
प्रार्थना का महत्व
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
प्रार्थना मेरे जीवन का ध्रुवतारा है। एक बार मैं भोजन करना छोड़ सकता हूँ किन्तु प्रार्थना नहीं। आत्मा को परमात्मा में लीन करने का एकमात्र साधना प्रार्थना ही है। - (महात्मा गाँधी)
सत्य की भाँति प्रार्थना भी गाँधीजी के जीवन का एक अंग बनकर रही है, जो उक्त वाणी से स्पष्ट ही है। ये प्रार्थना का महत्व भली−भांति समझते थे। प्रार्थना से उन्हें नवशक्ति प्राप्त हुई थी जिसके द्वारा उन्होंने अपना और लोगों का कल्याण किया। उनके जीवन रूपी समुद्र में जब-जब ज्वारभाटा उठा तब-तब प्रार्थना द्वारा शक्ति से उसे नष्ट करने में समर्थ हुये और अपने स्थान पर ध्रुव की भाँति अटल और अचल रहे। बिना प्रार्थना किये वे रह ही नहीं सकते थे। प्रार्थना के प्रति उनके मन में प्रगाढ़ श्रद्धा थी। इन विषयों पर उन्होंने एक स्थान पर लिखा है-ईश्वर-प्रार्थना ने मेरी रक्षा की । प्रार्थना के आश्रय बिना में कभी का पागल हो गया होता । मेरी ऐसी अवस्था हो गई कि मुझे प्रार्थना के बिना चैन पड़ना कठिन हो गया। ईश्वर में मेरा विश्वास ज्यों-ज्यों बढ़ता गया, प्रार्थना के लिये मेरी व्याकुलता भी उतनी ही दुर्दमनीय हो गई । प्रार्थना के बिना मुझे जीवन नीरस एवं शून्य प्रतीत होने लगा। प्रार्थना की महत्ता का जितना वर्णन किया जाय, थोड़ा है। उसकी शक्ति अपरिमित है, अव्यर्थ है इस कलियुग में मानव के लिये प्रार्थना ही एक सहज और सुगम साधन है जिसके द्वारा मनुष्य जीवन संग्राम में विजयी होकर अपने परम लक्ष्य परमात्मा का साक्षात्कार कर सकता है। मनुष्य का जीवन संघर्षमय है। उसके अंतराल में सदैव देवासुर संग्राम चला करता है। इस संग्राम के चलते रहने का नाम जीवन है। इस परिस्थिति में मुक्ति प्राप्त करना असंभव तो नहीं, परन्तु कठिन अवश्य है।
प्रार्थना द्वारा संग्राम में सुयोग्यता से विजय प्राप्त की जा सकती है और देवी सम्पदा का स्वराज्य स्थापित किया जा सकता है। दैवी सम्पदा मोक्ष प्रदायिनी होती है तथा आसुरी सम्पदा हमें बन्धनों में जकड़े रखती है। गीता में कहा गया है :-
दैवी सम्पदा विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मनुष्य की आत्मा युगों-युगों से नाना प्रकार की योनियों में भटकती चली आ रही है और सुख की खोज में तड़प रही है। परन्तु उसे सुख नहीं प्राप्त हो रहा है। इस संसार में जितने प्राणी हैं, जब सुख की ओर दौड़ रहे हैं, परन्तु किसे भी सुख की प्राप्ति होती नहीं दिखाई दे रही है। गरीब से लेकर अमीर, पदाधिकारी, मन्त्री, राज्यपाल अथवा किसी भी सर्वोच्च अधिकार प्राप्त व्यक्ति की ओर ध्यान दें परन्तु आपको इनमें कोई भी सुखी नहीं दिखाई देखा। आप यदि उसके अन्तराल में ठहर कर देखेंगे तो आपको पता चल जाएगा कि उसमें कहीं न कहीं कष्ट रूपी चिंगारी जल रही है। पशु पक्षी, जानवर आदि के बारे में तो यह कहना होगा कि वे भी दुःखी नहीं है।
भले ही मनुष्य बुद्धि-प्रधान माना जावे परन्तु इस विषय में तो वह शिशु जैसा अबोध है, क्योंकि वह सुख की खोज संसार में कर रहा है हीरे की खोज नदी और नालों में कर रहा है। परन्तु वहाँ भी उसे प्राप्त होने वाला नहीं। क्योंकि पानी की बूँद जब तक सागर में नहीं मिल जाती तब तक वह शान्ति प्राप्त नहीं कर सकती। उसी प्रकार हमारी प्रार्थना भी परमात्मा में लीन हुए बिना सुख शांति नहीं पा सकती।
मनुष्य को निज स्वरूप का ज्ञान न होने के कारण उसे प्रायः पाशविक वृत्तियों में रमण करने की आदत हो गई है जिससे उसकी आत्मा पर कुसंस्कारों का भार हो गया है। जब तक यह भार निर्मूल नहीं हो जाता तब तक सुख की प्राप्ति असंभव है। हमारे सन्त और शास्त्र बतलाते हैं कि सुख और शान्ति के भण्डार तो सर्वेश्वर भगवान् ही हैं। यह संसार तो अशान्ति का ही साम्राज्य है। इसमें सुख कहाँ ?
अतः सुख प्राप्त करने के लिये हमें अपने अन्तःकरण में जमे हुए कुसंस्कारों को निर्मल कर देना होगा। इन संस्कारों को नष्ट करने के लिये प्रार्थना ब्रह्मास्त्र का काम करती है। जिस प्रकार शरीर का सम्बन्ध भोजन से है, उससे कई अधिक गुना संबंध आत्मा का प्रार्थना से है। भोजन से शरीर हृष्ट-पुष्ट, बलवान बनता है, उसी प्रकार प्रार्थना से हमारी आत्मा दृढ़ और बलिष्ठ बनती है। बलवान आत्मा ही प्रभु का साक्षात्कार करने में समर्थ है।
भगवान कभी भी यह नहीं चाहते कि हम प्रतिदिन उनकी प्रार्थना करके हमारी शरणागति का हवाला उनके सामने प्रस्तुत करें। परंतु यह हमारा परम कर्त्तव्य हो जाता है क्योंकि परमात्मा ने हम पर अकारण कृपा करके यह अमूल्य मानव-देह प्रदान किया है। इसलिये हम पर उनका बहुत बड़ा उपकार है। हम पर किए गये इस उपकार के प्रति हमें ईश्वर का कृतज्ञ होना चाहिये। मानव का यही स्वभाव है, यदि हम ऐसा नहीं करते तो हम मानव नहीं अपितु दानव हैं, बल्कि यह भी कहा जाय कि नमक हराम हैं, तो कोई अत्युक्ति न होगी। ऐसे लोगों की निन्दा करते हुए गीता में कहा गया हैं।
आसुरी योनि मापन्ना मूढ़ा जन्मनि जन्मनि।
माम प्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्य धमाँ गतिम्॥
इस सब बातों को देखते हुये प्रार्थना आवश्यक नहीं, अनिवार्य भी है। यदि हम अपना जीवन सुख-शान्तिमय बनाना चाहते हैं तो प्रतिदिन ईश्वर प्रार्थना करनी चाहिये। इस विषय में स्वामी श्रीकृष्णनन्द जी ने कितना ही अच्छा कहा है। प्रार्थना कीजिये। अपने हृदय को खोलकर कीजिये। अपनी टूटी-फूटी लड़खड़ाती भाषा में ही कीजिये, भगवान सर्वज्ञ हैं। वे तुरन्त ही आपकी तुतली बोली को समझ लेंगे। प्रातःकाल प्रार्थना कीजिये, मध्याह्न में कीजिये, संध्या को कीजिये, सर्वत्र कीजिये और सभी अवस्थाओं में कीजिए। उचित तो यही है कि आपकी प्रार्थना निरन्तर होती रहे। यही नहीं आपका सम्पूर्ण जीवन प्रार्थनामय बन जाय।
हृदय से प्रार्थना करने का तात्पर्य है कि हमें श्रद्धा−विश्वास सहित ईश्वर से प्रार्थना करना चाहिये। क्योंकि बिना श्रद्धा-विश्वास के हार्दिक प्रार्थना हो ही नहीं सकती। श्रद्धा-विश्वास विहीन प्रार्थना का कोई मूल्य नहीं है। बिना श्रद्धा-विश्वास के हमारा हृदय गूँगे के समान होता है, जो बोल नहीं सकता।
गोस्वामी तुलसीदास, भक्त प्रवर सूरदास, दीवानी मीरा, श्री नरसी मेहता, गजराज आदि भक्तों की गाथाएं आज भी प्रार्थना की महत्ता का परिचय दे रही हैं। जब-जब इन भक्तों को कष्ट का सामना करना पड़ा, तब-तब इन्होंने प्रार्थना की शक्ति से ही उसका सामना करके सफलता प्राप्त की ओर अपने जीवनलक्ष्य परमात्मा का दर्शन किया। अतः हमें प्रतिदिन ईश्वर-प्रार्थना करने का विषय बना लेना चाहिये। जिसके द्वारा हम परमात्मा का साक्षात्कार कर अपने जीवन को सफल बनावें।