
अष्टग्रही और उसके बाद
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अष्टग्रही योग ता . 5 को और सप्तग्रही योग ता. 9 फरवरी को समाप्त हो गया। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार इस अवसर पर गायत्री−तपोभूमि में नौ दिन का एक छोटा आयोजन होने के साथ−साथ वसन्त−पञ्चमी के दिन युग−निर्माण का सत्संकल्प किया गया और उसकी विधिवत घोषणा की गई।
युग परिवर्तन का सन्देश
हम निरन्तर यह घोषणा करते रहे हैं कि अष्टग्रही का पुण्य पर्व युग−निर्माण का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण सन्देश लेकर आ रहा है। यह ठीक है कि वीर पुरुष समय को बदल देते हैं, उनका प्रचंड आत्मबल, साहस, पुरुषार्थ और ज्वलन्त भाव प्रवाह इतना शक्तिशाली होता है कि करोड़ों व्यक्ति उन्हीं की तरह विचार करने लगते हैं। भगवान बुद्ध, ईसामसीह, महात्मा गाँधी, कार्लमार्क्स आदि कितनी ही आत्माऐं इन पिछले दो हजार वर्षों में ही ऐसी हुई हैं जिनने करोड़ों मस्तिष्कों को अपनी ही तरह सोचने और करने के लिए विवश कर दिया। साथ−साथ ऐसा भी होता है कि समय का प्रवाह भी लोगों को एक विशेष दिशा में सोचने और करने के लिए विवश कर देता है। युगों की मान्यता का आधार यही है। समय के साथ−साथ लोगों की विचार एवं कार्य प्रणाली में भला या बुरा अन्तर उपस्थित हो जाता है। अध्यात्म शास्त्र एवं सूक्ष्म विज्ञान के तत्त्वदर्शी इस तथ्य को समझ पाते हैं। वे उस प्रवाह से बचने और अपनी स्थिति को संभाले रहने के लिए सामयिक चेतावनी भी देते रहते हैं। जैसे सर्दी आरम्भ होते ही मोटे कपड़ों की व्यवस्था करने एवं वर्षा ऋतु आते ही मकानों की टूटी छतें संभालने में लगना पड़ता है वैसे ही कुसमय का प्रवाह आने पर, कलियुग आदि कठिन समय आने पर उनमें सुरक्षा के लिए और अधिक सावधानी से अपनी मनोभूमि को ठीक रखना पड़ता है। छतें उनकी चुचाती हैं जो वर्षा की उपेक्षा करके उनकी मरम्मत नहीं करते, ठंड उन्हें सताती है जो मोटे कपड़ों का प्रबन्ध नहीं करते। कलियुग का बुरा समय भी केवल उन्हें प्रभावित करता है जो अपनी सुरक्षा में सतर्क नहीं रहते। अन्यथा सद्विचार, सत्कर्म, सद्भाव, सत्प्रयत्न सदा हर काल में संभव हैं और सज्जनता की ज्योति हर स्थिति में जलती रह सकती है। सत्य को प्राप्त करने में मनुष्य किन्हीं भी परिस्थितियों को चीरता हुआ सफलता प्राप्त कर सकता है।
विनाश ही नहीं विकास भी
आत्म विद्या के अत्यन्त उच्चकोटि के तत्त्वदर्शियों से गत कई वर्षों से सम्पर्क बनाकर भी और ज्योतिष विद्या के आधार पर भी हमने यह जाना है कि अष्टग्रही योग का एक पहलू जहाँ विनाश है वहाँ दूसरा पहलू विकास भी है। विनाश के सरंजाम हर क्षेत्र में मौजूद हैं और बढ़ रहे हैं। तृतीय महायुद्ध में अणु अस्त्रों के प्रयोग से जो भयंकर स्थिति पैदा हो सकती है वह विभीषिका सामने मौजूद है। वह घटाऐं थोड़ी देर के लिए भी बरस पड़ें तो विनाश का इतना विकराल रूप सामने आवेगा कि हम में से बहुत कम लोग उसे देखने को जीवित रहेंगे। इसके अतिरिक्त तन−तन में, मन−मन में जो पाप का विष भरा हुआ है वह आये दिन असंख्यों त्रास बनकर उबलता ही रहता है। कौनसा घर, कौनसा नगर, कौनसा देश ऐसा है जहाँ के व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन में नरक की आग कहीं जल रही है? मानवीय शक्ति अधिकतर विनाश कार्यों में ही तो लगी है। पाप की ओर बढ़ती हुई प्रवृत्तियाँ न रुक सकीं तो विनाश का रुकना संभव नहीं है। दुर्भावनाऐं एक मनुष्य और दूसरे मनुष्य के बीच में मंथरा की तरह विलगाव और द्वेष का अग्वा खड़ा कर रही हैं इनके विस्फोट आये दिन होते रहते हैं। हत्याऐं, लूट, ठगी, विश्वासघात के पैशाचिक दृश्य हर जगह देखे जा सकते हैं और उनके दुष्परिणाम भी। देर केवल सामूहिक रूप से विशाल परिमाण में भड़कने की है। सो मनुष्य उसके लिए भी उतावला हो रहा है। ऐसी दशा में विनाश की अधिक चिन्ता करना व्यर्थ है। वह तो अपने आप बड़ी तेजी से सुरसा की तरह मुँह फाड़ कर हमें खा जाने के लिए तेजी से चला ही आ रहा है, उसकी समीपता अब कितनी दूर रही है? मूर्ख ही उसे दूर मान सकते हैं, विचारशीलों के लिए वह बहुत ही निकट है।
न निराश हों न उपहास करें
कई व्यक्ति अष्टग्रही के दिनों में प्रलय न होने से बहुत निराश हैं। कई तो पूजा, पाठ करने वालों का उपहास भी खूब कर रहे हैं। इस निराशा और उपहास से मनुष्य की वज्र मूर्खता का ही परिचय मिलता है। जिस दिन बीज बोया जाय उसी दिन उसका फल मिले ऐसी कल्पना केवल पागल ही कर सकते हैं। पागल यदि निराश हों या उपहास उड़ावें तो उनके लिए कुछ न कहना ही उचित है। जिनने यह कहा या जिनने यह समझा कि अष्टग्रही के दिनों में धरती फटेगी और आसमान टूटेगा वे दोनों ही परले सिरे के अविवेकशील माने जा सकते हैं। साँप के काटने और विष पीने से भी तो मृत्यु तत्क्षण नहीं होती। उसमें भी तो देर लगती है फिर अष्टग्रही का प्रभाव उसी क्षण हो जाना चाहिए ऐसी आशा किस आधार पर की जा सकती है। रूस ने पिछले दिनों 50 मेगाटन का एक अणु परीक्षण किया था उसका प्रभाव अगले तीस साल तक चलने और लाखों मनुष्यों के मरने एवं रोग ग्रसित होने की सुनिश्चित घोषणा वैज्ञानिक लोग कर चुके हैं। उन घोषणाओं पर कोई अविश्वास नहीं करता। जिस दिन परीक्षण विस्फोट हुआ उसी दिन लाखों आदमी नहीं मर गये इसलिए वैज्ञानिकों की घोषणाऐं झूठी हैं ऐसा अनुमान लगाने वाले बौद्धिक दृष्टि से अनजान बालक ही माने जाएँगे।
बीज बोते ही फलों से लदा पेड़ उपज पड़ने की आशा और प्रतीक्षा करने वाले लोग इसी श्रेणी के होते हैं। विनाश की घड़ी टल गई ऐसी बात तब तक कैसे सोची जा सकती है जब तक कि विश्व के राजनीतिक नेता संहार के एक से एक भयंकर आयुध बनाने, उन पर विपुल धन खर्च करने और स्वार्थ सिद्धि के लिए दत्तचित्त हैं। विज्ञान का जो विकास इन दिनों हुआ है वह बड़ी प्रसन्नता की बात है। उससे कितनी ही सुविधाऐं भी बढ़ी हैं, पर बन्दर के हाथ में तलवार लग जाने से जैसे अनर्थ की आशंका रहती है वैसी ही इन मूर्ख विश्वनेताओं के हाथों घातक अणुअस्त्र लग जाने से उत्पन्न हो गई है। कौन जाने यह बन्दर कब क्या अनर्थ खड़ा करे दें। विनाश तो इनकी मुट्ठी में दबा हुआ है। विवेक को तिलाञ्जलि देकर उन्मत्तों की तरह आचरण करने वाले यह तथाकथित विश्वनेता कभी भी कुछ भी कर गुजर सकते हैं। इन परिस्थितियों के रहते हुए जो यह सोचता है कि विनाश की घड़ी टल गई, अशुभ भविष्य की विभीषिका झूँठी निकली, वह वस्तुतः एक अनजान बालक ही कहे जाने योग्य है।
उन विश्व नेताओं, राज्याध्यक्षों को ही क्यों दोष दिया जाय, आज तो व्यापक मनोवृत्ति ही ऐसी बन गई है। जो काम हम अपने छोटे क्षेत्र में करते हैं, जो नीति हमने अपने जीवन में अपनाई हुई है उसी का उनने राजसत्ता के क्षेत्र में प्रयोग करना शुरू किया है। हम सब कम अनर्थ इसलिए कर पाते हैं क्योंकि हमारी शक्ति छोटी और साधन सीमित हैं। यदि कल बड़े साधन मिलें तो हम में से कौन, क्या अनर्थ करने में किसी से पीछे रहेगा? महत्व मनुष्यों का नहीं मनोवृत्ति का है। जिस स्वार्थ, पाप और असुरता की सर्पिणी ने हमारे मस्तिष्कों पर अधिकार कर लिया है, हृदयों में गहराई तक प्रवेश कर लिया है वह कभी भी अपने दाँत गढ़ा सकती है और व्यापक अनर्थ की आशंकाओं को भी क्षण भर में मूर्तिमान बना सकती है। छोटे परिमाण में तो घर−घर और जगह−जगह उसका दिग्दर्शन हम कुकर्मों के दुष्परिणामों में आये दिन देखते ही रहते हैं। अष्टग्रही के आधार पर जिस अशुभ की कल्पना की गई थी वह तब तक झूँठी नहीं कही जा सकती जब तक कि विश्व युद्ध के कारण मौजूद हैं और मानव प्राणी अपनी गतिविधियों को सुधारने में तत्पर नहीं हो रहा है।
क्रिया की प्रतिक्रिया
हमें विनाश की बात सोचकर भयभीत नहीं होना चाहिए। वरन् विकास की संभावनाओं पर विचार करना चाहिए। क्रिया के साथ−साथ सदा प्रतिक्रिया भी उत्पन्न होती है। शरीर पर रोगों के आक्रमण के साथ ही रक्त के स्वस्थ जीवाणु रोगों से लड़ने के लिए अपना सारा साहस बटोर कर बीमारी को देह से बाहर निकाल फेंकने के लिए भी जी जान से जुट जाते हैं। रोगों से छुटकारा इसी प्रक्रिया पर निर्भर रहता है। यदि रक्त के स्वस्थ कीटाणु अपनी क्षमता और सक्रियता खो बैठें तो फिर रोग से छुटकारा पाने की संभावना ही समाप्त हो जाती है। कोई भी इलाज फिर रोगी को बचा नहीं सकता। चिकित्सा का उद्देश्य रक्त के स्वस्थ जीवाणुओं को लड़ाई में सहायता पहुँचाना मात्र है। इसी प्रकार विनाश की संभावनाऐं कूटनीतिक वार्तालापों से, राज्याध्यक्ष सम्मेलनों से, मध्यस्थों से, प्रस्तावों से समाप्त नहीं हो सकतीं। इनके आधार पर समय टल सकता है अनर्थ की संभावना नष्ट नहीं होगी। कारण के मौजूद रहते परिस्थिति कभी भी फिर बिगड़ सकती है। पाप का प्रतिरोध पुण्य में, स्वार्थ का प्रतिरोध परमार्थ में, असुरता का प्रतिरोध देवत्व में सन्निहित है। यदि हम अनर्थ से बचना चाहते हैं तो उसका एकमात्र उपाय यही हो सकता है कि पूरे मन और सच्चे हृदय से परमार्थ के, धर्म के, मानवता के आदर्शों को अपनाया जाय और दृढ़तापूर्वक उन पर चला जाय।
कुछ साधन निर्माण में भी लगें
विनाश के साधन जुटाने में कितनी जनसंख्या, कितने मस्तिष्क, कितने साधन, कितने कारखाने, कितने वैज्ञानिक, कितने नेता, कितना धन, कितना प्रचार, कितना संगठन काम कर रहा है, यह देखते हुए चिन्ता होना स्वाभाविक ही है जब इतनी मानवीय शक्ति अनर्थ को मूर्तिमान बनाने के लिए संलग्न है तो उसके प्रतिरोध के लिए कुछ तो संगठित रूप से होना ही चाहिए। रावण के पास बहुत साधन थे पर उसके प्रतिरोध में रीछ−बन्दरों की ही सही एक सेना तो खड़ी की ही गई थी। विनाश का प्रतिरोध करने के लिए विकास की योजना हमें बनानी ही पड़ेगी। विकास से हमारा तात्पर्य आर्थिक या वैज्ञानिक साधनों को बढ़ाने से नहीं, वरन् मानवीय अन्तःकरण की उत्कृष्टता को बढ़ाने से, सद्विचारों, सदुद्देश्य, सत्कर्मों और सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाने से है। इस विकास पर ही विनाश के टलने की संभावना निर्भर है। अखण्ड−ज्योति परिवार के कंधों पर विकास का उत्तरदायित्व आया है और उसके साधन जुटाने में उसे इच्छा या अनिच्छा से संलग्न होना ही पड़ेगा। अष्टग्रही के सम्बन्ध में हम सदा से घोषणा करते रहे हैं कि उन तारीखों में कोई भी खास बात नहीं होने वाली है। सितम्बर और अक्टूबर के अंकों में यह छाप चुके हैं कि “पाठक जिस आनन्द से यह पत्रिका पढ़ रहे हैं उसी आनन्द से अष्टग्रही के दिन भी व्यतीत करेंगे।” हुआ भी वही। कई व्यक्ति ऐसा कहते हैं कि अनर्थ तो उन्हीं दिनों होने वाला था पर कीर्तन, भजन, यज्ञ आदि आयोजनों की जो बाढ़ आई उससे अनर्थ टल गया। यह शंका और समाधान दोनों ही गलत है। न तो 5 फरवरी को कोई अनर्थ होने वाला था और न वह भजन, हवन से टला है। यदि भजन से अनर्थ टलने वाली बात मानी जाय तो यह पूजा पाठ केवल भारत में ही हुआ था। संसार के अनेक देश ऐसे हैं जो पूजा, पाठ तो दूर ईश्वर तक को नहीं मानते, अष्टग्रही को कोई प्रभाव स्वीकार नहीं करते, उन पर तो आपत्ति आनी चाहिए थी, वहाँ तो अनर्थ होना चाहिए था। भारत धर्म, कर्मों से बचा तो पाकिस्तान और चीन कैसे बचे?
अशुभ की संभावना टली नहीं
वस्तुस्थिति दूसरी ही है अशुभ की संभावना बनी हुई है। पाप वृत्तियाँ अपने आप कहीं न कहीं से अनर्थ पकड़ लाती हैं। चोरी की प्रवृत्ति जेलखाने में और कुपथ्य की आदत शफाखाने में, पाप की प्रवृत्ति नरक में जिस प्रकार ले पहुँचती है उसी प्रकार दुर्भावनाओं से आच्छादित मस्तिष्क विपत्ति को भी कहीं न कहीं से बुला लाते हैं यह विपत्ति मानव−पक्ष या दैवी प्रकोप के किसी भी रूप में सामने आ सकती है। युद्ध, महामारी, भूकम्प, बाढ़, अग्निकाण्ड जैसी आकस्मिक भयानक घटनाऐं हों, चाहे धीरे−धीरे शरीर, मन और समाज की स्वस्थता क्षीण होकर दुर्बलता के अभिशाप में जल जाने की स्थिति आवे, बात एक ही है। किस घटनाक्रम के साथ हुआ, इसका कोई महत्व नहीं है। गोली लगने से मृत्यु हुई तो क्या और अफीम खाकर मरे तो क्या परिणाम तो एक ही है। चूँकि पाप अपने प्रचंड रूप में हमारे चारों ओर अट्टहास कर रहा है इसलिए अनिष्ट टल गया ऐसा किसी को भी नहीं सोचना चाहिए। बड़े काम समय भी बड़ा ही लगाते हैं। विश्व बहुत बड़ा है उसके परिवर्तन में भी समय लगता है। उत्पन्न विभीषिकाऐं कब किस रूप में घटित हों इसके प्रकारों या अवसरों का निश्चित स्वरूप या समय तो निश्चित नहीं किया जा सकता पर इतनी बात तो सामान्य बुद्धि से भी सोची जा सकती है कि बुराई का परिणाम अशुभ के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता। हम में से हर कोई यह जानता है कि उसके पाप, पुण्य से ज्यादा हैं इसलिए किसी को भी यह समझने में गफलत न होनी चाहिए कि उसका भविष्य अच्छाई से अधिक बुराई की ओर—सुख से दुख की ओर बढ़ रहा है।
समय की प्रेरणा और युग की पुकार
युग परिवर्तन की सम्भावना हमारी कल्पना नहीं, समय की प्रेरणा है। क्योंकि इसके बिना न व्यक्ति का कल्याण है और न विश्व का उद्धार संभव है। विकास का यही संदेश लेकर अष्टग्रही आई है। यह सन्देश धार्मिकता का, आस्तिकता का एवं मानवता का सन्देश है। इन दिनों भारत भर में जितना भजन, पूजा, कीर्तन, हवन, व्रत, उपवास, दान, पुण्य हुआ उतना एक साथ इतने व्यापक रूप में गत पाँच हजार वर्षों से कभी नहीं हुआ। कोई सोच सकते हैं कि ऐसा डर की वजह से किया गया, पर सच बात यह नहीं है। डर से लोग घबराते हैं और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं तब भजन बनना तो दूर समझ-बूझ तक काम नहीं करती। ध्यान, भक्ति और धर्मानुष्ठान तो स्वस्थ बुद्धि से ही संभव है। लाखों−करोड़ों व्यक्तियों के मन इन दिनों अपने आप हुलसित हुए, वे अपनी अंतःप्रेरणा को रोक न सके और धर्मानुष्ठानों में लग गये। कइयों ने इन दिनों ऐसी उदारता एवं श्रेष्ठता का परिचय दिखाया जैसा उनके जीवन में कभी भी देखा नहीं गया था। यह डर की वजह से नहीं अन्तः प्रेरणा से ही सम्भव हो सका। अष्टग्रही की प्रेरणा जिस धर्म विकास की है वह कितनी प्रत्यक्ष, स्पष्ट और सत्य है इसका प्रमाण हमने पिछले दिनों व्यापक धर्माचरणों के रूप से प्राप्त कर लिया है। यह प्रक्रिया तीन दिन का चमत्कार दिखाकर समाप्त नहीं हो गई, यह अब अत्यन्त दृढ़तापूर्वक आगे प्रगतिशील होगी।
वसन्त पञ्चमी के दिन गायत्री तपोभूमि में जो युग निर्माण संकल्प लिया गया, वही अब “अखंड−ज्योति परिवार” विचारों के प्रकाश एवं कार्यों में प्रेरणा उत्पन्न करने का प्रधान माध्यम बनेगा। अष्टग्रही चली गई पर अपना यही आदेश हमारे लिए छोड़ गई है जिसे पूरा करने में हम सब कटिबद्ध हो रहे हैं।