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Magazine - Year 1958 - Version 2

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(श्री रामप्रकाश गुप्ता ‘मधुप’ बी.ए. कोटा)

हमारा मस्तिष्क ही संसार का समस्त ज्ञान प्राप्त करने का सामर्थ्य रखता है। वास्तव में यह मस्तिष्क एक बड़ी पेचीदा मशीन है जिसके एक-एक कलपुर्जे का ज्ञान हुए बिना हम उसकी कार्य प्रणाली को नहीं समझ सकते।

मस्तिष्क के दो भाग होते हैं- एक चेतन और दूसरा अचेतन। मनुष्य के चेतन मन में सामान्य विचार होते हैं साँसारिक व्यवहार इसी के द्वारा होते हैं। अचेतन मन पुराने अनुभवों के संस्कारों का खजाना होता है। जीवन की अधिकतर महत्वपूर्ण घटनायें हमें याद नहीं रहती लेकिन उनके संस्कार अचेतन मस्तिष्क पर बने रहते हैं। हमारी निद्रा के समय भी अचेतन मस्तिष्क जागता रहता है और एक विशेष ढंग से क्रिया करता रहता है। मस्तिष्क अथवा मन के इन दोनों भागों में पूर्ण सामंजस्य रहने पर ही मनुष्य का स्वास्थ्य ठीक रहना संभव है।

इच्छायें असीमित हैं उन सबकी पूर्ति हो सकना संभव नहीं है अतः अनेक इच्छाओं का दमन किया जाता है। यह दमन की हुई तथा अतृप्त इच्छायें अचेतन मन में अपना घर बनाती हैं तथा मानसिक ग्रन्थि के रूप में कार्य करती हैं। हमारा मानसिक अंतर्द्वंद्व हमारी इन ग्रन्थियों के होने के प्रमाण हैं। दबी हुई मानसिक ग्रन्थियाँ स्वप्न में और जागृत अवस्था में भी मनुष्य के विवेक को नष्ट करके अपनी मनमानी करती हैं।

इसी कारण अनेक मनुष्यों का मस्तिष्क विकृत होकर वे पागल हो जाते हैं। जिस मनुष्य के मन में मानसिक ग्रन्थियों का जितना अधिक दमन होता है उसके स्वप्न भी उतने ही जटिल होते हैं तथा उसके व्यवहारों में भी उतनी ही विलक्षणता पाई जाती है।

आइये अब हम विचार करें कि मानसिक ग्रन्थियाँ किस प्रकार बनती हैं ओर कैसे कार्य करती हैं तथा उनके क्या परिणाम होते हैं? ऐसा होने से ही हम उनका निर्माण रोक सकते हैं तथा उनके दुष्परिणामों से बच सकते हैं।

शोक व भय की मानसिक ग्रन्थियाँ प्रायः सब में पाई जाती हैं। घर की स्त्रियाँ बचपन से ही तरह-तरह से बालक को भयभीत करके उसमें भय की ग्रन्थियाँ उत्पन्न कर देती हैं। बालक रात में सोते-सोते एकाएक चिल्ला उठता है वह भय की ग्रन्थि के कारण ही होता है। जब हम बड़ी आयु में भी भय की ग्रन्थि को निकाल नहीं सकते उस समय असाधारण साहस दिखाकर भय को बचाने की चेष्टा करते हैं। जिस व्यक्ति के आन्तरिक मन में जितना अधिक डर होता है वह उतना ही अधिक निर्भीक और बहादुर दिखलाई पड़ने की चेष्टा करता है।

घृणा की मानसिक ग्रन्थि में मनुष्य दूसरों से प्रेम करता है जब किसी युवती का विवाह उसकी इच्छा के विरुद्ध किसी व्यक्ति से हो जाता है तो घृणा की ग्रन्थि बन जाती है इससे उसे अनेक प्रकार की शारीरिक बीमारियाँ भी हो जाती हैं। अपमान व निराशा की घटनाएं भी मानसिक ग्रन्थि उत्पन्न करती हैं। यदि आप बालक के व्यक्तित्व को न समझ कर उसके व्यक्तित्व का अपमान व निरादर करते हैं तो याद रखिए कि बालक भी आपका सम्मान कभी न करेगा तथा उसमें आपके प्रति घृणा की ग्रन्थि बन जायेगी। अपमान की एक सच्ची घटना मुझे स्मरण होती है। एक बार एक सज्जन प्रथम बार जनता के सम्मुख व्याख्यान देने को उपस्थित हुए। व्याख्यान असन्तोष जनक होने के कारण जनता ने तालियाँ बजानी आरम्भ की तथा कुछ समय बाद सब उठ कर चले गये। इस व्यवहार से उक्त बोलने वाले सज्जन में अपमान की भावना घर कर गई। इस ग्रन्थि के विरुद्ध लड़ने की उन्होंने हृदय से कोशिश की। बहुत प्रयत्न व अभ्यास के पश्चात् उन्होंने फिर भाषण दिया। अब की बार वे सफल वक्ता सिद्ध हुए। जनता ने प्रभावित होकर खुशी से तालियाँ बजाकर उनका सम्मान किया। तब उनकी अपमान की ग्रन्थि दूर हो सकी।

आत्म ग्लानि की ग्रन्थि की क्रिया भी बड़ी प्रबल होती है। जब मनुष्य आवेग में आकर अपनी नैतिक भावना के प्रतिकूल काम कर बैठता है जब यह ग्रन्थि उत्पन्न होती है। यहाँ महात्मा गाँधी की आत्म ग्लानि का अनुभव लिखना असंगत न होगा। जब महात्मा गाँधी के पिता मृत्यु शैया पर थे उस समय गाँधी जी अपनी काम वासना को न रोक सके और अपनी स्त्री के पास जा सोये। उसी समय उनके पिता का देहान्त हो गया। उन्हें इसके कारण भारी आत्म ग्लानि हुई इसके कारण उनकी जीवन धारा ही एक विशेष दिशा में प्रवाहित हो गई और वे काम वासना के कट्टर शत्रु हो गये। आत्म ग्लानि की ग्रन्थि के कारण मनुष्य प्रायः ऐसा काम करने का प्रयत्न करता है जिससे वह समाज के समक्ष अपने आपको विशेष व्यक्ति सिद्ध कर सके।

जिस प्रकार नदी का बाँध पक्का होता है तो बाँधा हुआ पानी शीघ्र नहीं निकल पाता। पर जब बाँध कच्चा होता है तो एकत्रित पानी उसे तोड़ कर बाहर निकल जाता है। इसी प्रकार जब मनुष्य की चेतना शक्ति प्रबल होती है तो वह दबाये गये भावों और मानसिक ग्रन्थियों को रोकने में समर्थ होती है पर जब चेतना की शक्ति कमजोर पड़ जाती है तो मानसिक ग्रंथियां विकृत रूप से अपना काम करने लगती हैं। अतः हमको अपनी इच्छाओं को इस प्रकार नियंत्रण में रखना चाहिए जिससे वे उचित रूप से तृप्त होती रहें और मानसिक ग्रन्थियाँ न बनने पायें क्योंकि इससे शारीरिक और मानसिक विकास में बाधा पड़ती है।

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