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Magazine - Year 1958 - Version 2

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संस्कृति की उत्पत्ति और महत्व

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(पं. लक्ष्मण जी शास्त्री)

किसी भी जाति अथवा राष्ट्र की श्रेष्ठता अथवा हीनता का निर्णय उसकी संस्कृति से किया जाता है। आजकल धन और शक्ति को भी अनेक लोग प्रधानता देते हैं पर वास्तव में उत्थान और पतन उन्नति और अवनति का निर्णय संस्कृति के आधार पर ही होना संभव है।

संस्कृति का तात्पर्य है? बहुत ही संक्षेप में हम कह सकते है कि आध्यात्मिक और आधिभौतिक शक्तियों को सामाजिक जीवन के उपयुक्त बनाने की कला ही संस्कृति है। स्वयं मनुष्य आध्यात्मिक शक्ति है और उसके चारों ओर का विश्व आधिभौतिक शक्ति है। मनुष्य अपनी इन्द्रियों को कार्यक्षम बनाता है। मनोविकारों पर काबू पाता है। विचारों की अर्थात् ज्ञान की वृद्धि करता है बुद्धि भावना और आकाँक्षाओं को प्रौढ़ तथा सूक्ष्म बनाता है। इसी को आध्यात्मिक संस्कृति कह सकते हैं। नीति, सौंदर्य, सत्य, न्याय, ध्येय, श्रेय आदि शब्दों से जिन गुणों का बोध होता है। उनका इस आध्यात्मिक संस्कृति से सम्बन्ध है। कायदा, कानून, धर्म, साहित्य, शास्त्र, विज्ञान समाज व्यवस्था राज्य पद्धति का भी आध्यात्मिक संस्कृति में ही समाविष्ट होता है। भौतिक संस्कृति का आशय है कि मनुष्य के चारों ओर फैले हुए विश्व का सामाजिक जीवन के अनुकूल रूपांतर। भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, धातु, वृक्ष वनस्पति पशु इत्यादि के रूप में चारों तरफ फैली हुए अनन्त सृष्टि को उपयोगी बनाना, शिकार, जहाजरानी, खेती, पशु पालन धातुओं के हथियार बनाना, भाप और बिजली के यंत्र बनाना आदि क्रियाओं की गिनती भी भौतिक संस्कृति में होती है। भौतिक-संस्कृति और आध्यात्मिक संस्कृति के बीच पृथकता बतलाने वाली रेखा खींच सकना कठिन है। इसका कारण यह है कि ये दोनों एक दूसरे से मिली हुई और परस्परावलम्बित हैं। आधि भौतिक संस्कृति- आध्यात्मिक संस्कृति का आधार है। आस-पास के बाह्य जगत का उपयोग करते-करते ही मनुष्य की आन्तरिक शक्तियों का विकास होता है। मनुष्य के अत्यन्त गहरे सम्बन्धों का आधार भी भौतिक होता है। पति और पत्नी, माता और पुत्र का सम्बन्ध अत्यन्त स्नेह का होता है परन्तु उनका प्राथमिक कारण भौतिक ही होता है। मनुष्य-मनुष्य के बीच के सारे सम्बन्ध साक्षात् अथवा परम्परा के समाज की भौतिक आवश्यकताओं पर ही आधारित होते हैं। गीता की आसुरी संपत्ति और दैवी संपत्ति मनु के वर्णाश्रम धर्म अथवा असोयादि धर्मों का समाज के भौतिक जीवन की व्यवस्था से सम्बन्ध रहता है। जिस मानव समाज की भौतिक स्थिति जितनी सुधरी हुई होती है। उसकी आध्यात्मिक स्थिति भी उतनी ही उन्नत होती है। इतिहास में ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है और न हो सकता है कि किसी समाज का अध्यात्म तो श्रेष्ठ हो परन्तु भौतिक जीवन घटिया हो।

अमेरिका के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक ‘बोआस’ ने संस्कृति के तीन मुख्य हेतु अथवा लक्षण बतलाये हैं-

(1) मनुष्य और प्रकृति के सम्बन्ध तथा प्रकृति पर विजय। (2) मनुष्य-मनुष्य के बीच का सम्बन्ध अथवा सामाजिक व्यवस्था। (3) मनुष्य के अन्तः करण की क्रिया-प्रतिक्रिया।

(1) मनुष्य और प्रकृति के सम्बन्ध के कारण अथवा प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के कारण जो संस्कृति निर्माण होती है उससे अगणित भेद हैं :- जैसे अन्न पैदा करना, उसकी रखवाली करना, गृह पशु, वनस्पति, ऋतु चक्र, वायु-वर्षा इत्यादि से बचने और उन पर अधिकार रखने की पद्धति। मनुष्य-मनुष्य के बीच के सम्बन्ध कुटुम्ब, गुण, वर्ण जाति उच्च-नीच श्रेणी आदि भिन्न-भिन्न सामाजिक गुटों के अंतर्गत और बाहरी सम्बन्ध, स्त्री-पुरुष तरुण-वृद्ध के सम्बन्ध समाज के राजकीय और धार्मिक संगठन, युद्ध और शाँतिकाल के समाज संबंध। (3) मनुष्य के अन्तःकरण की क्रिया-प्रतिक्रिया- इस विभाग में पहले दो तरह के सम्बन्धों के कारण अन्तःकरण पर होने वाली प्रतिक्रिया पर विचार किया जाता है। ज्ञान, विचार, भावना, अपेक्षा, आकाँक्षा, और प्रत्यक्ष प्रयत्न ये ही प्रतिक्रिया के रूप हैं। बुद्धि और भावना के कार्य इसी श्रेणी में आते हैं। शास्त्र, नीति, कला, सौंदर्य और धर्म का इसमें समावेश होता है।

‘बोआस’ ने अपने ग्रन्थ में धर्म की गिनती संस्कृति की तीसरी श्रेणी अर्थात् अन्तःकरण की क्रिया में की है। इसलिए जिस प्रकार संस्कृति में परिवर्तन होता है और उसका इतिहास बनता है वही बात धर्म में भी समझनी चाहिए। धर्म का इतिहास समझने के लिए समाज और सामाजिक संस्थाओं के परिवर्तन का इतिहास समझ लेना आवश्यक है।

संस्कृति कैसे बढ़ती है इस सम्बन्ध में पश्चिमी विद्वानों के दो मत हैं। पहले मत के मानने वाले टायलट और फ्रेजर जैसे विद्वान हैं। जिनका कहना है कि प्रत्येक समाज की संस्कृति सामाजिक आवश्यकताओं से उत्पन्न हुई है। इन आवश्यकताओं में सबसे पहला नम्बर आत्मरक्षण, संतानोत्पादन और संतान पालन का है। ये आवश्यकताएं लगातार बढ़ती ही रहती हैं और इनके साथ-साथ समाज की संस्कृति भी बढ़ती रहती है। यदि किसी कारण यह वृद्धि रुक जाती है तो संस्कृति भी रुक जाती है। दूसरे मत के मानने वाले इलियट, स्मिथ आदि अंग्रेज और कुछ जर्मन तथा आस्ट्रियन विद्वान हैं। इनका कहना है कि कुछ खास-खास राष्ट्र ही ऊंचे दर्जे की संस्कृति उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं। अन्य राष्ट्र या समाज इन विशेष राष्ट्रों की संस्कृति को सीख कर ही सुसंस्कृत बनते हैं इससे संस्कृति का प्रचार बढ़ता है और अनेक देश एक दूसरे की संस्कृति से परिचित हो सकते हैं। स्मिथ के मत से मूल संस्कृति इजिप्ट (मिश्र) में प्रौढ़ावस्था को पहुँची थी। खेती, व्यापार, मकान बनाना, राज्य, धर्म, पुरोहित, संस्था, लिखना, जहाज चलाना, युद्ध कला आदि की वृद्धि पहले इजिप्ट में ही हुई। इस संस्कृति ने सारे जगत पर प्रभाव डाला और पहली बार जगत इसी से सुसंस्कृत हुआ (यह बात योरोप और अमरीका के लिए सही हो सकती है।) जर्मन विद्वान कहते हैं कि आरम्भ में आठ प्रकार की संस्कृतियों का उदय हुआ। आज सारी मानव जाति कम या ज्यादा परिमाण में उन्हीं आठों संस्कृतियों के विनिमय, सम्मिश्रण और संघर्ष से उन्नति करने में समर्थ हुई हैं।

इन दोनों ही मतों में ऐतिहासिक सच्चाई है पर दूसरा दल संकुचित विचारों का है यह कुछ थोड़े से मानव समूहों को ही महान संस्कृति उत्पन्न करने का श्रेय देता है। इसका यही आग्रह है कि थोड़े से राष्ट्र ही उच्च संस्कृति का निर्माण कर सकते हैं। इस दृष्टि से पहले दल का मत अधिक युक्ति संगत जान पड़ता है कि सभी मानव-समूह उचित परिस्थिति मिलने पर महान संस्कृति उत्पन्न कर सकते हैं और अड़चने आने पर पिछड़ जाते हैं। दूसरे दल वालों ने संस्कृति की मीमाँसा मर्यादित और संकुचित दृष्टि से की है। पहले दल के इतिहास के गहरे अवलोकन से संस्कृति की उन्नत वृद्धि की सम्भावना को सिद्ध किया है और बतलाया है कि आगे बढ़ी और पिछड़ी सभी जातियाँ संस्कृति के उच्च लक्ष्य पर पहुँच सकती हैं। दूसरा दल उन राष्ट्रों का समर्थन करता है जो सफलता पा चुके हैं। और जिन्होंने धन तथा सत्ता को प्राप्त कर लिया है। दूसरे दल वालों के सिद्धान्त में से इतनी बात तो मान लेने योग्य है कि संस्कृति की वृद्धि विनिमय, सम्मिश्रण और संघर्ष से हुई है। संस्कृति की मूल प्रेरक सामाजिक आवश्यकता ही है। समाजिक आवश्यकता में कारण ही समाज एक प्रदेश को छोड़ दूसरे स्थान को चले जाते हैं। एक-दूसरे पर आक्रमण करते हैं, एक दूसरे की संस्कृति को मिटा डालते हैं अथवा स्वयं ही एक दूसरे से मिल जाते हैं यही संस्कृतियों के विश्वव्यापी होने का रहस्य है।

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