसी को फाँसी पर लटका देना, कैद में डाल देना, लड़ाई में मार देना आदि। इनमें मनुष्य अपनी हिंसा-प्रवृत्ति की प्रेरणा से पाप करता है। अगर हम इन हिंसा मूलक अपराधों को अलग छोड़ दें और शेष समस्त बुराइयों का वास्तविक कारण ढूँढ़ें तो यही जान पड़ता है कि उन सबकी जड़ भुखमरी, मनुष्य जीवन के लिये आवश्यक सब प्रकार के पदार्थों का अभाव, सामर्थ्य से अधिक परिश्रम करने को विवश होना है। अथवा इसके विपरीत उनका कारण असंयमित तथा आलसी जीवन बिताना है। ऐसी अवस्था में मनुष्य के लिये इससे बढ़कर पवित्र काम और कौन हो सकता है कि वह इस असमानता को मिटाने में मददगार बने। उसे एक ओर तो जन साधारण की गरीबी को मिटाने और दूसरी ओर सम्पत्ति के प्रलोभनों को नाश करने में सहायता करनी चाहिये।

हमारी प्रचलित समाज-व्यवस्था अत्यन्त विचित्र है। हम में से एक आदमी मन्दिर में पूजा करता है, दूसरा आदमी सेना के संगठन में लगा है, तीसरा न्यायाधीश का कार्य करता है, चौथा आदमी पुस्तकों का अध्ययन और रचना करता है, पाँचवाँ लोगों की चिकित्सा करता है, छठा बालकों को शिक्षा देने का कार्य करता है। इन सब लोगों ने उपरोक्त कामों के करने का बहाना बनाकर रोटी के लिये मजदूरी करने के कर्तव्य को त्याग रखा है, और उसे दूसरे लोगों पर लाद दिया है। वे इस बात को भूल जाते हैं कि मन्दिर के पुजारी, सेना के संगठनकर्ता-आदि सब प्रकार के लोगों को सबसे पहले इस बात की आवश्यकता होती है कि उसको रोटी देकर भूखों मरने से बचाया जाये। हम इस बात का जरा भी ख्याल नहीं करते कि मनुष्यों के असंख्यों प्रकार के कर्तव्यों में से कुछ का नम्बर उनके महत्व और उपयोगिता की दृष्टि से सबसे पहले आता है और कुछ का बाद में। हमको चाहिये कि हम प्रारम्भिक कर्तव्य को पूरा किये बगैर अन्तिम कर्तव्य को पालन करने का प्रयत्न कदापि न करें। और वह कर्तव्य यही है कि हम अपनी रोटी को उत्पन्न करने में प्रत्यक्ष रूप से कुछ शारीरिक श्रम करें।

यह कल्पना करना अथवा दलील देना कि ऐसा करने से मानव समाज के लिये होने वाले अनेक महत्वपूर्ण कार्यों में बाधा पड़ जायगी, या दूसरे लोगों के मार्ग में कठिनाइयाँ उत्पन्न होंगी, सर्वथा निराधार है। बल्कि यह नियम लोगों को दरिद्र और दुखी होने से बचायेगा और उनको सम्पत्ति के हानिकारक प्रलोभन में फँसने नहीं देगा। रोटी के लिये मजदूरी करने का सिद्धान्त सब लोगों को एक समान श्रेणी में पहुँचा देता है और भोग विलास के पर काट देता है।

उस अवस्था में जब कि सब मनुष्य थोड़ा-थोड़ा समय जीवन निर्वाह की सामग्री पैदा करने में खर्च करेंगे और अपनी मेहनत से पैदा की हुई चीजों का ही उपयोग करने लगेंगे, तो अनाज और मनुष्य की प्रारम्भिक आवश्यकताओं की दूसरी चीजें, खरीदने और बेचने के पदार्थ नहीं रह जायेंगे। परिणाम यह होगा कि भविष्य में लोग भूखे प्यासे, नंगे और दरिद्र नहीं रहने पायेंगे। अगर किसी दैवी प्रकोप या अन्य दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति के कारण कोई आदमी अपने और अपने परिवार के लिये पर्याप्त अन्न उत्पन्न न कर सका, तो उसका कोई पड़ोसी, जिसने अच्छी परिस्थितियों के कारण अधिक अन्न पैदा कर लिया है, उस आदमी के लिये आवश्यक अन्न की पूर्ति कर देगा। इस प्रकार जो अभाव आज मनुष्यों को अनैतिक उपायों का आश्रय लेने को विवश करता है, वह इस समय दूर हो जायगा।

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