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Magazine - Year 1959 - Version 2

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हिन्दू जाति और उसका व्यावहारिक ज्ञान

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(स्वामी रामतीर्थ)

ऐक्य, ऐक्य, ऐक्य-देश में सबको एकता की आवश्यकता अनुभव हो रही है। पर ऐक्य स्थापित होने के बजाय हमारे देश में लाखों शक्तियाँ एक दूसरे का अनहित कर रही हैं और कोई सुफल उत्पन्न करने वाली शक्ति दिखाई नहीं पड़ती। करोड़ों मस्तिष्क लगे हुये हैं, करोड़ों हाथ काम कर रहे हैं, परन्तु यह नहीं मालूम होता कि किधर बहे चले जा रहे हैं। हजारों सम्प्रदाएँ और संस्थाएँ इस राष्ट्र की नौका को खेने का प्रयत्न अपनी-अपनी मति के अनुसार कर रही हैं, परन्तु नियमानुसार कोई कार्य होता दिखाई नहीं देता। मित्रो! नौका की बल्लियों को अपनी जगह जहाँ का तहाँ रहने दो, अपनी जगह भी मत छोड़ो, किन्तु सब मिलकर एक ही दिशा में खेते चलो। ऐसी ही एकता अर्थात् भिन्न-भिन्न होने पर भी एकता बनाये रखने से ही तरक्की होती है। इस तरह अपनी-अपनी जगह पर काम करते रहो और मल्हार गाते रहो, पर आगे बढ़ते चले जाओ। राष्ट्र का हित तुमसे यह कहता है कि तुम सबके हित में अपना हित समझो।

इस प्रकार का व्याख्यान दे लेना तो बहुत सहज है और बड़े-बड़े संत महात्माओं ने सैकड़ों वर्षों से हमको यही उपदेश दिया है, तो भी भारतवर्ष में आज भी प्रेम और एकता का इतना अभाव क्यों है?

मुसलमानी राज्य होने के पहले खुरासान देश के निवासी अलबरूनी नामक व्यक्ति ने समस्त भारत की यात्रा की थी। वह ज्ञान सम्पन्न, तत्वज्ञानी और बड़ा भारी पंडित था। उसने संस्कृत भाषा पढ़ी और हमारे धर्म शास्त्रों का अध्ययन किया। उसने इस देश को जैसा पाया उसका पूरा विवरण एक ग्रन्थ के रूप लिखकर छोड़ दिया। हिन्दू तत्वज्ञान, काव्य और ज्योतिष की वह बहुत प्रशंसा करता है और जिन पंडितों से वह मिला उनकी विद्वता की वह बहुत सराहना करता है। परन्तु स्त्रियों और सामान्य जनसमूह की शारीरिक और मानसिक स्थिति पर उसने बहुत शोक प्रकट किया है। उसने लिखा है कि नैतिक और धार्मिक रूप से वे महापतित और अनाथ हैं, और सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक टुकड़ों में बँटे हुए हैं। वे ठीक-ठीक विचार भी नहीं कर सकते । उनके शरीर बहुत दुर्बल हैं। उन मुसलमानों के सामने, जिनको लेकर महमूद गजनवी हर साल लूट-मार करने आया करता था, वे लोग कवायद न जानने के कारण रज कणों की तरह उड़ जाते थे।

इसके पश्चात् सम्राट बाबर ने भी यहाँ के निवासियों के विषय में ऐसी ही बातें लिखी हैं। वह लिखता है कि यहाँ के लोगों के प्रत्येक कार्य में चातुर्य,प्रवीणता और नवीनता की कमी है। इनके यहाँ न तो बगीचे हैं और न नहरें हैं, और यहाँ बारूद का कोई नाम भी नहीं जानता । ये लोग स्वतंत्रतापूर्वक एक दूसरे से मिलने के अयोग्य हैं।

यदि हम ऊपर के कथनों में से व्यक्तिगत द्वेष भाव की बातों को निकाल डालें, और जो कुछ बढ़ाकर कहा है उसे ठीक करलें, तो भी हमें शोक के साथ कहना पड़ता है कि इसमें बहुत कुछ सत्य है। व्यावहारिक ज्ञान की दरिद्रता ही से हमारे देश का अधःपतन हुआ और यही हमारी अवनति का कारण है।

यदि केवल शास्त्रार्थ करने की बात होती तो ‘राम’ भी औरों की तरह इन विदेशी इतिहास लिखने वालों के धुर्रे बहुत सुगमता से उड़ा सकता था। परन्तु प्यारो! उन्होंने तो सत्य और वास्तविक बात लिख रखी है, उसमें मैं ‘नहीं’ कैसे कर सकता हूँ । हमारी समस्त सामाजिक बुराइयों की जड़ व्यावहारिक ज्ञान की न्यूनता ही है। शारीरिक श्रम का तिरस्कार, जातियों और पंथों के अस्वाभाविक भेद, धर्म और सम्प्रदायों के कलहमूलक भेद, बाल विवाह, स्त्रियों पर लदा हुआ मानसिक और शारीरिक अन्धकार इत्यादि सभी दोष इसी व्यवहारिक ज्ञान की न्यूनता में शामिल हैं। इस सामाजिक अवनति को दूर करना बड़ा कठिन कार्य है। वर्क साहब ने एक बड़ी सुन्दर बात कही है कि “यदि तुम सुधार-कार्य को एक मनोविनोद का काम समझते हो तो तुमको उससे दूर ही रहना चाहिये।” इसका आशय यही है कि रूढ़ियों से छुटकारा पा सकना बड़ा भारी काम है। क्योंकि सच्चा कर्तव्यनिष्ठ पुरुष तो समाज और उसके कार्य कर्ताओं के दोषों को अवश्य दिखलायेगा, यदि आवश्यकता होगी तो उनकी निन्दा भी करेगा। इसलिये अनेक लोग उससे द्वेष-भाव रखने लग जाते हैं। वह कुछ कहता है और लोग उसके वाक्यों का अर्थ और कुछ निकालते हैं। पर क्या इस मतभेद के भय से हमको जैसी स्थिति है वैसे ही उसे रहने देना उचित है। क्या ‘यद् भवति तद् भवतु’ कहकर अपने स्वार्थ से ही काम रखना हमको शोभा देता है? क्या यह संभव है कि आप अपनी मोक्ष प्राप्ति की चिन्ता में लगे रहें और समाज को छोड़ दें,चाहे उसका कुछ भी हो? डूबने वाला समाज आपको अकेला कदापि नहीं छोड़ेगा। यदि समाज डूबता है तो तुम्हें भी उसके साथ डूबना पड़ेगा । यदि समाज उन्नति करता है तो तुम्हारी उन्नति भी अवश्य होगी। यह बात सर्वथा असम्भव है कि दूषित समाज में एक भी व्यक्ति दोष रहित और पूर्ण हो सके। समाज से अलग होकर किसी का तरक्की करने का विचार ऐसा ही है जैसा हाथ का शरीर से अलग होकर पूर्ण शक्ति प्राप्त करने की कोशिश करना।

वेद और उपनिषदों की शिक्षा के विपरीत ऐसा स्वार्थयुक्त विचार भारत में बहुत समय से फैला हुआ है। इसी के कारण समाज का अंग-अंग भी हो गया है और सोचनीय अवस्था भी हो गई है। हे भारत के होनहार नवयुवकों! हिन्दुस्तान का भविष्य काल तुम्हारा ही है और तुम्हीं उसके लिये उत्तरदाता हो। बहुमत के जादू में कायर लोग फँस जाते हैं। सत्य से भरा हुआ चैतन्य मनुष्य तो लोगों के विचार और अन्तःकरण पर राज्य करते हैं, नाममात्र के लिये बाहरी राजा कोई भी हो। बी. ए. और एम. ए. की पदवी तो तुम्हें विश्वविद्यालय में मिलती हैं, परन्तु क्रूर और शूर की पदवी तुम्हें स्वयं ही चुन लेनी होगी। सैकड़ों वर्षों से हमारे देश में द्वेषभाव और शून्यभाव से बड़ी हानि हो रही है और इसका मुख्य कारण लकीर का फकीर होना और मिथ्या बातों पर विश्वास करना ही है। चैतन्य आत्माओं का कर्तव्य है कि इस पुरानी तामसिक गति को हटाकर देश को शक्ति के मार्ग की तरफ अग्रसर करें। यह सत्य है कि जो समाज अपने पूर्वजों से पाई हुई वस्तु को त्यागकर देता है तो कोई बाहरी शक्ति उस समाज का नाश कर देती है। परन्तु साथ ही हमको यह भी ध्यान रखना चाहिये कि जो कुछ हमने अपने पूर्वजों से पाया है उसका बहुत आडम्बर न करें। क्योंकि जो समाज ऐसा करता है उसका नाश भीतर ही से हो जाता हैं।

आदर्श चरित्र में तो दुख का नाममात्र भी नहीं होता। वहाँ तो प्रेम और ज्ञान फैलाने वाली शाँति ही शाँति होती है। भला जिस समाज में ज्ञान का प्रकाश त्रासदायक प्रतीत होता है उसमें दुख रहित शाँति और प्रकाश कैसे साथ-साथ रह सकते हैं। यदि तुम्हारी प्रकृति ही ऐसी हो गई है कि आदर्श चरित्र का पालन नहीं कर सकते हो तो अपने चरित्र को बिल्कुल सरल और सत्य बनाओ। छोटे विचार वाले बड़े लोगों से किसी देश को बल प्राप्त नहीं होता बल्कि बड़े विचार वाले छोटे लोगों से देश का कल्याण होता है। पर शाँति कैसी हो ? जानवरों की सी काहिली भी शान्तिदायिनी मालूम होती है, श्मशान भूमि भी शाँतिमय दीख पड़ती है। पर हमको जीवित शाँति चाहिये, मरी हुई नहीं। जिस समय लोगों में अन्धकार फैला हो, लोग अँधेरे में ठोकरें खा रहे हों, उस समय अपने प्रकाश को एक डलिया के नीचे ढ़क रखना महापाप है। यदि तुम्हारे पास प्रकाश न होता तो तुमको इतना पाप न लगता। वह मनुष्य जो अपने शब्दों या कार्यों द्वारा दूसरों की सहायता कर सकता है, परन्तु ऐसे समय में भी चुप और उदासीन रहता है, वह उस सिपाही के सदृश्य पापी है जो अपनी जगह छोड़ देता है।

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