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Magazine - Year 1959 - Version 2

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Language: HINDI
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सुखी जीवन के कुछ सूत्र

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First 9 11 Last
(श्री रामखेलावन चौधरी)

सुख जीवन की एक ऐसी दशा है, जिसमें मनुष्य संघर्ष से मुक्त रहता है। यह संघर्ष कई प्रकार का होता है। मनुष्य के चारों और शीत, ताप और रोग जैसी शक्तियाँ क्रियाशील रहती हैं और उसे इनसे निरन्तर संघर्ष करना पड़ता है। मनुष्य की कुछ ऐसी आवश्यकताएँ भी होती हैं, जिनकी पूर्ति के बिना उसका जीवन बना नहीं रह सकता। उन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कुछ वस्तुओं की आवश्यकता होती है और इन वस्तुओं का पाना सहज नहीं है। जीवन की धारा अक्षुण्ण बहती रहे, इसके लिए भोजन, वस्त्र और आवास की व्यवस्था होनी चाहिए। यह मनुष्य की नग्न आवश्यकताएँ हैं। हम जानते हैं कि इन्हें भी प्राप्त करना दुर्लभ हो रहा है। इनके अभाव में मनुष्य के मन में इच्छाएँ पैदा होती हैं और उनकी तृप्ति न होने पर मन में संघर्ष पैदा हो जाता है। अब समाज की बात लीजिए। मनुष्य ने अपनी सुरक्षा के लिए समाज की रचना की, पर यहाँ भी मनुष्य-मनुष्य के बीच स्वार्थ साधन और हितों के लिए संघर्ष चल रहा है। इस प्रकार रोगों, इच्छाओं और सामाजिक सम्बन्धों के कारण वह दशा नहीं पैदा हो पाती, जिसे हम सुख कहते हैं। सच्चा सुख पाने के लिए इन तीन प्रकार के संघर्षों पर विजय पाना अनिवार्य है।

अच्छा स्वास्थ्य सुख की कुँजी है। स्वस्थ रहने के लिए घी-दूध, मलाई-रबड़ी और उन्हें पचाने के लिए दवाओं के आवश्यकता नहीं है। यदि मनुष्य अपने शरीर के लिए आवश्यक भोजन की मात्रा का अनुमान लगाले (जो प्रत्येक व्यक्ति के लिए सरल है) और शरीर जितना सहन कर सकता है, उतने श्रम और आराम का मार्ग निकाल ले, तो वह निरोग रहकर सुखी बन सकता है। आहार-विहार में संयम रखना ही सुख का प्रथम सूत्र है। यह प्रत्येक मनुष्य के हाथ में है। डॉक्टर या वैद्य इसमें अधिक सहायता नहीं कर सकते।

दूसरी बात इच्छाओं के बारे में है। कुछ ऐसी बातें हैं, जिनकी इच्छा होना स्वाभाविक है और उनकी पूर्ति के लिए प्रयत्न करना धर्म है। मनुष्य साधारण भोजन, वस्त्र और आवास के बिना न तो जीवित ही रह सकता है और न जीवित रहते हुए निश्चित रह सकता है। परन्तु आज मनुष्य की इच्छाओं की सीमा नहीं है। यदि हम-आप एक दिन के जीवन पर विचार करें और जितने कार्य करते हैं, उनकी सूची बना लें, तो स्पष्ट पता चल जायेगा कि हमारे अधिकाँश कार्य ऐसी इच्छाओं की पूर्ति के लिए होते हैं जिन्हें किसी प्रकार भी जायज या उचित नहीं कहा जा सकता। उनके बिना भी हम बड़े मजे में रह सकते हैं परन्तु इच्छा-पूर्ति की मृग-तृष्णा के पीछे हम पागल हो रहे हैं। यही वर्तमान मानव-जीवन के दुख का सबसे बड़ा रहस्य है। इच्छानुकूल वस्तुओं को प्राप्त कर लेना अपने हाथ में नहीं है। समय और यन्त्रों ने मनुष्य को परावलम्बी बना दिया है। साधारण चीजों को प्राप्त करने के लिए भी हमें दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। हम इच्छाएँ बहुत करते हैं, परन्तु उनकी पूर्ति के साधन दूसरों के हाथ में हैं। हम भोजन बढ़िया चाहते हैं, पर न तो हम स्वयं खेती करते हैं और न गाय-भैंस पालते हैं। हम बढ़िया वस्त्र चाहते हैं पर मशीनों और मिल मालिकों का मुँह ताकते हैं, हम मकान चाहते हैं, और उसके लिए सरकार का सहारा लेते हैं। गाँधी जी ने सुखी होने के लिए स्वावलम्बी होना आवश्यक बताया है। यही उनके दर्शन का मूल है। या तो इच्छाओं को नष्ट कीजिए या इच्छाओं को पूरा करने के लिए स्वावलम्बी बनिए। तभी सुख मिल सकेगा।

अब सामाजिक सम्बन्धों की बात पर ध्यान दीजिए। चारों और बड़ी उन्नति हो रही है, ज्ञान-विज्ञान और कलाएँ फल-फूल रही हैं परन्तु मनुष्य मनुष्य के सम्बन्ध बिगड़ते जा रहे हैं। घर में, पड़ोस में, देश में और सारी दुनिया में एक यही बात देखने में आती है कि मनुष्य हिल-मिलकर नहीं रह सकता। एक-दूसरे को खा जाना चाहता है। यह कैसी स्थिति है? परस्पर अविश्वास और सन्देह बढ़ता जा रहा है। घर में पैसा है, कमी किसी बात की नहीं, परन्तु फिर भी सुख का लोप होता जा रहा है। वस्तुतः हम सब यह भूलने लगे हैं कि समाज में कैसे रहना चाहिए। हम आपके सामने तीन व्यावहारिक सूत्र प्रस्तुत कर रहें हैं; यदि इन पर अमल किया जाय तो आपके सामाजिक सम्बन्ध अवश्य सुधर सकते हैं, और सुख मिल सकता है।

एक तो जिसके लिए आप जो भी करते हैं; उसका बदला पाने की आशा छोड़ दीजिए। यदि आप किसी का काम इस आशा से करते हैं, कि किसी अवसर पर आप उस व्यक्ति से लाभ उठा सकेंगे, तो आप एक बहुत बड़ी दुराशा का बीज बो रहे हैं। आपकी यह इच्छा कभी न पूरी होगी। ऐसी इच्छा करने की अपेक्षा किसी का काम न करना ज्यादा अच्छा है।

दूसरे आप चारों ओर से एक बड़े समुदाय द्वारा घिरे हैं। वे जो भी कर रहे हैं, उसका प्रभाव आपके जीवन पर पड़ रहा है। उनके आधार पर आपकी सफलता और विफलता निश्चित होती है। यदि उनके कार्यों के परिणाम स्वरूप आपको सफलता मिलती है तो आप उनसे प्रसन्न होते हैं और विफलता मिलने पर अप्रसन्न। याद रखिये प्रत्येक दशा में उनके कार्यों पर आपका कोई नियन्त्रण नहीं। यदि उनके द्वारा आपका अपकार होता है, तो आप अवश्य ही दुःखी होते हैं। इसके लिए आप उन्हें दोष भी देते हैं, जबकि वे अपने काम अपने दृष्टिकोण से करते हैं। ऐसी दशा में आप अपने को उनकी परिस्थिति में रखकर देखें और विचार करें कि यदि आप उनकी जगह पर होते तो क्या करते? आपको तुरन्त ही आपका मन बता देगा कि मैं भी ऐसा ही करता। बस आपका दुःख दूर हो जायेगा। जिस बात पर आपका वश नहीं है, उसके लिए दुःखी होने से क्या लाभ है?

तीसरे, याद रखिये आप अमर नहीं हैं, धीरे-धीरे आपके जीवन का क्षय हो रहा है। सम्भव है आज सोने के बाद, हम कल न उठ सकें। इसलिए आज का अच्छे से अच्छा उपयोग करें। यदि कल जीवन बना रहे, तो यह सोचकर प्रसन्न होना चाहिए कि एक दिन और मिला। इस प्रकार एक-एक दिन जो मिलता है, मूल्यवान है और उसे स्वार्थ-लिप्सा में बिताना बड़ी भारी मूर्खता है। इस भाव से स्वार्थ नष्ट होगा और स्वार्थ नष्ट होने से सुख प्राप्त होगा।

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