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Magazine - Year 1959 - Version 2

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(स्वामी श्रीसदाशिवजी महाराज, प्रज्ञान मंदिर, अहमदाबाद)

आज समग्र विश्व में मानवता के लिये महान प्रयत्न किया जा रहा है, पर उसका परिणाम बहुत थोड़ा दृष्टिगोचर होता है। इसका कारण क्या है? इस विषय पर विचार करने से हम को जान पड़ता है कि संसार में दो प्रकार के मनुष्य पाये जाते हैं- एक तो वे जो व्यष्टि अथवा तुच्छ जीव भाव को केन्द्र मानकर व्यक्तिगत धन, मान, यश, प्रतिष्ठा इत्यादि ऐहिक सुखों की सफलता प्राप्त करने के लिये विहित अथवा अविहित, नैतिक अथवा अनैतिक, निन्दनीय अथवा अभिनंदनीय जैसा भी हो उपाय काम में लाते हैं। प्राणीमात्र जितने भी उपाय करते हैं उन सबका एकमात्र उद्देश्य यही होता है कि “मैं अधिक से अधिक सुख प्राप्त करूं।” इसका कारण यह है कि जीवमात्र आनन्द स्वरूप होते हैं। तैत्तिरीय संहिता में कहा गया है। “आनन्दण्द्हि एव खलु इमानि भूतानि जायन्ते अनन्देन जातानि जीवन्ति आनन्दं प्रत्याभि संविशन्तीति,” अर्थात् ‘समस्त प्राणीमात्र आनन्द में से ही उत्पन्न हुये हैं, आनन्द में ही जी रहे हैं, और सुषुप्ति’ (गाढ़ निद्रा) व मृत्यु के पश्चात् आनन्द में ही समा जाते हैं।” इस प्रकार प्राणीमात्र और आनन्द इन दोनों में कार्यकारण सम्बन्ध होने से सभी प्राणी आनन्द की इच्छा रखते हैं। इसमें एक शंका यह उत्पन्न होती है कि जब सब प्राणी आनन्द-स्वरूप ही हैं तो वे आनन्द को ढूँढ़ते क्यों फिरते हैं? इसका कारण यह है कि वे अपने स्वरूप को भूल गये हैं, पर उनमें जो आनन्दपन का मूल संस्कार है उसे नहीं भूल सके हैं। इसलिये वे इस जगत में तरह-तरह के भोगों को भोगते हुये सब में उसी संस्कार के प्रभाव से आनन्द को ही ढूँढ़ते रहते हैं। जब उनको एक वस्तु में आनन्द नहीं मिलता तब वे दूसरी वस्तु की इच्छा करते हैं, उसके लिये प्रयास करते हैं। जब उनकी इच्छा बहुत तीव्र हो जाती है तो विहित-अविहित कैसे भी उपाय से उस वस्तु को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं और उसका उपभोग करते हैं। उपभोग काल में उसे तात्कालिक तृप्ति का आनन्द भी प्राप्त होता है, पर यह आनन्द सापेक्ष होने से अधिक समय तक टिकता नहीं है। वे दूसरे किसी व्यक्ति को अपने से विशेष धनवान, विद्वान अथवा गुणवान देखकर अपने से अधिक सुखी समझते हैं और स्वयं भी वैसा ही होने का प्रयास करते हैं। संभव है वे अपने प्रयास में सफल होकर अधिक धनवान,विद्वान हो जायें, पर तो भी उनको वास्तविक और स्थायी सुख नहीं मिलता। तब वे निराश होकर देव, देवी अथवा शास्त्रों के सम्बन्ध में अश्रद्धावान बनकर अधिक दुखी हो जाते हैं।

यदि वास्तविक रूप से देखा जाय तो प्रत्येक प्राणी का ध्येय देव, देवी अथवा ईश्वर या शास्त्र नहीं है वरन् आनन्द है। प्रत्येक प्राणी को जिस प्रकार “आनन्द” प्राप्त हो सके वैसा ही आचरण वह करता है। जिसको खेलने में आनन्द मिलता है वह खेल करता है। इसी प्रकार धन, मान, यश, प्रतिष्ठा, विद्या, बुद्धि, छल−कपट, प्रपंच, चोरी, दगाबाजी, योग, जप, तप ध्यान, भजन, समाधि आदि उपायों में जिसे जिनके द्वारा आनन्द मिलता है वह उसी मार्ग से आनन्द की शोध कर रहा है और न्यूनाधिक परिणाम में आनन्द प्राप्त भी कर रहा है। पर वह उससे वास्तविक तृप्ति प्राप्त नहीं कर सकता वह अपने को कृतकृत्य अनुभव नहीं कर सकता।

इसका रहस्य यह है कि प्राणीमात्र आनन्द भोगने का जो प्रयास करते हैं वह केवल व्यष्टि जीव भाव को केन्द्र मानकर करते हैं। इस प्रकार एक ही समय में पृथ्वी के असंख्यों प्राणी पृथक-पृथक उपायों द्वारा एक ही “आनन्द” को प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं। प्राणीमात्र समष्टि की दृष्टि से, आत्मा की दृष्टि से एक ही है और जिस ब्रह्मस्वरूप ‘आनन्द’ को प्राप्त करने की वे चेष्टा करते हैं वह भी एक ही है। अब केवल ये प्राणी अपनी रुचि और संस्कार के अनुरूप जो प्रयास करते हैं वही भिन्न या पृथक होता है। शास्त्र की भाषा में इस बात को यों कह सकते हैं कि “कर्ता” (प्राणी) और “कर्तव्य” (आनन्द) तो एक ही हैं, केवल “कर्म” (उपाय या कार्यप्रणाली) में भेद है। जब तक इस भेद को दूर नहीं कर दिया जाता और कर्ता, कर्तव्य, कर्म में पूर्ण एकता स्थापित नहीं की जाती तब तक हजारों जन्म तक लाखों प्रकार के प्रयास करने पर भी शाश्वत सुख या आनन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती।

इस सम्बन्ध में जब विशेष विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि ‘कर्ता’ में कोई दोष नहीं है क्योंकि वह तो विशुद्ध आत्मा है। “कर्तव्य” भी आनन्द स्वरूप ब्रह्म होने से उसमें भी कोई दोष बतलाया नहीं जा सकता। इस लिये मुख्य दोष हमारे “ध्येय” का ही होता है। जैसा कहा जा चुका है अब भी जीव विभिन्न उपायों से अपनी योग्यता तथा रुचि के अनुसार अस्थायी आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। पर त्रुटि इतनी ही है कि उनके आनन्द की धारा बीच-बीच में टूट जाती है और तब उनको दुःख का अनुभव होता है। जो व्यक्ति, चाहे वह किसी देश, जाति व धर्म से सम्बन्ध रखने वाला क्यों न हो, इस आनन्द-धारा को अविच्छिन्न रख सकता है वह निश्चय ही सर्वश्रेष्ठ है और हम कह सकते हैं कि उसने परमात्मा को प्राप्त कर लिया है।

इस परब्रह्म रूपी आनन्द-धारा के टूट जाने का क्या कारण है? जैसा हमने बतलाया है अधिकतर प्राणी व्यष्टि आनन्द स्वरूप तुच्छ आनन्द को ही केन्द्र बनाकर विविध कर्म कर रहे हैं,- फिर चाहे वे कर्म साँसारिक सुखों के निमित्त हों और चाहे भक्ति आदि साधनों द्वारा स्वर्ग, बैकुण्ठ, कैलाश आदि प्राप्त करने का उद्देश्य हो, अथवा वेदान्त आदि ज्ञान-विज्ञान का अभ्यास करके मुक्ति प्राप्ति का लक्ष्य हो। ऐसे व्यक्तिवादी लोग चाहे कैसे भी भले, धर्मात्मा दिखाई दें, पर उनका दृष्टिकोण संकुचित होने से उन को बहुत कम परिमाण में आनन्द की प्राप्ति होती है। जिस प्रकार एक छोटे से प्याले में गंगाजल भरकर लाने वाला अपनी ही प्यास भली प्रकार बुझा नहीं सकता, वह दूसरों की तृष्णा क्या शान्त करेगा, उसी प्रकार केवल मात्र अपनी मुक्ति या बैकुण्ठ की ही कामना रखने वाले ‘धर्मात्मा’ चाहे वे कल्याण नहीं कर सकते, उनसे दूसरों की भलाई हो सकने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

उपरोक्त नियम के अनुसार संसार से जो व्यक्ति जितना अधिक ‘अहंभाव’ रखता है, अर्थात् अपने सुख-दुख, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क की चिन्ता रखता है, वह चाहे भले काम करने वाला हो या बुरे काम, चाहे विलासी हो और चाहे गृह त्यागी संन्यासी हो, चाहे भक्तिमार्गी हो और चाहे ज्ञानमार्गी हो, पर आध्यात्मिक दृष्टि से वह सबसे छोटा-क्षुद्र (शूद्र) समझा जायगा। इसके विपरीत जो व्यक्ति जितने अधिक अंशों में जाति, समाज, देश, राष्ट्र या विश्व को केन्द्र मानकर कर्म करता है उसका दायरा उतना ही बड़ा हो जाता है और आध्यात्मिक जगत में उसका दर्जा उतना ही उच्च माना जाता है। इन विभिन्न श्रेणी वालों को हम व्यक्तिवादी, समाजवादी, राष्ट्रवादी और विश्ववादी के नाम से पुकार सकते हैं अथवा मानसिक विकास की दृष्टि से इनको लघुमानव, मानव, महामानव, और अति-मानव भी कह सकते हैं।

इन चारों श्रेणियों में ‘व्यक्तिवादी’ सबसे अधम श्रेणी के होते हैं। जो व्यक्ति अपने जीवन-निर्वाह के लिये समाज से तरह-तरह से सहायता लेता हो पर समाज का हित-साधन करने में सबसे पीछे रहता हों, उससे नीच और कौन हो सकता है? वह उन पशुओं की तरह है जो घास और दाने को खाते ही नहीं, वरन् वहीं सो कर और टट्टी पेशाब करके खाद्य सामग्री को नष्ट भी करते हैं, इसी प्रकार व्यक्तिवादी श्रेणी का मनुष्य सदैव केवल अपने स्वार्थ पर ही दृष्टि रखता है और यदि अपने छोटे से स्वार्थ की पूर्ति के लिये समाज की बड़ी से बड़ी हानि भी होती हो तो भी परवाह नहीं करता।

वर्तमान समय में संसार में ऐसे व्यक्तिवादियों (क्षुद्र हृदय मनुष्यों) की संख्या ही अधिक है और प्रजातन्त्र प्रणाली के नियमानुसार वे ही शासन सभा के सदस्यों और शासकों का निर्वाचन करते हैं। यही कारण है कि आज समग्र विश्व में महान अंधाधुन्धी चल रही है और लोग अपने ही हाथ से अपने पैर में कुल्हाड़ी मारने को तैयार हो रहे हैं।

वर्तमान समय में राष्ट्रवादी, जातीयतावादी व्यक्ति भी काफी संख्या में हैं और वे संसार में सामाजिक न्याय की स्थापना करना चाहते हैं, पर व्यक्तिवादियों के विरोध और षड़यंत्रों के कारण उनको सफलता प्राप्त नहीं होती और संसार सर्वनाश की ओर अग्रसर होता जाता है। हमारे वैदिक ऋषि इस प्रकार की परिस्थिति से परिचित थे। इसी कारण उन्होंने मनुष्यों को आरम्भ से ही ऐसी शिक्षा दीक्षा देने की योजना बनाई जिससे उनकी अहंभाव युक्त मनोवृत्ति का अंत हो सके। गायत्री-मन्त्र , जो वेदों का सार माना गया है, इस सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से हमारा मार्गदर्शन करता है। आज भी हम उसके सन्देश पर आचरण करके इस महान आपत्ति काल से मानवता की रक्षा कर सकते हैं।

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