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Magazine - Year 1959 - Version 2

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नैतिकता-वास्तविक और कृत्रिम

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(श्री बाडीलाल मोती लाल शाह)

हमारे देश में धर्म और नीति का जीवन में बड़ा उच्च स्थान माना जाता है। इतना ही नहीं कितने ही लोग तो धर्म के पीछे पागल बन फिरते हैं और सदा यही दावा किया करते हैं कि संसार में अगर कोई धर्म का पालन करने वाला देश है तो वह भारतवर्ष ही है। हिन्दू-धर्म ही संसार का सबसे महत्वपूर्ण और सारयुक्त मत है और उसी में ईश्वर और आत्मा के सच्चे स्वरूप का निरूपण करके धर्म और नीति के सर्वश्रेष्ठ नियमों का निर्माण किया गया है। ये बातें बिल्कुल झूँठी नहीं हैं। जिस समय यहाँ के मनुष्य धर्म के सच्चे स्वरूप को समझकर विवेकानुसार उसका पालन करते थे और युग धर्म के अनुसार आचरण करने में समर्थ थे तब यह देश वास्तव में “धर्म भूमि” कहलाने का अधिकार रखता था। पर आज अवस्था इसके विपरीत दिखलाई पड़ती है। लोग धर्म के वास्तविक आशय पर ध्यान नहीं देते, केवल एक लकीर को पीटकर धर्मात्मा बनने का ढोंग करते हैं। इसी का परिणाम है कि हम धर्म और नीति के नियमों पर चलने का दावा करते हुये भी वास्तव में उनको भ्रष्ट कर रहे हैं। उदाहरण के लिये अहिंसा और शील के नियमों पर ध्यान दो। हम यहाँ तक अहिंसा का पालन करते हैं कि पागल कुत्ते को भी नहीं मारते और कीड़े मकोड़ों की रक्षा का भी पूरा ध्यान रखते हैं,पर हमको स्वयं अपने प्रति भी अहिंसा का पालन करना चाहिये,इसका ध्यान भी कभी नहीं करते। अपनी बुद्धि की रक्षा न करने से मनुष्य बड़ा भारी प्रमादी बन जाता है, जो एक सबसे बड़ा आत्म हत्या का पाप है। आजकल तो यह दशा है कि यदि कोई यह उपदेश करे कि हिंसा करो तो धर्म के नाम पर ही हिंसा करने को कूद पड़ेंगे और यदि कोई कहे कि अहिंसा का पालन करो तो समाज और देश के साथ शत्रुता करने वाले के प्रति भी दया बुद्धि रखेंगे। इसका अर्थ है अपनी बुद्धि का खून और दूसरे की बुद्धि की गुलामी करना। यही इस समय हमारा ‘धर्म’ बना हुआ है। पर यह ‘आर्य-धर्म’ नहीं है वरन् ‘प्रेरित धर्म’ है और प्रेरित धर्म संसार में सबसे खराब चीज है, कोई भी धर्म न होने से भी वह बुरा है। हमको पहले अपने प्रति दया करनी चाहे अपनी आत्मा को निरोगी और पुष्ट बनाने के लिये उसका उपयोग करना चाहिये। क्योंकि बलवान आत्मा ही सबके प्रति दया का पालन कर सकती है। योरोप माँसाहारी है पर वह जानवरों के प्रति हम से कहीं अधिक दया का बर्ताव करता है। मनुष्यों को भी वह अनावश्यक कष्ट नहीं देता। इतना ही नहीं वह अनावश्यक कटु शब्द अथवा हल्ला-गुल्ला मचाने पर भी दूर रहता है। पर हम जीव-दया के ठेकेदार बनने वाले खुद अपने परिवार में भी साक्षात् नर्क की सी दशा उत्पन्न कर देते हैं। यहाँ पर हर एक धर्म के लाखों पंडित हजारों वर्षों से दया और अहिंसा की व्याख्या करते रहे हैं और लोगों को एक घड़ी में इधर और दूसरी घड़ी में उधर भ्रमित करते रहे हैं। किसी अनुभवी से पूछा जाय तो वह यही कहेगा कि ये व्याख्याएँ सापेक्ष अर्थात् गलत होती हैं।

सत्य बात तो यह है कि अपने प्रति दया का पालन करने वाला, अपने अन्तःकरण के चारों कोनों को निरोगी बनाने वाला ही स्वभावतः अहिंसक होता है। आशय यह है कि दया कोई नीति सम्बन्धी विषय नहीं है, वरन् भीतर के बल का स्वाभाविक परिणाम है। निर्बल व्यक्ति कभी दयालु नहीं बन सकता और निर्बल का दया-धर्म या तो ढोंग या आत्म हत्या की तरह होता है। दया? निर्बलों में दया? वह किस प्रकार की होती है यह जानना चाहते हो? क्या तुमने इस सम्बन्ध में स्वयं अपने व्यवहार पर विचार करके नहीं देखा है? अपने पुत्र पर दया करके तुम उसका विवाह कर देते हो! पर उस पर इसी समय एक जीव की और भविष्य में अनेक जीवों की जिम्मेदारी लादने का तुमको क्या हक था ? तुम अपने को ही सुशिक्षित, सुसंस्कारयुक्त नहीं बना सके हो, अपने पुत्र-पुत्रियों को भी ठीक ढंग से सुशिक्षित नहीं बना सके हो, और अब उन पुत्र-पुत्रियों पर जीवन भर की जिम्मेदारी का बोझ डालते हो। घोड़ा पर ज्यादा बोझ लादने वाले को तुम दोषी ठहराकर सरकार द्वारा दंडित कराते हो, पर स्वयं अपने बालकों को समर्थ बनाये बिना उन पर जीवन भर के लिये भार लाद देते हो, क्या यह बात तुम को दोषी बनाने वाली नहीं जान पड़ती? यह कैसा भयंकर पाप है! इससे तो वह कसाई ही अच्छा जो एक ही हाथ में जीव की वेदना का अन्त कर देता है। मुझे तो ऐसे बालकों के विवाह होते देखकर कंपकंपी आ जाती है और भारतवासियों के लिये मुख से अभिशाप निकलने लगते हैं।

अब हमारे यहाँ की शील और ब्रह्मचर्य की नीति पर दृष्टिपात करो। थोड़े से तो ब्रह्मचर्य का आजीवन व्रत लेकर साधु बन जाते हैं और बहुत से अपनी स्त्री के सिवाय अन्य किसी पर नजर नहीं डालने का व्रत लेते हैं। बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो विवाह करना चाहते हैं पर जातीय बन्धनों के कारण उनको विवश होकर कुँवारा रहना पड़ता है। अब इन तीनों के जीवन की जाँच करो। प्रथम श्रेणी वाले यदि सच्ची नीयत के भी होते हैं तो भी अन्तःकरण का बल न होने से नियमों का पालन नहीं कर सकते और छुपे व्यभिचार अथवा अप्राकृतिक दुराचार का आश्रय लेते हैं। दूसरी श्रेणी वाले सच्चे हों तो भी मानसिक शक्ति के अभाव से अपनी स्त्री से निरंकुश जानवरों की तरह व्यवहार करते हैं और कुछ बाहरी आकर्षण के फेर में भी पड़ जाते हैं। तीसरा वर्ग रात दिन स्त्री के लिये झींकता रहता है और इसलिये लाचार होकर चाहे जैसे कुकर्म में लिप्त हो जाते हैं। अब बताओ, क्या एक भी श्रेणी वाले शील की रक्षा कर सके? उपदेशक वर्ग के लिये अनिवार्य ब्रह्मचर्य की शर्त रखने से दुगुना नुकसान होता है। गृहस्थ वर्ग में जिम्मेदारी का भाव उत्पन्न होने के पहले ही विवाह हो जाने से कुँवारे रहकर व्यभिचार करने वालों से भी अधिक अब्रह्मचर्य का सेवन किया गया। जिन हजारों लोगों को लाचारी से कुँवारा रहना पड़ता है उनके द्वारा विश्वासघात, व्यभिचार, वैश्यागमन, अप्राकृतिक कर्म ये सब भयंकरताएँ उत्पन्न की जाती हैं। तुम जैसे-जैसे प्रकृति विरुद्ध मार्ग पर चलोगे वैसे-वैसे ही अधिक परेशानी, अधिक अन्तःकरण की निर्बलता तथा ढोंग की उत्पत्ति होगी ही । कुदरती कानून पर चलने में तुमको इस समय प्रचलित रूढ़ियों का भय लगता है। तुम इस भय को छोड़ नहीं सकते तो संसार में प्रकट होने वाली महान से महान समस्याओं का समाधान कैसे कर सकोगे? अच्छा है जब तक सारे समाज तथा देश का नाश हो जाय तब तक तुम रास्ता देखते रहो।

मैं फिर कहता हूँ- अनुभव से कहता हूँ- गहरा विचार करके कहता हूँ कि नीति शिक्षा नहीं किन्तु बल-’शक्ति’ ही रक्षा कर सकती है। वह बल भी अन्तःकरण के चारों अंगों का होना चाहिये। बलवान ही दया कर सकता है। बलवान ही शील का पालन कर सकता है, बलवान ही सत्य कथन कर सकता है, बलवान ही चुराने के बजाय प्रदान करने में आनन्द का अनुभव कर सकता है। इन बातों के सिवाय और धर्म का अर्थ ही क्या है? चाहे हिन्दू धर्म हो,चाहे जैन, चाहे ईसाई धर्म हो या मुसलमान किसी में इससे अधिक कोई बात नहीं कही गई है । इस बात को उत्पन्न करने के लिये नीति की नहीं वरन् तालीम -”कल्चर”- संस्कार की आवश्यकता पड़ती है और धर्म की रचना वास्तव में ऐसे संस्कार उत्पन्न करने के लिये की गई थी। पर आज तो लोग संस्कार शब्द का अर्थ भी भूल गये हैं। ऊँचे दर्जे की आदत ही संस्कार है। खाना, पीना, विवाह करना, संतानोत्पत्ति , बोलना लिखना, व्यापार करना, सामाजिक कार्य करना इत्यादि हर एक क्रिया ऊँचे मन से, ऊँचे शौक से की जा सके ऐसी आदत डालना, ज्ञान तंतु अपने आप ऐसी क्रिया करें ऐसा बन जाना ही संस्कार है। केवल कल्पनाएँ, व्याख्यान, नीति, कानून इनमें से कोई संस्कार नहीं हैं। ये तो केवल समर्थ व्यक्तियों के व्यवहार से देखकर पंडितों द्वारा रचे कल्पनाओं के जाले हैं।

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