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Magazine - Year 1960 - Version 2

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गुरुजनों को श्रद्धाँजलि अर्पित करने का पर्व गुरु पूर्णिमा

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(डॉ. चमनलाल गौतम)

जन्म लेने के पश्चात् मनुष्य का बालक दूसरों पर आश्रित रहता है। वह स्वयं कोई भी कार्य नहीं कर सकता। बोलना, चलना आदि सभी कार्य उसे सिखाए जाते हैं। यदि उसका मार्गदर्शन और सहायता न की जाए तो वह अंधेरे में टटोलता ही रहेगा, वह किसी भी क्षेत्र में उन्नति नहीं कर सकेगा, पशुओं के सम्बन्ध में यह बात नहीं है। उनके बच्चे जन्म लेने के बाद फुदकने लगते हैं, दूध पीने का स्थान स्वयं ढूँढ़ लेते हैं, उनके दैनिक व स्वाभाविक कृत्यों के लिए किसी मार्ग-दर्शक व सहायक की आवश्यकता नहीं रहती हैं।

हिन्दू धर्म संसार के सभी धर्मों से श्रेष्ठ माना जाता है। बड़े शास्त्र, दर्शन, ब्राह्मण ग्रन्थ, स्मृतियाँ गीता, महाभारत, रामायण आदि साहित्य आज भी संसार को ज्ञान प्रदान कर रहे हैं जिससे वह अपने जीवन के स्वस्थ निर्माण का मार्ग निकाल सकें। हमारे तत्वदर्शी ऋषियों ने हजारों वर्षों की खोज और अनुभव के पश्चात् यह निर्णय किया था कि मनुष्य केवल आर्थिक उन्नति से सुखी नहीं रह सकता। उसका जीवन उत्तम गुणों से अलंकृत होना चाहिए, वह जीवन के तत्व, उद्देश्य व सार को समझे और उसी प्रकार का व्यवहार करें, स्वयं जिए और दूसरों को जीने दे, दीप बनकर स्वयं जले और दूसरों के अज्ञानांधकार को दूर करे, उनके सुख-दुःख को अपना ही सुख-दुःख समझे, यह मनुष्यता है यदि मनुष्य के जीवन ने यह व्यवहार धारण न किया तो यह पशु से बढ़कर माना जाएगा क्योंकि आहार, निद्रा, भय और मैथुन के चार कार्य तो पशु भी कर लेते हैं, मनुष्य में क्या विशेषता रही। मनुष्य को सच्चा मनुष्य बनने के लिए गुरु की नियुक्ति की जाती थी। जब बालक खुद समझदार हो जाता था तो वेदारम्भ कराने के लिए उसे गुरु के आश्रम में भेज दिया जाता था, गुरु उसे दीक्षित करके यज्ञोपवीत संस्कार कर मनुष्यता की सीढ़ियों पर चढ़ने के लिए मार्गदर्शन करता था। पूर्वकाल में गुरुजन आजकल की तरह वैज्ञानिक अध्यापक नहीं होते थे। वह अपने गृहस्थ के संचालन के लिए शिष्य के भोजन आदि की व्यवस्था वह आश्रम की ओर से कर देते थे। एक तो शिष्य को स्नेह और प्रेम की गंगा में स्नान करने को मिलता था। जीवन के अन्धियारे में प्रकाश की ज्योति मिलती थी, आर्थिक व्यवस्था की कोई चिन्ता नहीं रहती थी, स्वच्छ और उत्तम वातावरण में रह कर विद्याध्ययन करके अपने मस्तिष्क का विकास करता था, आदर्श जीवन के महान आदेशों को वह गुरु की साधारण पाठशाला में व्यवहारिक रूप से सीखता था। गुरुजन अपने सारे जीवन की कमाई शिष्य को देकर प्रसन्न होते थे कि यह ज्ञान दान की स्वस्थ परम्परा आगे भी इसी प्रकार चलती रहेगी। ताली दोनों हाथों से बजती है। पूर्वकाल में गुरु और शिष्य दोनों आदर्श महान होते थे। या यूँ कहना चाहिए कि गुरु अपने महान तप, त्याग, प्रेम, सेवा, निर्लोभता, निःस्वार्थता, संयम, सदाचार आदि सद्गुणों के कारण सबको जीत लेता था, अपना बना लेता था। उसके महान आदर्श को देखते हुए ही गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश की पदवी से विभूषित किया गया है। मनु भगवान ने तो विद्या को माता और आचार्य को पिता कहा ।

अज्ञानान्धस्य लोकस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।

चक्षुरुन्मीलितं येन तत्मै श्री गुरवे नमः॥

वह गुरु जो संसार रूपी अंधेरे में भटकते प्राणी को ज्ञान रूपी अंजन प्रदान करके उसके बंद हुए नेत्रों को खोल देता है, वह देवता नहीं तो क्या है, भोग विलास में पड़े हुए व्यक्तियों को संयम और विवेक का पाठ पढ़ाता है, गृहस्थ के जीवन में फँसे हुए अविवेकियों को जो अपने पावन कर्त्तव्यों को भूल चुकें हैं, मार्ग दिखाता है, जीवन मोड़ पर कठिनाइयों से घबराए हुओं को जो धैर्य देता है, जीवन से निराश होने वालों को जो आशा का अमृत पिलाता है, वह गुरु देवता नहीं तो क्या है। ऐसे गुरु-देवताओं को शिष्यगण श्रद्धांजलि अर्पित करके थे, जयन्ती मनाते थे, अपनी श्रद्धा के फूल चढ़ाते थे। उस दिन नये और पुराने सभी शिष्य एकत्रित होकर समारोहपूर्वक गुरु पूर्णिमा का पावन पर्व-उत्सव आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष को जो इस वर्ष 8 जुलाई 1960 को होगा मनाया करते थे। अपनी श्रद्धा के प्रतीक रूप में वह गुरु के लिये श्रेष्ठ भोजन, वस्त्र और धन अपने गुरु को भेंट रूप में देते थे। गुरु द्रव्य और पुष्प अर्पण करने वाले दोनों प्रकार के शिष्यों पर एक प्रकार समान स्नेह रखते थे, यही उनकी विशेषता भी।

पूर्वकाल में जैसे महान गुरु होते थे। वैसे ही शिष्य भी होते थे। खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग पकड़ता है। गुरु को देखकर शिष्य भी वैसा बनता जाता है गुरु के मन में ब्राह्मण तत्व, परोपकार सेवा की भावनाएँ विद्यमान रहती हैं तो शिष्य भी उन्हीं पदचिह्नों पर चलने लगता है। वह गुरु की आज्ञाओं का पालन करता है चाहे उसके शरीर का नाश तक क्यों न हो जाय। वह गुरु आज्ञा को ब्रह्म वाक्य मानता है। आरुणी अपने गुरु की आज्ञा मान कर सारी रात ठंडे जल के प्रवाह में लेट कर मेढ़ को रोके हुआ था। शिवाजी ने शेरनी का दूध लाने के लिये अपने जीवन को संकट में डाल दिया था। अर्जुन आदि पाण्डवों ने गुरु द्रोणाचार्य का बदला लेने के लिए द्रोपद पर चढ़ाई करके उसे परास्त कर के गुरु के सामने बंदी बना कर के लाए थे, भगवान कृष्ण अपने गुरु महर्षि गर्ग के पुत्र को दूसरे लोगों से लेकर आये थे और उनकी इच्छा को पूर्ण किया था, हरिश्चंद्र ने विश्वामित्र को राष्ट्र-हित के लिए अपना सारा राज-पाट दे दिया, राजा दशरथ ने गुरु वशिष्ठ की आज्ञा से महर्षि विश्वामित्र को यज्ञ की रक्षा के लिए, राक्षसों को मारने के लिए, अपने हृदय के टुकड़ों राम और लक्ष्मण को दे दिया था, ऐसे भी शिष्य हुए जो गुरु के पास, ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने के लिए आए थे परन्तु गुरु ने उन्हें गाए चराने के लिये आज्ञा दी तो उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया और कर्त्तव्य पालन करते हुए उन्होंने अभीष्ट ज्ञान सिद्धि प्राप्त की। गुरुजनों के विश्वास पर शिष्य महान शक्तियाँ प्राप्त कर लेते थे। एकलव्य का उदाहरण एक उज्ज्वल प्रमाण है।

इस गुरु शिष्य परम्परा को चलाए रखने कि लिए ही यह गुरु पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है। इसके अनेक लाभ हैं। यह एक माना हुआ सिद्धाँत है कि जनता जिस वस्तु को महत्व देती है। लोगों का झुकाव उसी और हो जाता है। आज के युग में धन की महत्ता बहुत बढ़ गई तो धनवान लोग उचित या अनुचित कैसे भी धन बटोरना चाहते हैं। बेईमानी धोखेबाजी, भ्रष्टाचार, रिश्वत, का कारण है। जब हमारे देश में तपस्वियों का मान था तो घर में तपस्वी उत्पन्न होते थे। जब शारीरिक शक्ति की मान्यता थी तो अर्जुन, भीम जैसे महारथी निकलते थे। राष्ट्र की चारित्रिक उन्नति के लिए सच्ची विद्या के प्रसार की आवश्यकता है यह तभी सम्भव होगा जब विद्या का सम्मान होगा। विद्वानों की पूजा होगी, लोग विद्याध्ययन की ओर झुकेंगे। जनता फिल्म अभिनेताओं और अभिनेत्रियों का सम्मान करती है तो नवयुवक और नवयुवतियाँ घर भाग कर भी वह बनने की चेष्टा करते हैं आज विद्यार्थियों में उद्दण्डता अनुशासनहीनता व दूषित वातावरण के कारण अन्य भी हो सकते हैं परन्तु उनमें से एक अध्यापकों का वह महान आदर्श उपस्थित न करना भी है। सार यह कि विद्यावानों का जितना हम सम्मान करेंगे उतने ही विद्वान बढ़ेंगे और देश की उन्नति होगी यह हमारा कर्तव्य है। इसी को एक प्रकार के यज्ञ के अर्थों में एक देव पूजा भी है। देव तुल्य महापुरुषों की पूजा-सम्मान करना। इस यज्ञ को बन्द नहीं होने देना चाहिये, अन्यथा यह परम्परा ही लुप्त हो जाएगी। आज हम बड़ों का सम्मान करते हैं तो कल दूसरे हमारा सम्मान करेंगे। यह उत्तम शिष्टाचार की परम्परा चलती जाएगी। यह केवल गुरुओं तक ही सीमित नहीं है वरन् घर, के बड़ों पर भी लागू होती है। माता, पिता, सास आदि की पूजा का सम्मान, उनके नित्य प्रति चरण स्पर्श की प्रतिज्ञा लेना भी उच्च श्रेष्ठ परम्परा है जिसे चालू करना चाहिए। इससे हमारे गृहस्थ में सुख शान्ति का साम्राज्य स्थापित होगा। बच्चे अपने माता, पिता व गुरुओं की आज्ञाओं का पालन करेंगे। उद्दण्डता और अनुशासनहीनता कम होगी।

गायत्री परिवार एक आदर्श संस्था है। उसे यह पर्व धूम धाम से मनाना चाहिये। इस पर्व को व्यास पूजा भी कहते हैं। उयोसडडडडड शब्द से देर अध्यापक का अर्थ निकलता है। इस दिन हमें अध्यापकों उपदेशकों व मन्त्र देने वाले गुरुओं का पूजन व भेंट रूप में सम्मान करना चाहिए। यह पूजा उपस्थित विद्वानों और चित्र से भी हो सकती है। महर्षि व्यास के चित्र व खड़ामों की पूजा भी होनी चाहिए। अभी गुरु पूर्णिमा को एक महीने से भी अधिक समय है। उसके लिए अभी तैयारी करनी चाहिए ताकि अधिक से अधिक व्यक्ति इस में भाग लें उस समय पूजा के अतिरिक्त सभा सम्मेलनों का भी आयोजन करना चाहिए। जहाँ विद्वानों का अभाव हो वहाँ यह लेख भी पढ़कर सुनाया जा सकता है। सभी उपस्थित व्यक्ति यों में अपने बड़ों के चरण स्पर्श करने के संकल्प लेने चाहिए। इस प्रकार के संकल्प करने चाहिए कि वह अमुक संख्या में लोगों से इस प्रकार के संकल्प होंगे। इस प्रकार से गायत्री परिवार के प्रत्येक सदस्य का कर्त्तव्य है कि वह इस दिन अपनी श्रद्धांजलि भेंट करें।

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