
कार्य कुशलता का गुण तथा उससे लाभ
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(श्री रामखेलावन चौधरी, बी. ए.)
प्रायः लोगों को यह कहते हुए पाया गया है कि आज की दुनिया में विशेष-ज्ञान सफलता के लिए परमावश्यक है। नये-नये वाणिज्य, व्यवसाय उत्पन्न हो रहे हैं, कार्य-प्रणाली को सीखने के लिए विशेष प्रयत्न करना पड़ता है। उदाहरण के लिए बिजली का काम लीजिये। बिजली से अनेक प्रकार के काम लिए जाते हैं और किसी न किसी रूप में बिजली का प्रयोग मशीनों को चलाने में होता है। सड़क पर चलने वाला हर एक आदमी बिजली का काम नहीं कर सकता। यदि वह करने का प्रयत्न करता है तो असफल होगा ही, साथ वह अपने लिए संकट को भी आमन्त्रित करेगा। जरा भी चूका कि प्राण से हाथ धोना पड़ा। इन सब बातों को देखते हुए, यह कहा जाता है कि सफलता प्राप्त करने के लिए विशेष ज्ञान या जिसे प्रविधिक ज्ञान कहते हैं, की आवश्यकता है। यदि ऐसा ज्ञान प्राप्त हो जाय, तो तुरन्त ही धन कमाने और उन्नति करने का साधन हमारे हाथ आ जायगा। इस विचार धारा के आगे कार्यकुशलता जैसे चारित्रिक गुण की महत्ता की ओर बहुत कम लोग दृष्टिपात करते हैं। यह ठीक है कि प्रविधिक ज्ञान सफलता की कुँजी है परन्तु कार्यकुशलता के अभाव में वह ज्ञान फीका पड़ जाता है। ऐसे बहुत से लोग हैं, जिन्हें प्रविधिक ज्ञान है, परन्तु वे उन्नति नहीं कर पाते क्योंकि उन्होंने प्रविधिक के साथ कार्यकुशलता का गुण अपने में उत्पन्न करने का कोई प्रयत्न नहीं किया।
प्रविधिक ज्ञान प्राप्त कर लेने से मनुष्य केवल किसी टेढ़े-मेढ़े काम को करने की प्रक्रिया को समझ लेता है, परन्तु वह उस कार्य को उत्तम से उत्तम ढंग से नहीं कर पाता। इस उत्तमता का प्रतिमान क्या है? यदि कोई मनुष्य किसी काम को अन्य लोगों की अपेक्षा में, कम शक्ति करके पूरा कर लेता है, परन्तु कम की मात्रा और उसकी सुन्दरता उन लोगों के नाम की मात्रा और सुन्दरता से अधिक हो, तो इस प्रतिमान के सहारे हम बता सकते हैं कि वह मनुष्य उत्तम ढंग से काम करता है। इसी को दूसरे शब्दों में कार्यकुशलता कहते हैं।
कार्यकुशलता एक उत्तम गुण है जिससे प्रत्येक व्यक्ति का थोड़े से समय में ही प्रत्यक्ष लाभ होता है। उसके साथ-साथ समाज का भी लाभ होता है आज के औद्योगिक युग में तो यह गुण अत्यन्त महत्व का है। जिस देश में कार्यकुशल नागरिक जितनी अधिक संख्या में होंगे, उतना ही वह देश उन्नति करेगा। वहाँ से हर प्रकार का अभाव दूर होगा क्योंकि कार्यकुशलता नागरिक जीवनोपयोगी वस्तुओं का उत्पादन आवश्यकता से अधिक बढ़ाते हैं। ऐसे ही देशों में घी-दूध की नदियाँ बहती हैं। कार्यकुशलता से ही ज्ञान-विज्ञान की भी उन्नति होती है। रूस, अमेरिका तथा अन्य उन्नतिशील देशों का उदाहरण हमारे सामने है। जब मनुष्य अपनी कार्यकुशलता बढ़ाना चाहता है, तो वह ऐसे साधनों का विकास करता, जिनकी सहायता से काम करने में कम शक्ति और कम समय खर्च हो। इस प्रयत्न द्वारा ही बड़े-बड़े आविष्कार हुए हैं। रेल-तार, हवाई जहाज, मोटर तथा इसी प्रकार के उपयोगी आविष्कार उन्हीं लोगों ने किये हैं, जिनमें कार्यकुशलता का गुण वर्तमान था। इस प्रकार उन्होंने अपनी भावी पीढ़ी को असीम लाभ पहुँचाया और स्वयं भी अपने जीवन में ही प्रसिद्धि प्राप्त करके इतिहास में अमर हो गये।
अब हमें इस बात पर विचार करना है कि यह कार्यकुशलता का गुण कैसे उत्पन्न हो। सबसे पहले हमें अपने मन से विचार का उन्मूलन करना होगा कार्यकुशलता एक दैवी गुण है। वास्तव में यह एक अर्जित गुण है, जिसे मनुष्य अपने जीवन काल में ही अभ्यास से प्राप्त कर सकता है। कार्यकुशल बनने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य अपने कार्य में रुचि ले। जो लोग मन मारे, उत्साह हीनता के साथ काम करते हैं वे कभी भी कार्यकुशल नहीं बन सकते। आपने यदि अपने लिए किसी ऐसे काम का चुनाव कर लिया है, जिससे आपका चित्त नहीं लगता, तो आप अपनी भूल को तुरन्त सुधार लीजिये। सवेरे का भटका यदि शाम को घर वापस आ जाय तो वह भूला नहीं कहलाता। भूल सुधारने में लज्जा किस बात की। आप अपने काम को अपनी रुचि के अनुसार बदल दें। अन्यथा न आपका अपने कार्य में जी लगेगा, न कार्यकुशलता आयेगी और न आप उन्नति कर सकेंगे।
बहुत से लोगों को अपनी रुचि के अनुसार काम मिल जाता है, फिर भी वे कार्यकुशल नहीं बन पाते क्योंकि उन्हें अपना कर्म करने में आनन्द का अनुभव ही नहीं होता। यह आनन्द की अनुभूति कैसे हो, यदि वे अपने कार्य में तल्लीन होना नहीं जानते। कार्य के साथ एकाकार होने में जो आनन्द आता है, उसे आप दो चार दिन या एक सप्ताह तक निरंतर अनुभव करें। फिर तो आपको उस काम के करने की चाट पड़ जायगी। बिना काम, किये आप रह न सकेंगे। वास्तव में आप काम, आराम और मनोरंजन के भेदभाव को भूल बैठेंगे। आपको अपना काम करने में भी आराम मिलेगा और उसी से आपको मनोरंजन भी प्राप्त होगा। यदि ऐसी भावना मनुष्य में उदय हो जाय तो फिर वह कार्यकुशल अपने आप बन जायगा। इस समय सामान्य समाज में एक बड़ी ही दूषित मनोवृत्ति घर करती जा रही है। अपने पद पर जो लोग कम काम करते हैं, उन्हें बुद्धिमान कुशाग्र बुद्धि समझा जाता है। कर्म करने वाले उत्साही जनों को तेली का बैल कहते हैं। यह भावना लगभग उस चींटी की भावना के समान है, जो घोड़े की लीद में पकड़कर उसे ही शक्कर समझ बैठती है। क्या इस भावना से काम करने वाले लोग कभी कार्यकुशल हो सकते हैं? उनसे क्या देश और समाज का लाभ हो सकता है? वास्तव में ऐसी भावना रखना एक भीषण समाज विरोधी अपराध करार दिया जाना चाहिए और ऐसे लोगों को कड़े से कड़ा दण्ड दिया जाना चाहिए। खेद है कि हमारा समाज ऐसे लोगों की सराहना करता है। तभी तो हम अन्य राष्ट्रों की तुलना में पिछड़े हुए हैं।
अपने में कार्यकुशलता का गुण पैदा करने के लिए केवल भावना का सहारा लेना ही पर्याप्त नहीं है। मनुष्य का ध्यान कार्य-प्रणाली की ओर भी रहना चाहिए। जो लोग अपने से पहले वाले लोगों की घिसी-पिटी कार्य-प्रणाली अपना लेते हैं और उसी तरह काम करते रहते हैं, उनकी कार्यकुशलता बढ़ नहीं सकती। काम के अंग-प्रत्यंग के विषय में सब सोचना चाहिए और इस बात पर भी ध्यान रखना चाहिए कि उस कार्य के अमुक अंग को किस नयी विधि द्वारा किया जा सकता है। यदि कार्य-प्रणाली में कुछ आवश्यक परिवर्तन समझ में आवे तो उसका प्रायोगिक ढंग से व्यवहार करना चाहिए और उस प्रयोग के फलस्वरूप यदि काम सुविधा से हो या शक्ति और समय की बचत हो, तो उस विधि का अपना लेना चाहिए। वास्तव में यह भी एक आविष्कार है, जो साधारण होते हुए भी व्यापक परिणाम उत्पन्न कर सकता है। नयी कार्य प्रणाली अपनाने वाला व्यक्ति अपनी कार्य को विधिपूर्वक करते हैं, वे अवश्य सफल होते हैं। अतः कार्यकुशलता बढ़ाने की ओर प्रत्येक व्यक्ति का ध्यान रहना ही चाहिए।