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Magazine - Year 1957 - Version 2

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आध्यात्मिक उन्नति में गुरु की आवश्यकता

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(श्री ‘भारतीय योगी’)

साधारण मनुष्य का जीवन इस संसार और उसके पदार्थों तक ही सीमित रहता है वह शरीर को ही सब कुछ समझता है और उसके जितने उद्योग और प्रयत्न होते हैं वे सब शरीर के लिये ही होते हैं। शारीरिक भोग से भी ऊँचा दूसरा जीवन है, इस बात को वह नहीं जानता। इसलिये शारीरिक सुख तथा साँसारिक आमोद-प्रमोद ही उसका एक मात्र लक्ष्य होता है। किन्तु जब उसे यह पता चलता है कि शरीर से भी सारयुक्त वस्तु आत्मा है तब वह आत्मा को प्रधान और शरीर को गौण महत्व देने लगता है। अब वह शरीर को साधन मानता है और एक ऊँचे जीवन को प्राप्त करने में उसे सहायक समझकर उसकी रक्षा करता है। उसका जो शरीर अब तक आध्यात्मिक जीवन में विघ्न था अब वह आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर होने का साधन बन जाता है। इस स्थिति में पहुँच जाने पर वह शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति आसक्ति की भावना से नहीं करता, वरन् आवश्यकता की की से करता है। जैसे रेल का ड्राइवर इंजिन में इसलिए कोयला और पानी भरता है कि वह चलता रहे, उसी प्रकार आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाला साधक शरीर को ठीक दशा में रखने के लिए उसकी प्राकृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता रहता है।

साधक के सामने एक खास प्रश्न यह होता है कि उसका अंतिम लक्ष्य क्या है किस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वह अनजाने ही प्रेम तथा घृणा करता है। किस लक्ष्य के लिये वह तरह-तरह के सुखों और दुःखों का अनुभव करता है। जब साधक के हृदय में इस प्रकार अंतिम लक्ष्य को समझने की भावना जागृत होती है तभी उसकी आध्यात्मिक उन्नति आरम्भ होती है। इस प्रकार भगवान की कृपा से उसका ध्यान जीवन के अंतिम लक्ष्य तक पहुँचने की तरफ खिंच जाता है और वह यथाशक्ति प्रयत्न करने लगता है। पर सच्चे लक्ष्य तक पहुँचने का मार्ग बड़ा लम्बा होता है और उसमें अनेकों विघ्न बाधाओं का सामना करना पड़ता है। उसे मानो पर्वत की खड़ी दीवार पर चढ़ना पड़ता है। पग-पग पर उसे गिरने और फिसलने का डर रहता है। सत्य की ऊँची चोटी तक पहुँचने की जो लोग कोशिश करते हैं उन्हें एक ऊँचाई के बाद दूसरी ऊँचाई पार करनी पड़ती है- एक चढ़ाई लाँघ लेने पर दूसरी चढ़ाई लाँघनी पड़ती है। बहुत से साधक काफी ऊँचाई तक पहुँच जाते हैं, तो भी उनके गिरने का डर बना रहता है। जरा सी भूल हो जाने से वह फिर नीचे लुढ़क आते हैं और उसे फिर नये सिरे से चढ़ाई शुरू करनी पड़ती है। इसलिए आध्यात्मिक मार्ग में गुरु की सहायता आवश्यक होती है। गुरु लक्ष्य स्थान को पहुँच चुका होती है, वह अपने अनुभव से रास्ते की सब बाधाओं, कठिनाईयों, चट्टानों, गड्ढों को भली प्रकार जानता है। इससे वह साधक को गिरने और ठोकर खाने से बचा कर लक्ष्य स्थान तक पहुँचा सकता है।

आध्यात्मिक कल्याण का जो अभिलाषी इस प्रकार सच्चे लक्ष्य तक पहुँचने को तैयार होता है, वह अपने साथ पूर्व जन्म में संचित किये संस्कारों को लेकर चलता है। आत्म साक्षात्कार की तीव्र अभिलाषा के कारण इन संस्कारों का बल कम पड़ जाता है। किन्तु मार्ग में चलते-चलते जब-जब आध्यात्मिक प्रयत्न में शिथिलता आती है, तभी वे संस्कार फिर मार्गच्युत करने के लिए सम्मुख प्रबल हो उठते हैं और नवीन शक्ति लेकर साधक को आ घेरते हैं। इस प्रकार साधक की आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग रुक जाता है।

एक नदी के उदाहरण पर ध्यान देने से यह बात स्पष्ट रूप से समझ में आ जायगी। नदी की प्रबल धारा अपने आरम्भ होने के स्थान तथा किनारों से ढेरों मिट्टी बहा कर लाती है। तब तक नदी की तेज धारा के कारण यह मिट्टी पानी में घुली रहती है तब तक वह नदी के प्रवाह में रुकावट पैदा नहीं करती। किन्तु ज्यों−ही मैदान में या खासकर नदी के गिरने के स्थान के पास धारा का वेग बहुत धीमा हो जाता है, त्यों−ही मिट्टी का ढेर नीचे जमने लग जाता है। इससे वहाँ पर छोटे-बड़े द्वीप और डेल्टा बन जाते हैं। ये द्वीप और डेल्टा केवल नदी के बहाव को रोकते ही नहीं, वरन् उसे अनेकों धाराओं में बाँट कर उसकी दिशा ही बदल देते हैं। इन बाधाओं के कारण नदी की शक्ति बहुत कम पड़ जाती है और उसका पानी लक्ष्य तक पहुँचने के बजाय इधर-उधर बहने लगता है। इस प्रकार अपने ही द्वारा उत्पन्न की हुई रुकावटों के कारण आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग अनेक बार रुक जाता है। ये रुकावटें भी गुरु की सहायता से दूर की जा सकती हैं।

गुरु की सहायता अत्यन्त प्रभावपूर्ण तभी सिद्ध हो सकती है जब साधक अपने अहंकारमय जीवन को त्याग कर गुरु की सहायता से अहंकार-रहित जीवन का मार्ग ग्रहण करता है। इसी का नाम शरणागत धर्म है। पूर्ण शरणागति अथवा अहंकार का वास्तविक त्याग बड़ा कठिन कार्य है। पर इसके बिना आध्यात्मिक उन्नति होना संभव नहीं। बिना शरणागति की भावना के अहंकारमय जीवन का नाश नहीं हो सकता और अहंकार का अंत हुये बिना आत्मसाक्षात्कार नहीं हो सकता। इसलिये यह बहुत आवश्यक है कि साधक मैं यह करता हूँ, मैं वह करता हूँ ऐसे विचारों से बिल्कुल दूर रहे। इस का अर्थ यह न समझ लेना चाहिये कि अहंभाव बढ़ने के डर से साधक सब प्रकार के कार्यों का करना ही बन्द कर दे। अब उसके सामने यह समस्या पैदा हो जाती है कि अगर वह कोई कार्य नहीं करता तो आध्यात्मिक मार्ग में अग्रसर कैसे हो, और जो कार्य करता है तो अहंभाव उत्पन्न होने का भय रहता है।

एक तरफ अकर्मण्यता से बचने तथा दूसरी ओर कर्म के अभिमान से बचने का उपाय यही है कि साधक पूर्णरूप से गुरु के आधीन रहे। कोई कार्य शुरू करने के पहले वह यह सोच ले कि मैं स्वयं कुछ नहीं करता किन्तु गुरु ही मेरे द्वारा यह कार्य करा रहा है। कार्य के समाप्त हो चुकने पर उसके फल को अपना समझने या उसका उपभोग करने के बजाय वह समस्त फल को गुरु के ही अर्पित करके स्वयं उससे मुक्त रहता है। वह एक प्रकार अस्थायी या काम चलाऊ अहंभाव है। आध्यात्मिक दृष्टि से यह हानिरहित होता है क्योंकि इसका सारा भार गुरु पर छोड़ दिया जाता है। आगे चल कर आत्मशक्ति पाने पर साधक का अहंभाव स्वयं ही दूर हो जाता है और उसे गुरु की उपरोक्त सहायता की आवश्यकता नहीं रहती।

इस प्रकार का अभ्यास वास्तव में बड़े प्रयत्न से होता है और इसी कारण आध्यात्मिक मार्ग का पथिक धीरे-धीरे ही उन्नति करके लक्ष्य तक पहुँच सकता है। इस कार्य में एक जन्म के बजाय कई जन्म भी लग जाते हैं। कुछ साधक अत्यन्त शीघ्रतापूर्वक भी उन्नति कर लेते हैं। वे या तो पूर्व जन्म में यथेष्ट उन्नति कर लेने वाले होते हैं या गुरु के विशेष अनुग्रह से ऐसा कर सकते हैं। ऐसे दो चार विशेष व्यक्तियों को छोड़कर अधिकाँश साधकों की उन्नति धीरे-धीरे ही होती है। अहंकार धीरे-धीरे सीमित होता हुआ क्रम से विभिन्न अवस्थाओं में परिवर्तित होता जाता है। इस प्रकार अहंकार के स्थान में नम्रता आती है, उद्योग उत्पन्न करने वाली इच्छाओं के स्थान में संतोष आता है, तथा स्वार्थपरता की जगह निस्वार्थ प्रेम आता है।

इस प्रकार हृदय में बार-बार उठने वाले अहंकार को जीतने का एक मात्र उपाय आत्मसमर्पण और शरणागति ही है। इसी से साधक एक-एक मंजिल पार करके अग्रसर होता है। समर्पण जितना ही पूर्ण होगा गुरु तथा साधक के बीच की एकलयता उतनी ही बढ़ेगी और गुरु का अहंकार-रहित तथा उन्नत जीवन शिष्य में प्रवेश करके उसकी सहायता करेगा अन्त में ऐसी स्थिति आ जाती है जबकि पृथक अहंकार का जीवन पूरी तरह से समर्पित कर दिया जाता है। ऐसा होने से साधक गुरु से युक्त हो जाता है और वह आध्यात्मिक उन्नति के लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।

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