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Magazine - Year 1958 - Version 2

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मातृभूमि का वैदिक गीत

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(श्री सातवलेकर जी)

आजकल अनेक पढ़े-लिखे व्यक्तियों की यह धारणा है कि राष्ट्र की भावना अथवा देश भक्ति की भावना पश्चिमीय देशों की वस्तु है। भारतवर्ष प्राचीनकाल में एक राष्ट्र के रूप में कभी नहीं रहा, प्रायः छोटे या बड़े राज्यों में बंटा रहा जो आपस में लड़ते रहते थे, इसलिए यहाँ एक राष्ट्रीयता का भाव उत्पन्न होने की कोई सम्भावना ही नहीं।

इस समय जो ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त है, उससे यह नहीं जाना जा सकता है कि वैदिक काल में राष्ट्र कहलाने लायक कोई राज्य स्थापित हो सका था व न ही उस समय के आर्य मातृभूमि के महत्व को समझते थे और अपने देश की रक्षा की प्रबल भावना उनमें विद्यमान थी, यह अनेक वैदिक मंत्रों से प्रकट होता है। अथर्ववेद में एक पूरा सूक्त (12-1-12) मातृभूमि सूक्त के नाम से दिया गया है और ऋग्वेद आदि में भी ऐसे बहुत से मंत्र पाये जाते हैं। इनसे भली प्रकार सिद्ध हो जाता है कि मातृभूमि की कल्पना सर्वप्रथम वैदिक ऋषियों ने ही की थी। इस मातृभूमि सूक्त के (12-1-12) मंत्र में स्पष्ट कहा गया है- “माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्या” अर्थात् मेरी माता भूमि है और मैं मातृभूमि का पुत्र हूँ।” हमारी देश भूमि ही हमारी माता है हम सब मातृभूमि के पुत्र हैं। अर्थात् हम सब देशवासी एक ही माता के पुत्र हैं। अतएव हम सब सच्चे देश बन्धु हैं। प्रत्येक देशवासी को यही भाव मन में लाना चाहिए। मातृभूमि के गौरव के विषय में ऋग्वेद का नीचे लिखा मंत्री पढ़ने योग्य है। - “ते अज्येष्ठा अकनिष्ठा स उद्भिदोऽमध्यमासो महासावि वावृधः। सुजातासो जनुषा पृश्निमातरो दिवोमर्त्या आनो अच्छाजिगाति न॥ (5-56-6) ज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभगाय। (5-60-5)

इस मंत्र में ‘पृध्नि मातर”‘ अर्थात् भूमि को माता मानने वाले सत्पुरुषों का वर्णन देखने योग्य है। मातृभूमि के भक्त एक ही विचार वाले रहते हैं। उनमें उच्च-नीच का भाव नहीं होता, न कोई ज्येष्ठा होता है, न कनिष्ठ न मध्यम। वे सब बन्धु ही होते हैं और सब लोग मिलकर मातृभूमि के उद्धारार्थ काम करते हैं। मातृभूमि को अपनी सबकी माता मानने से मनुष्य के विचारों और व्यवहार में जो अन्तर आ जाता है वही इस मंत्र में बताया गया है। वेद यह चाहते हैं कि उनके अनुयायियों में मातृभूमि की भक्ति बढ़े और उसके प्रभाव से वे लोग अपनी उन्नति करें, इसलिए उन्होंने मातृभूमि का महत्व ऐसे स्पष्ट शब्दों में बतलाया है। एक मंत्र और देखिये :-

इला सरस्वती मही तिस्तो देवीर्मयोभुवः वर्हि सीदन्त्वस्रिधः॥ (ऋग्वेद 1-13-9)

अर्थात् “यही (मातृभूमि), सरस्वती (मातृभूमि संस्कृति) और कला (मातृभाषा) ये तीन सुख देने वाली देवियाँ हैं। वे सर्वकाल अन्तःकरण में रहें।

इस मंत्र के तीन देवताओं या देवियों में मातृभूमि को स्थान दिया गया है। इन तीनों देवताओं में परस्पर क्या सम्बन्ध है, यह प्रकट ही है। इससे मालूम होता है कि हमारे धर्मग्रन्थों में मातृभूमि को कितना महत्व और श्रेष्ठत्व दिया गया है। यह मंत्र भी ध्यान देने योग्य है।

‘भूमे मतर्निधेहि मा भद्रया सुप्रतिष्ठितम।

(अथर्ववेद 12-13-3)

“हे मातृभूमि! (मातृभूमे) मुझे कल्याण कर। इसमें ‘भूमे मातः’ शब्द मातृभूमि के लिए बहुत स्पष्ट और महत्व का है। अथर्ववेद के ही एक अन्य मंत्र में मातृभूमि की स्तुति बड़ी श्रद्धा से की गई है :-

“यह हमारी मातृभूमि हमें अपूर्व पेय पदार्थ देवे। यह हमारी भूमि हमें गायें और अन्न देवे। यह हमारी भूमि हमें बहुत दूध देवे। यह हमारी भूमि वृद्धि करें। यह हमारी भूमि हमारे शत्रुओं को दूर करे और मुझे शत्रु रहित बनावे॥”

कुछ लोग यह भी शंका कर सकते हैं कि ‘भूमि’ या ‘हमारी भूमि’ आदि शब्दों से ‘हमारी राष्ट्र भूमि’ यह भावार्थ नहीं निकलता। इससे यह भी अनुमान किया जा सकता है कि जिस प्रकार वेदों में वायु, जल, अग्नि आदि को देवता के रूप में सम्बोधित किया गया है उसी प्रकार भूमि पर पृथ्वी की स्तुति की गई है। यह संदेह निराधार नहीं कहा जा सकता, पर वेदों में राष्ट्र का वर्णन भी है :-

सा नो भूमिस्त्विर्षि बलं राष्ट्रे दघतूत्तमे।

(अथर्व. 12-8)

“वह हमारी मातृभूमि हमारे राष्ट्र में (उत्तमे राष्ट्रे) तेज और बल बढ़ावे।”

इस मंत्र में ‘उत्तमे राष्ट्र’ का अर्थ और ‘हमारी भूमि’ का अर्थ एक ही है। “हमारी मातृभूमि में या हमारे राष्ट्र में तेज और बल की वृद्धि होवे”- इन शब्दों का तात्पर्य यही है कि हम लोगों में या हमारे देशवासियों में तेज और बल बढ़े। ये शब्द मनुष्य की बहुत ऊंची भावना को प्रदर्शित करते हैं। इस मंत्र में जो ‘उत्तमे राष्ट्र’ शब्द प्रयुक्त किया गया है वह भी बड़ा सारगर्भित है। वह बतलाता है कि राष्ट्र किस दिशा में होना चाहिए? इन शब्द से प्रतीत होता है कि राष्ट्रभक्तों की सर्वोपरि आकाँक्षा यही होनी चाहिए। इस इच्छा के प्रेरित होकर सर्वश्रेष्ठ होना चाहिए। इस इच्छा से उनका कर्तव्य है कि अपने राष्ट्र को अधिक से अधिक उन्नत बनाने का शक्ति भर प्रयत्न करेंगे। वे केवल इसी बात से संतोष न कर लें कि हमारा राष्ट्र स्वाधीन है, किसी का उस पर अधिकार नहीं। वरन् उनका कर्तव्य है कि अपने राष्ट्र को ऐसी स्थिति में पहुंचावे जिससे वह सब में श्रेष्ठ समझा जाने लगे।

हमारे धर्म ग्रन्थों में राष्ट्र के महत्व और राष्ट्रीय भावना का इतना स्पष्ट उपदेश होते हुए भी वर्तमान समय में हमारे देशवासियों में राष्ट्रीय भावना की बहुत कमी है। यह भी हम स्वीकार नहीं करते। पर इनका कारण धर्म का त्रुटिपूर्ण होना नहीं है वरन् यह है कि धर्म की ओर ध्यान न देकर व्यर्थ की बातों को महत्व दे रहा है जिन वेदों में ये सब राष्ट्रीय भावना जागृत करने वाले वचन हैं, उनके प्रति लोगों को जो श्रद्धा या विश्वास है, वह केवल दिखावटी है। लोग आधुनिक ग्रन्थों पर ही अधिक विश्वास करते हैं। इसलिए सच्चा सोना दूर रह गया और मिट्टी हाथ लगी।

हमारे यहाँ धार्मिक बातों की ओर कितना दुर्लक्ष हो रहा है यह कहने की आवश्यकता नहीं। कितने ही नई रोशनी के व्यक्ति कहा करते हैं कि आध्यात्मिक ज्ञान तथा राष्ट्रीय कार्यों में कोई सम्बन्ध नहीं। देखा भी यह जा रहा है कि अध्यात्म विचार करने वाले वेदान्ती और अन्य व्यक्ति प्रायः संसार को त्याग कर किसी एकान्त स्थान में जा बैठना ही अपना आदर्श मानते हैं। पर हम कहना चाहते हैं कि इस समय लोग गलत मार्ग पर चल रहे हैं और वास्तव में आध्यात्म विद्या तथा राष्ट्र भक्ति में घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसके लिए प्राचीन इतिहास में कितने ही उदाहरण मौजूद हैं। अर्जुन महाभारत के युद्ध के लिए तैयार हुआ था और अन्यायियों को नष्ट करके धर्मराज्य स्थापित करने की उसकी अभिलाषा थी। पर जब युद्ध का आरम्भ हुआ तो वह मोह में फंसकर जंगल में जाकर तपस्वी जीवन बिताने की बात कहने लगा। तब भगवान कृष्ण ने उसको वेदों का अध्यात्म ज्ञान समझाया जिसे सुनकर उसका मोह दूर हुआ और उसने पूरी शक्ति से युद्ध करके स्वराज्य प्राप्त किया। इसी प्रकार श्री रामचन्द्र जी जब विद्यारम्भ पूर्ण कर चुके तो उन्हें भ्रम हुआ कि “सब बातें दैवाधीन हैं, तब पुरुषार्थ की आवश्यकता ही क्या है” इस भ्रम के कारण उन्होंने पुरुषार्थ के काम त्याग दिये तब वशिष्ठ जी ने उन्हें अध्यात्म शास्त्र का उपदेश देकर प्रबल पुरुषार्थी बनाया। जिसके प्रभाव से उन्होंने रावण के अधार्मिक राज्य को नष्ट करके आर्य राज्य की स्थापना की। इन सब तथ्यों पर विचार करने से सिद्ध होता है कि वेद का उपदेश राष्ट्रीयता का सब प्रकार से पोषक है।

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