• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • आत्मालोचन
    • आत्मालोचन (Kavita)
    • आध्यात्मवाद और भौतिकवाद
    • मानव सभ्यता का आदि स्रोत-भारतवर्ष
    • Quotation
    • जीवन का उद्देश्य और उसकी प्राप्ति
    • आध्यात्मिक-जीवन का मर्म
    • प्राचीन भारत का सामाजिक जीवन
    • भारत के तीन वैष्णव सम्प्रदाय
    • आधुनिक अर्थशास्त्र अनर्थ का मूल है।
    • मातृभूमि का वैदिक गीत
    • सच्ची वर्ण व्यवस्था ही हितकारी है।
    • संस्कृति की उत्पत्ति और महत्व
    • चिकित्सा का एक सरल साधन-मिट्टी का प्रयोग
    • अपनी इच्छाओं को नियंत्रण में रखिए।
    • छह अवतार और मानवता की छह अवस्थाएं
    • गायत्री उपासना के अनुभव
    • अग्नि परीक्षा की घड़ी सामने आ गई।
    • आपके करने के 16 आवश्यक कार्य
    • धर्म प्रेमियों के सत्प्रयत्न
    • अन्तरात्मा की होली
    • अन्तरात्मा की होली (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • आत्मालोचन
    • आत्मालोचन (Kavita)
    • आध्यात्मवाद और भौतिकवाद
    • मानव सभ्यता का आदि स्रोत-भारतवर्ष
    • Quotation
    • जीवन का उद्देश्य और उसकी प्राप्ति
    • आध्यात्मिक-जीवन का मर्म
    • प्राचीन भारत का सामाजिक जीवन
    • भारत के तीन वैष्णव सम्प्रदाय
    • आधुनिक अर्थशास्त्र अनर्थ का मूल है।
    • मातृभूमि का वैदिक गीत
    • सच्ची वर्ण व्यवस्था ही हितकारी है।
    • संस्कृति की उत्पत्ति और महत्व
    • चिकित्सा का एक सरल साधन-मिट्टी का प्रयोग
    • अपनी इच्छाओं को नियंत्रण में रखिए।
    • छह अवतार और मानवता की छह अवस्थाएं
    • गायत्री उपासना के अनुभव
    • अग्नि परीक्षा की घड़ी सामने आ गई।
    • आपके करने के 16 आवश्यक कार्य
    • धर्म प्रेमियों के सत्प्रयत्न
    • अन्तरात्मा की होली
    • अन्तरात्मा की होली (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1958 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


प्राचीन भारत का सामाजिक जीवन

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 7 9 Last
(श्री बलदेव उपाध्याय)

भारतवर्ष के इतिहास में वैदिककाल आदर्श माना गया है। उस समय एकमात्र भारत ही सभ्यता और संस्कृति में अग्रणी था और यहीं से संसार के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की विद्याओं और ज्ञान का प्रकाश फैला था। हमारे ये वैदिक कालीन पूर्वज, जिन्होंने संसार को सभ्यता का पाठ पढ़ाया, कैसे जीवन यापन करते थे और उनका रहन-सहन कैसा था, यह निस्संदेह एक ज्ञातव्य विषय है। संसार के सबसे प्राचीन ग्रन्थ ‘ऋग्वेद’ में उस समय के सामाजिक और गृहस्थ जीवन की जो झलक मिलती है उसका साराँश नीच दिया जाता है।

वेदकालीन समाज ‘पितृमूलक’ समाज था। पिता ही प्रत्येक घर का नेता तथा पुरस्कर्ता था। पुत्र तथा पुत्री, वधू तथा स्त्री सब लोग उसी की छत्रछाया में अपना जीवन बिताते थे। उस समय केवल पुत्रों को ही शिक्षा नहीं दी जाती थी, वरन् स्त्रियों को भी स्त्रियोचित कलाओं की शिक्षा देकर योग्य गृहिणी बनाया जाता था। उनमें से अधिकाँश तो विवाह होकर गृहस्थी का कार्य करने लगती थी पर कितनी ही आजन्म ब्रह्मचारिणी (या ब्रह्मवादिनी) बनकर विद्या तथा आध्यात्म की उपासना में अपना जीवन यापन करती थी।

ऋग्वेद के युग में वर्ण व्यवस्था चाहे वर्तमान रूप की तरह न पाई जाती हो, पर ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य, तीनों वर्णों का कार्य विभाजित हो गया था और अधिकतर लोग इन कामों को वंशानुक्रम से करने लग गये थे। इस युग में विवाह प्रथा भी सुव्यवस्थित रूप में प्रचलित हो गई थी। वैदिक आर्य प्रायः शत्रुओं के साथ लड़ते-भिड़ते रहते थे और इसलिए उनकी कामना सदैव वीर पुत्रों के लिए होती थी। विवाह के समय के मंत्रों में प्रार्थना की जाती थी कि ‘हे इन्द्र देव, इस स्त्री को दस पुत्र दो जिससे इसका पति ग्यारहवाँ होवे (दशास्या पुत्रानाधेहि पतिमेकादशे कृधि ऋ. 10-85-85) बहुत से लोगों की यह धारणा है कि वेद के युग में कन्या अपने पति का वरण स्वयं कर लेती थी और उसके माता-पिता का इस कार्य में कोई नियन्त्रण नहीं रहता था। पर वास्तविकता ठीक इसके विपरीत है। स्वयं वरण का प्रसंग वेद में आता है परन्तु वह विशेष रूप से क्षत्रिय कन्याओं के लिए ही होता था। ऋग्वेद में उस पिता की प्रसन्नता का वर्णन किया गया है जो अपनी पुत्री के लिए वर का प्रबन्ध करके अपने मन में सुखी होता है। शतपथ ब्राह्मण में सुकन्या का आख्यान है जिसने कहा था कि मेरे माता-पिता ने मुझे जिस पति के हवाले किया है उसे मैं जीतेजी नहीं छोड़ूंगी। राजा रथवीति के आख्यान से भी इसी बात की पुष्टि होती है। राजा से श्यावाश्व ऋषि ने उसकी कन्या से विवाह का प्रस्ताव किया। राजा ने अपनी विदुषी रानी शशीयसी की सम्मति से ऋषित्व प्राप्त कर लेने पर ही श्वाश्व के साथ अपनी पुत्री का पाणिग्रहण कराया।

विवाह सदा युवक और युवती का हुआ करता था, बाल विवाह का संकेत कहीं भी नहीं मिलता। ऋग्वेद के अनुसार वधू को आशीर्वाद दिया जाता था कि वह श्वसुर, सास, देवर के ऊपर साम्राज्ञी होकर रहे। दुहिता, पत्नी और माता के रूप में वह सर्वथा सम्मान भाजन थी। ‘गृहिणी गुहमुर्च्यत’ अर्थात् स्त्री ही घर है। वह सहधर्मिणी मानी जाती थी, और उसके बिना पुरुष को यज्ञ करने का अधिकार नहीं था। ऋग्वेद के ऋषियों ने बार-बार पत्नी के गुणों, पति प्रेम तथा दैनिक परिचर्या की प्रशंसा की है। वह गृहलक्ष्मी मानी जाती थी और महत्व के अवसरों पर उसकी सम्मति अवश्य ली जाती थी। उनको शिक्षा भी पर्याप्त दी जाती थी और उसी का यह परिणाम है कि ऋग्वेद के अनेक मंत्रों को प्रकट करने वाली महिला ऋषि थी। आर्य नारियों में नैतिकता पूर्ण रूप से विद्यमान थी। वे उत्तम आचरण तथा सदाचार के लिए सर्वत्र प्रसिद्ध थीं। उस समय की समाज का प्रधान देवता इन्द्र स्वयं धर्म से उत्पन्न और धर्म का रक्षक माना जाता था। इससे ऋग्वेद कालीन समाज में सर्वत्र धर्म का आदर था और स्त्रियों में उसकी विशेषता थी।

वैदिक कालीन समाज विशेषतः गांवों में निवास करता था पर नगरों का भी आस्तित्व उस समय था। खास कर शत्रुओं से आत्म रक्षा के लिए बड़े-बड़े किले बनाये जाते थे और उनमें पर्याप्त संख्या में मनुष्यों का निवास होने से वे स्वयं ही नगर बन जाते थे। इनमें से अनेक किले बहुत बड़े होते थे और पत्थरों की मजबूती दीवाल से घिरे रहते थे। लोहे के बने किलों (अश्वमन्मषी) का भी जिक्र कई जगह आता है जिनको इन्द्र ने नष्ट किया था। आर्यों के शत्रु दस्यु या दास भी बड़े-बड़े किले बनाते थे। जिनको आर्य आक्रमण करके ध्वस्त किया करते थे। एक जगह प्रतापी दास राजा शम्बर के 60 किलों के इन्द्र द्वारा नष्ट किये जाने का वर्णन है। पिछली संहिताओं में किलों का घेरा डालने और आग लगा देने की भी घटनाएं मिलती हैं।

लोगों के रहने के घरों के बनाने के लिए बाँस मिट्टी लकड़ी पत्थर और पकी हुई ईंट प्रधान सामग्री थी। मकानों में लकड़ी के खम्भे प्रायः लगाये जाते थे। वैदिक काल में राजमहलों में हजार खम्भे तक होते थे। घर में प्रायः चार भाग होते थे (1) अग्निशाला (2) हविर्धान (भंडार-ग्रह) (3) पत्नी नाँसदन (अन्तः पुर) (4) सदस (बैठक या दालना) जहाँ पुरुष इकट्ठे होकर बैठते या बातचीत करते थे। इनके सिवाय पशुओं के रहने के स्थान भी अलग होते थे जिनको शाला या मोत्र कहते थे। साधारण लोग सोने बैठने के लिए तरह-तरह की चटाइयाँ बनाकर काम में लाते थे। विवाह के अवसर पर तल्प (पलंग) काम में लाये जाते थे। विवाह से आते समय थक जाने पर स्त्रियाँ ब्रहा (पालकी) में बैठती थी। तरह-तरह की सामग्री रखने के लिए मिट्टी और धातु के कलश, लकड़ी के बने ‘द्रोण’ और चर्म के बने ‘इति’ का प्रयोग प्रत्येक घर में होता था। धनवानों और राजाओं के यहाँ सोने चाँदी के चमक (प्याले) काम में लाये जाते थे। भोजन पकाने के लिए स्थाली (बटलोई) काम में लाई जाती थी। सूप और चलनी का भी व्यवहार किया जाता था। धातु या मिट्टी के बर्तनों में सोने और चाँदी के सिक्के भर कर रखे जाते थे और सुरक्षा के लिए उनको जमीन के नीचे गाड़ा भी जाता था। वैदिक घरों में पूरी तरह से सादगी का भाव था और सुख के साधनों की भी कमी न थी।

भोजन सीधा-सादा स्वास्थ्यवर्द्धक तथा सात्विक होता था और उसमें दूध, घी की प्रचुरता रहती थी। ऋग्वेद के अनुशीलन से प्रतीत होता है कि भारतवासियों का सब से प्रधान भोजन जौ की रोटी और चावल का भात था। आजकल तर्पण, होम आदि धार्मिक कृत्यों में जौ, चावल और तिल का ही प्रयोग किया जाता है, इससे भी इनकी प्राचीनता सिद्ध होती है। दूध और चावल को साथ पकाकर ‘क्षीरोदन’ (खीर) बनाई जाती थी। जब दही डालकर चावल पकाया जाता था तो उसे ‘दध्योदन’ कहते थे। मूँग की खिचड़ी (मुद्गौदन) उस युग में भी हितकर समझी जाती थी। गेहूँ का नाम बाद के ग्रन्थों में मिलता है ऐसा जान पड़ता है कि वैदिक काल में सप्त सिन्धु प्रदेश अब से बहुत अधिक ठण्डा था, जिससे वहाँ गेहूँ उत्पन्न नहीं होता था। जौ को आग में भूनकर सत्तू (सक्तू) बनाया जाता था, जिसे उस समय प्रायः दूध में मिला कर पीते थे।

वैदिक युग का प्रधान पेय सोमरस था, जिसे वे अपने देवता को अर्पित कर स्वयं भी पीते थे। यज्ञों के अवसर पर सोम रस बनाना और उसे भिन्न-भिन्न देवताओं को समर्पण करना एक विशेष महत्व की क्रिया थी। सोम पर्वतों पर विशेषतः मजबूत पर्वत पर उगता था। वहाँ से यह लाया जाता था और पत्थरों (ग्रावा) से कूटकर इसका रस निकाला जाता था। कभी-कभी इस कार्य में ओखली और मूसल का प्रयोग भी किया जाता था। तब पानी मिलाकर उसे कपड़े से छाना जाता था। सोम रस का रंग (भूरा) और कुछ लाल (अरुण) बतलाया गया है। इसके पीने से शरीर भर में विचित्र उत्साह आ जाता है और मन में एक प्रकार की मोहक मस्ती छा जाती थी, तो भी यह पदार्थ सुरा (मद्य) से भिन्न था, क्योंकि जहाँ सोम रस की प्रशंसा से वैदिक साहित्य भरा हुआ है, सुरा या मद्य की कई स्थानों में बड़ी निन्दा की गई है और उसे मन्यु (क्रोध), विभीदिक (जुआ) और अचिति (अज्ञान) के समान व्यक्ति और समाज के लिए अहितकारी माना गया है।

उपयुक्त विवरण से स्पष्ट जान पड़ता है कि तत्कालीन भारतीयों का जीवन बिल्कुल सीधा-सादा और प्रकृति के अनुकूल था। वे कृत्रिमता से दूर रहते थे और आध्यात्मिकता ही उनका आभूषण था। इसीलिए वे ऐसी धार्मिक और आध्यात्मिक रचनायें कर सके जो आज तक लोगों की मार्गदर्शक होकर सबके लिए कल्याणकारी सिद्ध हो रही हैं।

First 7 9 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • आत्मालोचन
  • आत्मालोचन (Kavita)
  • आध्यात्मवाद और भौतिकवाद
  • मानव सभ्यता का आदि स्रोत-भारतवर्ष
  • Quotation
  • जीवन का उद्देश्य और उसकी प्राप्ति
  • आध्यात्मिक-जीवन का मर्म
  • प्राचीन भारत का सामाजिक जीवन
  • भारत के तीन वैष्णव सम्प्रदाय
  • आधुनिक अर्थशास्त्र अनर्थ का मूल है।
  • मातृभूमि का वैदिक गीत
  • सच्ची वर्ण व्यवस्था ही हितकारी है।
  • संस्कृति की उत्पत्ति और महत्व
  • चिकित्सा का एक सरल साधन-मिट्टी का प्रयोग
  • अपनी इच्छाओं को नियंत्रण में रखिए।
  • छह अवतार और मानवता की छह अवस्थाएं
  • गायत्री उपासना के अनुभव
  • अग्नि परीक्षा की घड़ी सामने आ गई।
  • आपके करने के 16 आवश्यक कार्य
  • धर्म प्रेमियों के सत्प्रयत्न
  • अन्तरात्मा की होली
  • अन्तरात्मा की होली (Kavita)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj