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Magazine - Year 1959 - Version 2

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अनैतिकता और भ्रष्टाचार का उच्छेद कैसे हो?

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(श्री सत्यभक्त )

भारतवर्ष की सबसे बड़ी वर्तमान समस्या अनैतिकता और भ्रष्टाचार की है। जब तक हमारे ऊपर एक मजबूत विदेशी जाति का शासन था, तब तक तो उसके दबाव से ये बुराइयाँ काफी हद तक प्रच्छन्न अवस्था में थी। पर जब वह दबाव हट गया और हम स्वयं अपने घर के कर्ताधर्ता बना दिये गये तब से हमारे अंतर्गत सभी दोष खुले रूप में प्रकट हो गये हैं। आज हाट-बाजार, कल, कारखाना, रेल, मोटर में जहाँ कहीं भी दस-बीस आदमी इकट्ठा होते हैं यही रोना सुनने में आता है। लोग बेशर्मी के साथ कहते हैं- “अजी साहब, इससे तो अंग्रेजों का जमाना ही हजार दर्जे अच्छा था। इस काँग्रेस के राज में तो रिश्वत और चोरी का बाजार जैसा गर्म है वैसा तब कभी देखने में नहीं आया था। और न आजकल की सी महंगाई कभी सहन करनी पड़ी थी।” पर ये मूर्ख और निर्लज्ज यह नहीं विचारते कि काँग्रेस का शासन स्थापित होने से किसी दूसरे लोक के आदमी तो यहाँ आकर नहीं बस गये। देश में जो आदमी अंगरेजी राज्य में रहते थे वे ही वर्तमान समय में भी रहते हैं। अब अगर वे पहले से ज्यादा बेईमानी और घूँसखोरी करने लग गये हैं तो इसका कारण यही है कि उनके सर पर पहले जो अंगरेजों के डण्डे का भय सवार रहता था वह अब जाता रहा। अर्थात् बेईमानी और भ्रष्टाचार की जघन्य आदतें उनके भीतर तब भी भरी हुई थी, पर भय के कारण वे पूर्ण रूप में प्रगट नहीं होती थीं। अब उस भय के दूर हो जाने से वे बुराइयाँ खुलकर खेलने लगी हैं और लोग अपने कुकर्मों के कारण परेशान हो रहे हैं।

चाहे जो हो इसमें सन्देह नहीं कि इस समय हमारे देश की अवस्था बहुत भयंकर हो उठी है। लोगों में स्वार्थ की भावना इतना जोर पकड़ती जाती है कि कभी-कभी तो उसे देखकर बड़ा भय लगने लगता है। समाज और देश का हित किस चिड़िया का नाम है इसे या तो अधिकाँश व्यक्ति जानते ही नहीं या भूल गये हैं। हर एक के मन में यही धुन समा गई है कि “मैं अधिक से अधिक कमाकर अपना घर भर लूँ और खूब ठाठ-बाठ से रहने लगूँ। इस कमाई में भले-बुरे, सच-झूँठ, पाप-पुण्य का ख्याल रखने की कतई जरूरत नहीं, ये तो सब मुँह से कहने की बातें हैं, जो कोई वास्तव में इनका पालन करने की कोशिश करते हैं वे मूर्ख हैं। आजकल के जमाने में कहीं ईमानदारी से काम चलता है? जब दूसरे लोग लम्बे-लम्बे हाथ मारकर कोठियाँ खड़ी कर रहे हैं तो मैं ही क्यों पीछे रहूँ?” इस प्रकार देश में एक ऐसी आग लगी है, एक ऐसा शैतानी चक्र चल पड़ा है कि लोग एक दूसरे को देखकर, एक दूसरे का उदाहरण देकर अनैतिकता और भ्रष्टाचार के मार्ग पर कूद-कूद कर, उछल-उछल कर आगे बढ़ रहे हैं और समाज के नाश और पतन का कारण बनने में जरा भी शर्म और हया का अनुभव नहीं करते। इसी मनोवृत्ति का फल है कि देश में महंगाई की समस्या भीषण रूप धारण कर रही है और बहुसंख्यक लोगों का जीवन निर्वाह बड़ा कठिन हो गया है। जिनके हाथ में शासन और व्यवस्था की बागडोर है वे भी प्रायः सबके सब ऐसी ही मनोवृत्ति के हैं। इसलिये सिवाय लम्बे-चौड़े वायदों और चिकनी-चुपड़ी बातों के उनसे कोई ठोस और फलदायक उपाय करते नहीं बनता।

यह परिस्थिति वास्तव में बड़ी सोचनीय और चिन्ताजनक है। दिखाने को तो हम रात-दिन धर्म और अध्यात्म की रट लगाये रहते हैं, वेद और उपनिषदों के उच्च आदर्शों की दुहाई देते रहते हैं, पर व्यवहार में टापुओं में बसने वाले जंगलियों से भी अधिक हीनता और पाशविकता का परिचय देते हैं। वे लोग कम से कम अपने फिर्के के दो-चार हजार व्यक्तियों के प्रति तो वफादार रहते हैं, उसके किसी व्यक्ति का अनहित नहीं कर सकते। पर हमारे ये ‘धर्म’ और ‘ज्ञान’ के ठेकेदार बनने वाले भाई तो अपने बगल के मकान में रहने वाले पड़ोसी से भी किसी भी तरह की धोखेबाजी करने में पशोपेश नहीं करते। जिस योरोप और अमरीका को ये लोग भौतिकवादी देश बताकर निन्दनीय ठहराते हैं, वहाँ के लोगों का व्यक्तिगत चरित्र और नीति का मानदण्ड भी हमारे इन ‘अध्यात्मवादियों’ से अनेक गुना अच्छा है। वहाँ लेन देन में कभी ऐसी बेईमानी नहीं बरती जा सकती, और सचाई का भी वे हमारी अपेक्षा बहुत अधिक ध्यान रखते हैं। समाज के हित को वहाँ सर्वोपरि स्थान दिया जाता है और सामूहिकता की भावना उनमें कूट-कूटकर भरी है। यही कारण है कि डेढ़, दो सौ वर्ष के थोड़े से समय में उन्होंने समस्त संसार पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया और आज पृथ्वी के बाहर अन्य लोकों में भी पैर रखने की चेष्टा कर रहे हैं। यह बात दूसरी है कि उनकी महत्त्वाकाँक्षा सीमा से बाहर ऐसा रूप धारण कर रही है कि वे अपने हाथ से ही पारस्परिक सर्वनाश की स्थिति उत्पन्न कर रहे हैं। पर उनके इस कार्य में हमारे यहाँ की सी हीनता, संकीर्णता अथवा अधर्म स्वार्थ- साधन का कोई चिन्ह नहीं है।

दूसरे महायुद्ध के पहले योरोप के देशों की दशा भी बड़ी संकटापन्न हो गई थी। वहाँ पर विभिन्न राष्ट्रों में प्रतिद्वन्द्विता का भाव इतना अधिक बढ़ गया था कि सबको अपनी सुरक्षा में सन्देह जान पड़ने लगा था। एक दूसरे के भय से सभी राष्ट्र युद्ध की अधिकाधिक तैयारी कर रहे थे और शस्त्रों के निर्माण में कल्पनातीत धन व्यय किया जा रहा था। समझदार लोग इस दशा को देखकर बड़े चिन्तित थे क्योंकि इससे जनता की सब प्रकार से हानि थी। इसलिये उन्होंने लोगों को यह समझाया कि अपनी नैतिकता और चरित्र को अक्षुण्ण रखोगे तो तुम सच्ची शाँति स्थापित कर सकोगे और कोई तुम्हारा कुछ बिगाड़ न सकेगा। इस उद्देश्य से प्रकाशित एक घोषणा-पत्र में, जिसमें सबसे ऊपर ‘लार्ड बाल्डविन’ के हस्ताक्षर थे, जन समुदाय के मार्ग-प्रदर्शनार्थ निम्न सम्मति प्रकट की गई थी-

“किसी भी राष्ट्र या जाति की शक्ति उसके सिद्धान्तों की सारयुक्तता पर निर्भर होती है। प्रत्येक राष्ट्र की विदेशी और गृह नीति वास्तव में वहाँ के लोगों के चरित्र तथा नेताओं के प्रोत्साहन द्वारा ही निश्चित की जाती है। उनको अपने जीवन में तथा नीति में ईमानदारी, श्रद्धा और प्रेम का अधिकाधिक समावेश करना चाहिये, क्योंकि इन्हीं गुणों के आधार पर एक नये संसार का निर्माण किया जा सकता है। बिना इन गुणों के बड़े से बड़े शस्त्र, बड़ी से बड़ी गुप्त संधियाँ केवल सर्वनाश के समय को थोड़ा-सा टाल सकती हैं। इसीलिये वर्तमान समय की सबसे बड़ी आवश्यकता नैतिक और आध्यात्मिक शक्ति-संगठन की है। सभी देशों में इस बात पर विश्वास करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। यह एक ऐसा कार्य है कि जिसमें सभी देशों और जातियों के सब पुरुष और स्त्री भाग ले सकते हैं। अगर इस कार्यक्रम को हम सब मिलकर शक्ति और योग्यता पूर्वक पूरा करें तो इससे संसार भर में शाँति की स्थापना हो सकती है।”

वास्तव में किसी महान कार्य को सिद्ध करने का यही मार्ग है । ईमानदारी के बिना कोई सत्कार्य और स्थायी लाभदायक कार्यक्रम पूरा हो ही नहीं सकता। इसी प्रकार श्रद्धा की शक्ति द्वारा ही हम कठिन मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं। प्रेम और सहानुभूति के आधार पर ही सामाजिक संगठन संभव होता है और साधनों से उचित लाभ उठाया जा सकता है। बेईमान, श्रद्धा विहीन और अपस्वार्थी व्यक्ति डाकू, चोर और ठगों की तरह आर्थिक लाभ उठा सकते हैं, मौज, मजा और गुलछर्रे उड़ा सकते हैं, संसार के सामने ठाठ-बाट के साथ अकड़कर चल सकते हैं। पर ये सब बातें क्षणस्थायी होती हैं, और ऐसे व्यक्ति प्रायः इसी जीवन में अपनी करनी का कुफल भोगते देखे जाते हैं। जो बात ऐसे व्यक्तियों के संबन्ध में सत्य है वही समाज और राष्ट्रों पर भी लागू होती है। जब हमारे समाज के लोग इन सद्गुणों की उपेक्षा करके किसी भी उपाय से धन कमाने और उसके द्वारा भोग विलास या शान शौकत को ही सब से बड़ा काम समझेंगे, तो उसका कड़वा फल भी उनको ही भोगना पड़ेगा। इस प्रकार के कार्यों से समाज में अनैतिकता और भ्रष्टाचार का बोलबाला होना अनिवार्य है और उसका बुरा परिणाम किसी एक व्यक्ति को नहीं वरन् समस्त समाज को ही उठाना अनिवार्य है। ऐसी अवस्था में जो लोग वर्तमान महँगी और भ्रष्टाचार के लिये सरकारी अधिकारियों अथवा छोटे-बड़े व्यवसाइयों को दोष देते हैं उनका कथन मूर्ख स्त्रियों के रोने और कोसने से अधिक महत्व नहीं रखता। जब वे भी उसी समाज के अंग हैं और अनैतिक व्यापार करने वाले भी प्रायः उन्हीं के भाई-बंधु, पड़ोसी, मित्र आदि हैं, तो वे किस मुँह से अनैतिकता और भ्रष्टाचार की बुराई करते हैं। हमने देखा कि बाप तो सट्टेबाजी और ब्लैक मार्केटिंग करके रुपया कमा रहा है और बेटा महंगी के विरोध की सभा में गला फाड़ कर मुनाफाखोरी की निन्दा करता है!!

इसलिये अगर हम वास्तव में सच्चे दिल से शिकायत करते हैं और हमको सचमुच कष्ट भोगना पड़ रहा है, तो हमको इस जवानी जम खर्च और नामर्दों की तरह रोने-कलपने को छोड़कर क्रियात्मक ढंग से कोई कदम उठाना चाहिये। प्रत्येक नगर में निष्पक्ष और न्याययुक्त विचारों के व्यक्तियों की एक कमेटी या सभा का निर्माण किया जाय और वह ऐसे मामलों में बिना भय और पक्षपात के आन्दोलन करे। आरम्भ में अगर अनैतिक कार्य करने वाले एक-एक व्यक्तियों के विरुद्ध आवाज उठाना कठिन हो तो उस समुदाय का ही खुल कर विरोध करना चाहिये और जैसे-जैसे संगठन-शक्ति बढ़ती जाय बेईमान लोगों के मकान या दुकानों के सामने ही उनकी करतूतों का भंडाफोड़ करना चाहिये। ऐसे बेशर्म या दुस्साहसी व्यक्ति थोड़े ही होते हैं जो इस प्रकार की सार्वजनिक बदनामी या विरोध की तनिक भी परवा न करें और यदि ऐसे भी कुछ लोग हों तो समय आने पर उनके विरुद्ध भी कार्यवाही करने के अन्य तरीके निकाले जा सकते हैं। हमने तो ऊपर नमूने का एक कार्यक्रम बतलाया है, उत्साही और कर्मवीर व्यक्ति परिस्थिति और अवसर के अनुकूल विरोध करने के अनेक सक्रिय उपाय ढूंढ़ सकते हैं।

मूल बात यह है कि हम सचमुच अनैतिकता और बेईमानी के विरुद्ध हों। जो लोग दूसरों की मुनाफाखोरी या घूसखोरी का तो विरोध करते हैं पर अगर मौका लग जाय तो स्वयं वैसा ही कार्य करके धन बटोरने को लालायित रहते हैं, तो उनकी आलोचना या शिकायत का कोई प्रभाव कैसे पड़ सकता है? ऐसे लोग तो सबसे पहले दण्ड के पात्र हैं। हमको दूसरों की निन्दा तभी करनी चाहिये जबकि हमारी नीयत साफ हो और हम केवल व्यक्तिगत स्वार्थ से नहीं, वरन् समाज के हित का ख्याल करके अनैतिकता और भ्रष्टाचार का उच्छेद करने को कटिबद्ध हों!

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