
आस्तिकता से विश्व शक्ति का अवतरण
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विश्व में स्थायी शाँति की स्थापना जिन आधारों पर संभव है उनमें आस्तिकता सर्वप्रधान है। ईश्वर के अस्तित्व पर, उनकी सर्व व्यापकता और न्यायशीलता पर विश्वास हुए बिना मनुष्य के लिए यह कठिन है कि वह प्रलोभनों के समय, आपत्तियों के समय भी अपने कर्तव्य धर्म से विचलित न हो। सामाजिक एवं राजकीय प्रतिबन्ध एक सीमा तक जन साधारण को कुमार्गगामी होने से बचा सकते हैं। वे अधिक से अधिक इतना कर सकते हैं कि किसी व्यक्ति के दुष्कर्म कर लेने के पश्चात् उसकी भर्त्सना या दण्ड की व्यवस्था करें। पर यह तो बहुत पीछे की बात हुई। कुकर्म का प्रारम्भ कुविचारों से ही हो जाता है। मन में कुविचार उठते हैं तो मस्तिष्क उसके अनुरूप अनेक योजनायें बनाने लगता है और उन योजनाओं में से छोटे-बड़े रूप में कई फलित भी होती रहती हैं। पकड़ में तो कोई एकाध आती है और पकड़े जाने पर भी दंड का भागीदार कभी−कभी होना पड़ता है अन्यथा लोग अपनी चतुरता और सफाई के बल पर छूट भी जाते हैं।
अशान्ति का एकमात्र कारण
कुकर्मों के कारण ही इस संसार में भारी अशान्ति है। परस्पर जो राग-द्वेष और छीना-झपटी की अनीतिपूर्ण प्रक्रिया आज चल रही है उसी के फलस्वरूप विविध संघर्ष और क्लेश दृष्टिगोचर होते हैं। दैवी विपत्तियाँ भी हमारे पूर्व संचित दुष्कर्मों के फलस्वरूप ही आती हैं। संसार में जितना भी कष्ट है वह किसी न किसी के कुकर्म का फल है। आक्रमणकारी एवं अपहरणकर्ता का कुकर्म उसके लिए तो दुखदायक होता ही है पर पहले दूसरे निर्दोषों को भी अपनी चपेट में ले लेता है। संसार में जितने ही कुकर्म पनपेंगे उतने ही दुख भी बढ़ते रहेंगे। इसलिए यदि हमें शान्ति की स्थापना करनी है तो कुकर्मों को हटाना पड़ेगा। यह कुकर्म कैसे घटें? इस पर विचार करते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि कुविचार ही कुकर्मों के उत्पादक हैं। मस्तिष्क में घूमती रहने वाली अधर्म मूलक विचारधारा ही अवसर पाकर कुकर्म का रूप धारण करती है। पानी ही जमकर बर्फ बनेगा। यदि हवा में पानी का अंश न हो तो बर्फ कैसे गिरेगी? हवा में रहने वाला पानी अदृश्य और गिरने वाली बर्फ दृश्य है, इसी प्रकार कुविचारों को सूक्ष्म अदृश्य एवं कुकर्म को स्थूल दृश्य−पाप कहा जा सकता है। कुकर्मों को मिटाने के लिए कुविचारों पर प्रहार करना आवश्यक है।
अनैतिकता का आकर्षण
कुविचारों में अनैतिक बातों का समावेश रहता है। अनैतिकता में एक आकर्षण है। जुआ, चोरी, लूट, व्यभिचार, बेईमानी आदि का परिणाम पीछे कुछ भी हो तत्काल इनमें बहुत लाभ एवं बहुत आकर्षण दिखाई पड़ता है। इस लोभ एवं आकर्षण को नियंत्रित रखने का एकमात्र उपाय यदि हो सकता है तो वह ईश्वरीय न्याय का भय ही है। पाप को छिपाये रहना और राजदंड से बचे रहना आज की दुनियाँ में कुछ बहुत मुश्किल नहीं है। इसलिए मनुष्य सोचता है कि जब पाप के प्रतिफल से बचा जा सकता है तो फिर उसके लाभ और लोभ को क्यों छोड़ा जाय? आज यही विचारधारा दुष्कर्मों को बढ़ावा दे रही है और इसी कारण हमारे मनों में कुविचारों की घटाऐं स्वच्छन्द होकर विचरण करती रहती हैं।
कुविचारों पर अंकुश रखना किसी आन्तरिक, एवं भावनात्मक आधार पर ही संभव है। ईश्वर की सर्वज्ञता एवं निष्पक्ष न्यायशीलता की बात जब तक मन में न जमेगी तब तक और किसी आधार पर मानसिक दुर्भावनाओं को रोका न जा सकेगा। कर्मफल, स्वर्ग नरक, परलोक, पुनर्जन्म पर जिसका विश्वास है वही कुमार्ग पर पैर बढ़ाते हुए हिचकेगा। जिसका अन्तःकरण कुमार्ग पर चलने से रोकता है केवल वही कुकर्मों से बच सकता है। आन्तरिक अंकुश ही सच्चा अंकुश हो सकता है। सत्कर्म का कोई तात्कालिक प्रत्यक्ष लाभ न मिले, या उस मार्ग में कष्ट उठाना पड़े तो भी आस्तिक विचार का आदमी यह सोचकर सन्तोष कर सकता है कि सर्वज्ञ ईश्वर की न्यायशीलता निश्चित है तो आज न सही कल मेरे सत्कर्म का फल मिलेगा। पर यदि किसी को ईश्वर पर आस्था न हुई, कर्मफल के बारे में संदेह रहा तो फिर सत्कर्म के लिए कष्ट उठाना या त्याग करना निश्चय ही कठिन हो जायेगा।
दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश
सत्कर्म का तुरन्त ही वैसा लाभ नहीं मिलता जैसा कुकर्म का। इसीलिए लोग सन्मार्ग छोड़कर कुमार्ग पर चलने को तत्पर होते हैं। इस कठिनाई के रहते हुए भी कोई व्यक्ति यदि कुकर्मों का लोभ छोड़कर सत्कर्म से होने वाले स्वल्प लाभ पर सन्तोष करता है तो उसे पुण्य परमार्थ का, ईश्वरीय प्रसन्नता का एवं समयानुसार सत्परिणाम प्राप्त होने का विश्वास अवश्य होना चाहिए। इस विश्वास के अभाव में मनुष्य भटक जाता है और बिना पतवार की नाव की तरह उसका मन न सोचने योग्य सोचने में और न करने योग्य करने में अग्रसर हो चलता है। ईश्वरीय विश्वास के अभाव में मन की दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश और किस प्रकार लगाया जाना संभव है इसका और कोई सुनिश्चित विकल्प अभी तक किसी की समझ में नहीं आया है।
पापी के सामाजिक बहिष्कार एवं सार्वजनिक निन्दा की एक प्रथा प्राचीनकाल में सबल थी। उस कारण किसी कदर लोग बुराई से बचे। अब वह बन्धन भी टूट चले। कहीं हैं भी तो वे रोटी बेटी की रूढ़ियों तक सीमित हैं। झूठ बोलने वाले, बेईमानी करने वाले, अनीति बरतने वाले का सामाजिक बहिष्कार होता अब कहीं दीखता नहीं। उलटे ऐसे लोगों से डरकर या लाभ उठाने का अवसर देखकर अनेक लोग उनके समर्थक बन जाते हैं। यही बात राजदण्ड के बारे में है। एक तो कानून ही बहुत थोड़ा−सा दंड देते हैं। दूसरे पुलिस का इतना विस्तार भी नहीं कि छिपकर हुए दुष्कर्मों का भी पता प्राप्त कर सके। फिर दंड दिलाने के लिए जितना सबूत, जितने गवाह चाहिएं वह नहीं जुट पाते तो असंख्य लोग अपराधी होते हुए भी छूट जाते हैं। धन खर्च कर सकने वालों के लिए तो इस प्रकार की छूट और भी सुलभ हो जाती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सामाजिक बहिष्कार एवं राजदंड की पद्धतियाँ कुकर्मों को रोकने तक में सफल नहीं हो पा रहीं हैं तो कुविचारों के उठने की गुप्त मनोभूमि की गहराई तक तो उनका प्रवेश हो सकना और भी कठिन है। लोकनिन्दा और राजदण्ड की उपेक्षा का भाव यदि मन में जम जाये तो मनुष्य और भी ढीठ एवं उच्छृंखल हो जाता है। आज ऐसी ही ढीठाई एवं उच्छृंखलता तेजी से बढ़ती चली जा रही।
आदर्शवाद के अनेक प्रयोग
समाजनिष्ठा, देशभक्ति या आदर्शवाद के नाम पर एक और भी प्रयोग इस शताब्दी में ऐसा हो रहा है जिसमें ईश्वर की उपेक्षा करके इन आधारों पर मनुष्य को सदाचारी एवं आत्मसम्मान युक्त बनाने का परीक्षण किया गया है। साम्यवादी विचारधारा इसी की पोषक है। रूस आदि साम्यवादी देशों में इसका प्रयोग पिछले पचास वर्षों से चल रहा है। उस पर सूक्ष्म दृष्टि डालने पर स्पष्ट हो जाता है कि वह प्रयोग एक प्रकार से असफल ही रहा है। भक्ति एवं समाज निष्ठा का भरपूर शिक्षण देने पर भी वहाँ अपराधों की संख्या आस्तिक देशों से भी कहीं अधिक है। इन देशों में जितना उत्पीड़न और रक्तपात जनता की दुष्प्रवृत्तियों को रोकने के लिए किया गया है वह लोमहर्षक है। इतने दमन और नियंत्रण की परिस्थितियों ने आतंक तो पैदा कर दिया है जिसके भय से निर्धारित प्रतिबन्धों के विरुद्ध कोई सिर न उठावे। पर हृदय परिवर्तन नहीं हुआ है। भीतर ही भीतर अनैतिकता की वह आग मौजूद है और समय−समय पर उसकी चिनगारियाँ सामने आती रहती हैं। रूस के शीर्षस्थ नेताओं को आये दिन देशद्रोही ठहराकर मौत के घाट उतारा जाता रहता है। एक दिन के देशभक्त दूसरे ही दिन देशद्रोही घोषित कर दिये जाते हैं। इस प्रक्रिया के शिकार जितने बहुसंख्यक शीर्षस्थ नेता रूस में हुए हैं उसे देखते हुए सोचना पड़ता है कि जब इन ऊँचे कहे जाने वाले लोगों का यह हाल है तो साधारण या निम्न वर्ग का क्या हाल होगा? जर्मनी, इटली, स्पेन आदि देशों में अधिनायकवाद का भी परीक्षण करके देख लिया है। बुरे कहे जाने वाले लोगों को दमन के बल पर कुचल डालने से लोग अच्छे रास्ते पर चलेंगे इसका भयानक परीक्षण हुआ है पर जनता कितनी सुधरी यह तो पीछे खोजा जायेगा, पहले यही देख लिया जाय कि इस विचारधारा के शीर्षस्थ लोग ही परस्पर कितने विश्वासघाती और निष्ठुर सिद्ध हुए और इन सत्ताधारियों ने आपस में ही एक दूसरे से कितनी प्रतिद्वंद्विता, ईर्ष्या, विश्वासघात एवं निष्ठुरता की नीति बरती। शीर्षस्थ स्तर पर जो परीक्षण असफल रहा है वह सामान्य स्तर की जनता में सफल होगा ऐसी आशा करना दुराशा मात्र ही कहा जायेगा।
दंड नीति की असफलता
सामूहिक भर्त्सना, राजदंड और समाजनिष्ठा यह तीनों ही बातें अच्छी हैं और इन तीनों की उपयोगिता भी है पर मनुष्य के आन्तरिक स्तर को सद्विचारों में ओतप्रोत रखने एवं सत्कर्मों के लिए कुछ भी कष्ट उठाने की सुदृढ़ प्रेरणा इनमें नहीं है। वह तो ईश्वर निष्ठा में ही है। उपरोक्त तीन दृष्टिकोण उपयोगिता, अनुपयोगिता की कसौटी पर नैतिक मूल्यों को बदल लेते हैं इसलिए मनुष्य सोचता है कि सदाचार तो एक साधारण सा नीति−नियम मात्र है, उसे आवश्यकतानुसार तोड़ा भी जा सकता है। माँसाहार को ही लीजिए—भौतिक दृष्टि रखने वाले लोग आर्थिक या अन्य उपयोगिताओं के कारण उसे सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं, और निरपराध प्राणी को मर्मान्तक कष्ट देकर उसका प्राणघात करने में कुछ संकोच नहीं करते। जब एक अवसर पर यह मान लिया गया कि अपने लाभ के लिए दूसरे का प्राणघात करने में कुछ हर्ज नहीं तो यह नीति दूसरे अवसर पर मनुष्यों के प्रति भी व्यवहार में लाई जा सकती है। प्रश्न हत्या में पाप होने का न रहा, उपयोगिता की न्यूनाधिकता का रह गया, जिसे भिन्न−भिन्न व्यक्ति अपनी कसौटी पर अलग−अलग ढंग से भी कस सकते हैं और कोई अतिवादी चिड़ियों का शिकार खेलने की तरह मनुष्यों का भी शिकार खेलकर अपना मनोरंजन कर सकता है। कानपुर में एक कनपटी मार बाबा लोहे की कील से सड़क पर सोते हुए कितने ही निरीह मजदूरों को मौत के घाट उतार कर अपना मनोरंजन कर भी चुका है। यह उपयोगितावाद की विचारधारा मनुष्य को अवसरवादी ही बना सकती है, आदर्शवादी नहीं। और जब तक आदर्शवाद में सुदृढ़ निष्ठा न होगी तब तक मनुष्य अपने लाभ और लोभ को त्यागकर देर तक परमार्थवादी न बना रह सकेगा। स्वार्थ और परमार्थ के संघर्ष में ऐसे लोग देर तक पुण्य−पथ पर सुदृढ़ नहीं रह सकते।
एकमात्र उपाय यही है
इन सब बातों पर विचार करते हुए ईश्वर विश्वास ही एकमात्र वह उपाय रह जाता है जो सत्प्रवृत्तियों को किसी नीति के रूप में नहीं, वरन् मानव जीवन की मूल−भूत आधार शिला मानकर हृदयंगम करने के लिए प्रेरणा दे सकता है। धर्म और कर्तव्य पालन आस्तिकता की दो भुजाऐं हैं। सच्चे ईश्वर−विश्वासी के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी धर्मशीलता और कर्तव्य परायणता के आधार पर परमात्मा को प्रसन्न करे। सब प्राणियों में परमात्मा की ज्योति देखे और सब के साथ शिष्टता, सज्जनता एवं सहृदयता का व्यवहार करे। पाप का दंड मिलने और पुण्य का पुरस्कार प्राप्त होने की मान्यता उसके धैर्य को कायम रख सकती है। इस उलटी दुनियाँ में सन्मार्ग पर चलते हुए कुछ कष्ट भी उठाना पड़े तो परलोक या अगले जन्म में न्याय मिल जाने की आशा भी उसे कठिन अवसरों पर विचलित होने से रोके रह सकती है।
आस्तिकता के सत्परिणाम
आस्तिकता के, आध्यात्मिक लाभ असंख्य हैं। स्वर्ग और मुक्ति का प्राप्त होना, भव बन्धनों से छूटना, जीवन मुक्ति का आनंद लेना, ऋद्धि−सिद्धियों की उपलब्धि, ईश्वर की कृपा से कष्टों से छुटकारा, आत्मबल की वृद्धि आदि अगणित लाभ आस्तिकता एवं उपासना से संबंधित हैं। पर सामाजिक एवं लौकिक दृष्टि से आस्तिकता का सबसे बड़ा लाभ यह है कि वह मनुष्य को कुकर्म करने से ही नहीं, कुविचार से भी दूर रहने की प्रेरणा देती है। आत्म नियंत्रण का यही उपाय ऐसा है जो हमारे नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा को जन−मानस में गहराई तक जमाये रह सकता है। अपने सुधार और दूसरों के साथ सद्व्यवहार की जिस प्रक्रिया के ऊपर विश्व शान्ति की संभावना निर्भर है उसके लिए आस्तिकता ही एक प्रेरक शक्ति का केन्द्र बन सकती है। जीव लघु से महान बने, अणु से विभु के रूप में विकसित हो, आत्मा को परमात्मा के रूप में परिणत करे यह आकाँक्षा आस्तिकता के आधार पर ही तो जागृत होगी और इस आकाँक्षा की पूर्ति के लिए उसे धर्मनिष्ठा, आत्मसंयम, परोपकार एवं सदाचार का अनिवार्यतः अवलम्बन करना पड़ेगा। यही वह मार्ग हो सकता है जो हमारी वैयक्तिक एवं सामाजिक दुरवस्था का समाधान करके वह परिस्थिति उत्पन्न करे जिसमें सब लोग सुखपूर्वक रह सकें और विश्वव्यापी शान्ति का सुखद आनंद अनुभव कर सकें।