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Magazine - Year 1957 - Version 2

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आचरण और व्यवहार में सत्य का प्रयोग

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(श्रीमती कौशल्या देवी कलकत्ता)

मनुष्य का कर्तव्य है कि सत्य और असत्य का भेद पहिचानने का प्रयत्न करता रहे। सत्य आध्यात्मिक जगत का सर्वोत्तम रत्न है और भगवान ने उसे पहिचानने की निश्चित योग्यता भी मनुष्य को दी है पर आधुनिक युग के कुतर्कशील लोगों ने उसका स्वरूप ऐसा गँदला कर दिया है कि उसकी पहिचान करना भी बड़ा कठिन हो जाता है। इसके लिए सबसे पहला उपाय यह है कि हम स्वयं मन, वाणी और कर्म से सदा सत्य का पालन करें। जो व्यक्ति सत्य का पालन करता है वह सत्य और असत्य की पहिचान अपने सहज-ज्ञान से शीघ्र ही कर सकता है।

सत्य और असत्य की पहिचान पर ज्यादा जोर देने की आवश्यकता इसलिये भी है कि संसार में आजकल अनेकों मूर्खतापूर्ण असत्य विचार और अन्धविश्वास भरे पड़े हैं, और जो व्यक्ति इनका दास बना रहता है वह कभी उन्नति नहीं कर सकता।

इसलिये तुम्हें किसी बात को इसलिये ग्रहण नहीं करना चाहिए कि उसे बहुसंख्यक लोग मानते हैं, या वह शताब्दियों से चली आई है, अथवा उन धर्मग्रंथों में लिखी है जिन्हें लोग पवित्र मानते हैं। तुम्हें उस पर स्वयं भी विचार करके उसके सत्य-असत्य और उचित-अनुचित होने का निर्णय करना चाहिए। याद रखो कि एक विषय पर चाहे एक हजार मनुष्यों की अनुमति क्यों न हो किन्तु यदि वे लोग उस विषय में कुछ भी नहीं जानते, तो उनके मत का कुछ भी मूल्य नहीं है। जिसे सत्य मार्ग पर चलना है उसे स्वयं विचार करना सीखना चाहिए, क्योंकि अंधविश्वास संसार की सबसे बड़ी बुराइयों में से एक है। यह एक ऐसा बंधन है जिससे पूर्ण रूप से मुक्ति होना चाहिए। दूसरों के विषय में तुम्हारा विचार सदा सत्य होना चाहिए। उनके विषय में जो बात तुम नहीं जानते उस पर विचार मत करो।

यह कल्पना भी मत करो कि लोग सदा तुम्हारे ही विषय में सोचा करते हैं। यदि एक मनुष्य कोई ऐसा कार्य करता है जिससे तुम्हारी समझ में तुम्हारी हानि होगी, अथवा वह कोई बात कहता है जो तुम्हारे विचार पर तुम पर घटती है, तो तत्काल ही यह मत सोचो कि “उसका उद्देश्य मुझे हानि पहुँचाना था। “ बहुत सम्भव है कि उसने तुम्हारे विषय में सोचा ही न हो, क्योंकि प्रत्येक जीव के अपने निज के कष्ट होते हैं और उसके विचारों का केन्द्र मुख्यतः वह स्वयं ही रहता है। यदि कोई मनुष्य तुमसे क्रोधित होकर बात करता है तो यह मत सोचो कि वह तुमसे घृणा करता है अथवा तुम्हें व्यथित करना चाहता है। हो सकता है कि उसे किसी अन्य व्यक्ति ने क्रोधित कर दिया हो, और संयोग से उस समय तुम उसे मिल जाते हो, और तब उसका सारा क्रोध तुम्हीं पर उतरता है। यह ठीक है कि वह मूर्खतापूर्ण कार्य कर रहा है, क्योंकि क्रोध करना ही मूर्खता है। किंतु तुम्हें उसके विषय में असत्य विचार नहीं करना चाहिये।

लोगों की बहुत सी छोटी-छोटी कठिनाइयाँ इसी प्रकार पैदा हो जाती हैं। किसी व्यक्ति पर यदि परेशानियों का भार बहुत अधिक होता है तो उसके कारण वह लगभग प्रत्येक बात पर क्रोध करने लग जाता है। वास्तव में हम अपने आस-पास रहने वालों के भी सब कष्टों को नहीं जानते, क्योंकि कोई भी समझदार व्यक्ति अपनी कठिनाइयों को घोषित करता नहीं फिरता। साधारण मर्यादा उसे ऐसा करने से रोकती है। किन्तु यदि हम यह याद रखे कि ऐसी कठिनाइयाँ सबके लिये उपस्थित हैं और उनके प्रति उदार भाव से काम लें, तो हम स्वयं क्रोध से अवश्य बच सकेंगे।

जो लोग अभी इतनी मानसिक उन्नति नहीं कर सके हैं कि दूसरों की मूर्खतापूर्ण भूलों को क्षमा कर दें, उनको कम से कम क्रोध और असत्य के बदले तुरंत वैसा ही व्यवहार करने के बजाय कुछ देर ठहर कर समस्त परिस्थिति पर शाँतचित्त से विचार करना चाहिए। ऐसा होने से वे कम से कम वैसी मूर्खता से बच जायेंगे जैसी पहला व्यक्ति कर चुका है।

दूसरों के उद्देश्य के विषय में शंका करना अच्छा कार्य नहीं है। केवल उसकी अन्तरात्मा ही उसके विचारों को जानती है। हो सकता है कि वह कुछ ऐसे उद्देश्यों से प्रेरित होकर कोई कार्य कर रहा हो जो तुम्हारे मस्तिष्क में आ ही नहीं सकते। यदि तुम किसी के विरुद्ध कोई बात सुनते हो, तो तुम इसको दोहराओ मत। संभव है वह सत्य न हो और यदि हो भी, तो उसके विषय में मौन रहना ही अधिक दयालुता होगी।

बोलने से पहले सोच लो अन्याय असत्य भाषण से दोष-भागी बनोगे। कार्यों में भी सत्य का पालन करो, अपना मिथ्या प्रदर्शन मत करो, क्योंकि प्रत्येक दल सत्य के उस स्वच्छ प्रकाश में बाधा है जिसे तुम्हारे द्वारा उसी प्रकार प्रकाशित होना चाहिये जैसे सिर्फ शीशे के द्वारा सूर्य का प्रकाश प्रकाशित होता है।

आचरण और व्यवहार में सत्य का पालन वास्तव में कठिन है, इसका अर्थ यह है कि दूसरों के सामने कोई कार्य इस उद्देश्य से न करना चाहिए कि उसके मन में हमारे लिये उच्च-धारणा बैठ जाये। साथ ही जिस कार्य के करने में दूसरों के सामने लज्जित ना होना पड़े ऐसा कार्य छुपकर भी नहीं करना चाहिए। लोगों को आप अपना सच्चा स्वरूप देखने दीजिये और जो कुछ आप नहीं हैं वैसा बनने का ढोंग मत कीजिये। बहुत लोगों का ऐसा उद्देश्य रहता है कि हमारे प्रति दूसरों की धारणा हमारी रुचि के अनुकूल ही होनी चाहिये। फलतः ऐसी अनेक प्रकार की छोटी बातें होती हैं, जिन्हें हम एकान्त में तो कर लें, परन्तु दूसरों के सामने नहीं करेंगे, क्योंकि हम सोचते हैं कि लोग हम से ऐसी बातों के करने की आशा नहीं करते।

यह बात सत्य है कि हमें कभी अपना झूठा प्रदर्शन नहीं करना चाहिये। क्योंकि प्रत्येक प्रकार का झूठा प्रदर्शन पतनकारी होता है। परन्तु यह भी ध्यान रखिये कि उस झूठे प्रदर्शन को टालने के लिये कहीं आप उसकी प्रतिकूल पराकाष्ठा तक न पहुँच जायें लोग कभी-कभी ऐसा कहते हैं कि “मैं तो अपने प्राकृतिक रूप में ही लोगों के सामने अपने को प्रकट करना चाहता हूँ।” और ऐसा कहकर वे अपना अत्यन्त निकृष्ट, अशिष्ट और असभ्य रूप लोगों को दिखलाना आरम्भ करते हैं। किन्तु ऐसा करके वे अपना प्राकृतिक स्वरूप जैसा होना चाहिये वह नहीं दिखलाते, वरन् इसके विपरीत अपने हीन, तुच्छ और निकृष्ट रूप का प्रदर्शन करते हैं। क्योंकि मनुष्य में जो कुछ उच्चतम, सर्वोत्तम एवं सर्वश्रेष्ठ गुण हैं, वे ही आत्मा से निकट सम्बन्ध रखते हैं, अतः अपने-आत्मा के प्राकृतिक स्वरूप को प्रकट करने के लिये हमें यथाशक्ति सर्वश्रेष्ठ बनने का प्रयत्न करना चाहिए।

धार्मिक पाखण्ड भी असत्य का ही एक रूप है। यदि कोई मनुष्य अपने आपको आध्यात्मज्ञानी प्रकट करता है, साथ ही अपनी उन्नति एवं सिद्धियों का वर्णन करके पाखंडी लोगों की तरह भोले-भाले व्यक्ति यों की प्रशंसा प्राप्त करने का यत्न करता है तो यह समझ लेना चाहिए कि वह सत्य का वास्तविक अनुयायी नहीं है।

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