
व्यावहारिक आध्यात्मिकता
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(सन्त विनोबा)
इन दिनों ‘इन्टर काँटिनेंटल वैलीस्टिक मिसाइल’ नामक आग्नेयास्त्र का ईजाद हुआ है। उससे जैसे वह जगह बैठ कर सारी दुनिया को आग लगा सकता है वैसे ही एक जगह बैठ कर सारी दुनिया में शान्ति कायम करने का दुनिया को बचाने की तरकीब हमें ढूँढ़नी चाहिए। वह एक जगह बैठ कर कंट्रोल्ड मिसिलो भेज सकता है, उसे कहेगा कि न्यूयार्क या वाशिंगटन पर जाकर गिरो, तो वह मिसाइल वहाँ जाकर ठीक उसी एंगल (कोण) में, हुक्म के मुताबिक गिरेगा। इस तरह घर बैठे दुनिया को आग लगाने की ताकत विज्ञान ने ईजाद की है, वहाँ आपको ऐसी ताकत ढूँढ़नी चाहिए कि घर बैठे दुनिया को प्रभावित कर सके।
वह ताकत आध्यात्मिक के सिवाय दूसरी कोई नहीं हो सकती है। इसलिए ‘स्पिरिच्युआलिटी’, रुहानियत, आध्यात्मिकता इस जमाने की माँग है उसके बिना मुक्ति मुमकिन नहीं है। मैं व्यक्तिगत मुक्ति की हो नहीं, बल्कि सारे समाज की नजात की बात करता हूँ। इसलिए मैं कहता हूँ कि पुराने जमाने में हम किसी एक विषय पर भावना पैदा करते जाते थे। उस पुरानी मन की भूमिका पर काम करने से कोई मसला हल नहीं होगा। इसलिए अब हमें भारत की पुरानी कुवत, ताकत, जो रुहानियत में है, उसे बाहर लाना होगा उसी ताकत से कश्मीर के, हिन्दुस्तान के और दुनिया के मसले हल होंगे।
मैंने आपके सामने जो चार बातें रखीं, उनके मूल में हमारा भारतीय चिंतन है, जिसमें ब्रह्मविद्या आती है। उन चार बातों में पहली बात यह थी कि राजनीति की जगह लोक नीति चले। इन्डायरेक्ट डेमोक्रेसी की डायरेक्ट डेमोक्रेसी, पीपल्स डेमोक्रेसी चले। दूसरी बात यह थी कि हवा, पानी और सूरज की रोशनी के जैसे जमीन भी सबके लिए हैं, उसकी मलकियत नहीं हो सकती है। तीसरी बात यह थी कि आपको शान्ति-सेना कायम करनी होगी, मर मिटने के लिए राजी होना होगा हर हालत में मारने के लिए जाने वाले सिपाही को भी मर मिटने के लिए तैयार होना ही पड़ता है। वह ऐसी प्रतिज्ञा नहीं कर सकता है कि मैं मारूंगा, लेकिन मरूंगा नहीं। इसलिए हमें एक ठंडी ताकत पैदा करनी होगी और उसके लिए हर घर की संपत्ति हासिल करनी होगी। चौथी बात यह थी कि कुल दुनिया का आज का ढाँचा बदलना पड़ेगा। उसके बिना दुनिया आगे नहीं बढ़ सकती है।
आज मैंने उन सबके मूल में जो ब्रह्मविद्या है, उसकी तरफ आपका ध्यान खींचा है। वह पुरानी ब्रह्मविद्या नहीं है। अभी मुझे एक भाई मिले, जो पाँच साल पहले मिले थे। वे आध्यात्मिक क्षेत्र में काम करते हैं। मैंने उनसे पूछा कि आपने क्या काम किया, तो उन्होंने कहा कि ध्यान करता था, मैंने कहा इसमें क्या ब्रह्मविद्या हुई? जैसे काम करने की ताकत होती है, वैसे ध्यान की भी एक ताकत होती है।
जैसे कोई काम करने की ताकत बढ़ाता है, तो क्या यह कहा जायेगा कि वह अध्यात्म में आगे बढ़ा है? वैसे ही किसी एक विषय पर एकाम होना, मैं एक ताकत समझता हूँ। इसमें रुहानियत कहाँ है? जो बड़े-बड़े वैज्ञानिक होते हैं, उनका दिमाग दूसरी बात सोचता ही नहीं, उसी पाइंट, (बिंदु) पर सोचता है। मेरी ही मिसाल लीजिए । मुझे एकाग्रता के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता है, मुझे चारों ओर ध्यान हो तो उसी में तकलीफ होती है। कुछ लोगों की ऐसी हालत होती है कि वे किसी कोठरी में गये तो अपनी आँख से पचास चीजें देख लेते हैं, लेकिन मैं किसी जगह पहुँचा, तो मुझे पता ही नहीं चलता है कि वहाँ क्या-क्या है। मुझे ध्यान के लिए एकाग्रता के लिए कुछ भी मेहनत करनी नहीं पड़ती है। लेकिन एकाग्रता हो गई तो क्या आध्यात्मिक स्थिति बदल गयी, रुहानियत आ गयी?
एकाग्रता तो एक मामूली ताकत है। लेकिन हम लोगों में एक गलतफहमी बैठी है। कोई किसी एकाँत में, गोशै में, गुफा में गया, तो हम समझते हैं कि आध्यात्मिकता आयी। लेकिन मुझे लगता है, लोगों में रहने से क्यों घबड़ाते हैं और ऐसी गुफा में बैठते हैं, जहाँ न हवा है, न रोशनी है, बदबू भी होती है। मैंने एक स्वामीजी की गुफा देखी । जहाँ उनकी समाधि लगती थी, वहाँ इतना अंधेरा था कि मैं तो हैरान हो गया। इस जमाने का समाधि लगाने वाला जो महापुरुष होगा, वह अंधेरे में नहीं जायेगा। बंगाल में विष्णुपुर में एक तालाब के किनारे बैठकर रामकृष्ण परमहंस की समाधि लगी थी, उसी स्थान पर बैठकर मैंने बड़ी नम्रता से कहा था कि रामकृष्ण ने जो काम शख्यी, निजी, व्यक्तिगत समाधि का किया था, वही काम सामाजिक तौर पर सामाजिक समाधि का मैं करना चाहता हूँ।
जो समाधि व्यक्ति को हासिल हुई, वही सारे समाज को हासिल हो। रामकृष्ण ने गुफा में बैठकर, अंधेरे में समाधि लगाने की कोशिश नहीं की, बल्कि बिल्कुल खुली हवा में कुदरत में, आसमान के नीचे बैठकर कोशिश की। उन्हें किसी चीज का डर नहीं था। जो कुदरत से, खुली हवा से, इन्सान से डरता है और दूर किसी गुफा में जाकर कहता है कि अब मेरा ध्यान लगता है, वह इतना टूटा-फूटा मन लेकर क्या करेगा? जरा कहीं खट आवाज हुई, चिड़िया फड़फड़ायी तो इनका ध्यान उधर जाता है। इस तरह गोशे में जाकर ध्यान-चिंतन करने की जो पुरानी बात थी, उसे मैं ब्रह्मविद्या नहीं मानता हूँ।
ब्रह्मविद्या के माने हैं, आपका और मेरा दिल एक हो और आप सबके लिए मेरे मन में उतना ही प्यार हो, जितना प्यार मुझे अपने लिए है। मुझमें और दूसरों में कोई फरक, भेद नहीं है, इसका जिसे एहसास हुआ, उसे ब्रह्मविद्या का स्वाद चखने को मिला। इसी ब्रह्मविद्या की तरफ इन दिनों मेरा सारा ध्यान है।