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Magazine - Year 1962 - Version 2

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उपासना को भी दैनिक जीवन में स्थान मिले

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आस्तिकता की मान्यताओं को सुस्थिर रखने के लिए उपासना की अनिवार्यतः आवश्यकता है। स्थूल वस्तुऐं हर समय आँखों के आगे उपस्थित रहती हैं और उनका अनुभव इन्द्रियों से बार−बार होता रहता है। पर जो सूक्ष्म है, अदृश्य है उसका यदि विशेष रूप से स्मरण चिन्तन न किया जाय तो उसका विस्मरण हो जाना स्वाभाविक ही है। उपयोग में आने वाली सामान्य वस्तुऐं भी यदि बहुत दिन तक व्यवहार में नहीं आती तो हम उन्हें भूल जाते हैं। मनुष्य का स्वभाव ही कुछ भुलक्कड़ ढंग का है यदि ऐसा न होता तो उसके मस्तिष्क में पुरानी स्मृतियाँ इतनी अधिक भरी रहतीं कि नई बातों को सुनने−समझने का स्थान ही न बचता। यह भुलक्कड़पन उन बातों पर तो बहुत ही अधिक प्रभाव डालता है जो सामने नहीं है, दीखती नहीं तथा इन्द्रियों द्वारा अनुभव में नहीं आती।

ईश्वर की अदृश्य सत्ता

ईश्वर भी ऐसी ही एक अदृश्य सत्ता है जो न तो इन्द्रियों से अनुभव में आती है और न आँखों से दीखती है। ऐसी दशा में आमतौर से लोग उसे भूले रहते हैं। किन्तु वह मान्यता एवं धुंधली−सी छाया मात्र बनकर मस्तिष्क के किसी कोने में पड़ी रहती है। इतने मात्र से आस्तिकता का उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। कुविचारों को रोकने और कुकर्मों पर अंकुश रखने के लिए ईश्वर की एक स्पष्ट स्मृति हमारे हृदय पटल पर अंकित रहनी चाहिए और उसका वैसा ही स्मरण रहना चाहिए जैसा हमें अपने घर में रहने वाले निकटस्थ कुटुम्बी परिजनों का रहता है। इसके बिना ईश्वर का भय एवं प्रकाश हमारे अन्तःकरण में स्थिर न रह सकेगा।

हमारे स्वर्गीय परिजन, जो कभी हमें अत्यन्त प्रिय थे जब आँखों के आगे न हों तो उनकी याद कभी−कभी ही भूले भटके आती है। उनकी कुछ सेवा करने का विचार भी शायद ही कभी वार्षिक श्राद्ध आदि के समय आता हो, यदि आया भी तो लकीर पीटने के रूप में छोटी−सी चिन्ह पूजा कर दी जाती है। किन्तु जब वे स्वर्गीय परिजन जीवित थे, घर में रहते थे तब उनका स्मरण तो सदा रहता ही था, उनकी इच्छाओं को समझने और उनकी पूर्ति करने के लिए भी शक्ति भर प्रयत्न किया जाता था। पर अब वह बात नहीं रही। कारण कि वह स्मृति क्षेत्र से, दैनिक सम्पर्क से दूर चले गये, ऐसी दशा में उन्हें भूल जाना हमारे लिए सर्वथा स्वाभाविक है। कदाचित कोई दैवी चमत्कार ऐसा हो कि वे मृत व्यक्ति पुनः जीवित हो आवें और भूत, प्रेत के रूप में घर में रहने लगें तो हमारा अपना रवैया पुनःवैसा ही वरन् उससे भी कहीं अच्छा हो जावेगा और उनकी सेवा सुश्रूषा पूर्ण तत्परता के साथ करने लगेंगे। मनुष्य की स्मृति कुछ ऐसी ही दुर्बल है कि जो वस्तु सामने रहेगी उसे ही वह याद रख सकेगा।

भगवान का सान्निध्य

आस्तिकता का उद्देश्य तभी पूरा हो सकता है जब ईश्वर को हम अपने सहचर के रूप में अनुभव करें। कुविचार का अवसर आते ही, कुकर्म की इच्छा जगते ही भगवान हमारे आगे एक धर्मोपदेशक के रूप में, न्यायाधीश के रूप में, पुलिस अधिकारी के रूप में उपस्थित हो सके तो ही यह संभव है कि कुमार्ग पर बढ़ते हुए कदम रुक सकें। सन्मार्ग पर चलने की जब आकाँक्षा उठे, और सामने प्रस्तुत कठिनाइयों के कारण मन आगे बढ़ने से हिचकिचावे तब भगवान का स्वरूप उत्साह बढ़ाने वाले, प्रेरणा देने वाले एवं समर्थन करने वाले के रूप में सामने आना चाहिए। हिम्मत बढ़ाने वाला कोई उत्साही व्यक्ति साथ हो तो मनुष्य बहुत कुछ कर गुजरता है, यदि सन्मार्ग के पथ पर प्रस्तुत कठिनाइयों को कुचलते हुए आगे बढ़ जाने का प्रोत्साहन भगवान की ओर से प्राप्त होवे तो मनुष्य क्या नहीं कर सकता?

परमात्मा का मूर्तिमान रूप हमारी आँखों के आगे विचरता रहे, वह अदृश्य सत्ता सामने साकार रूप में प्रस्तुत—परिलक्षित—दीखे, तभी यह संभव है कि अधर्म को परित्याग कर धर्म को दृढ़तापूर्वक पकड़े रहने के लिए हमारी मनोभूमि खरी उतरे। अदृश्य परमात्मा को दृश्य रूप में, साथी और सहचर के रूप में अनुभव करते रहने का महान कार्य ‘उपासना’ द्वारा ही पूरा हो सकता है। जप, ध्यान, पूजन, अर्चन आदि के विधान इसीलिए बनाये गये हैं कि उस आधार पर बार−बार मनुष्य परमात्मा का मनोयोग पूर्वक स्मरण करे और उस स्मृति के आधार पर प्रभु को अपने निकटवर्ती संबंधी, कुटुँबी, साथी एवं सहचर के रूप में उपस्थित रहता हुआ सदा अनुभव करता रहे। पूजा से इसी मनोवैज्ञानिक आवश्यकता की पूर्ति हो सकती है। बार−बार स्मरण करने से दो बिछुड़े हुए विरहीजन अपने प्रिय को और भी अधिक निकट हृदय में बसा हुआ अनुभव कर सकते हैं तो क्या परमात्मा को इस प्रकार स्मरण करके निकटवर्ती के रूप में अनुभव नहीं किया जा सकता? यदि हम अपने प्रियतम को निरन्तर साथ रहते अनुभव कर सकें तो पापों से बचे रहना और पुण्य प्रयत्नों में संलग्न रहना तो सहज ही हो जायेगा साथ ही हम निर्भय, निश्चिन्त, आशावादी और उत्साही भी रहेंगे। जिसके साथ परमात्मा जैसी शक्ति है वह किसी से क्यों डरेगा? चिन्ता, भय, शोक, निराशा का उसके लिए क्या कारण शेष रह जायेगा? उसे अपना भविष्य उज्ज्वल और भाग्य प्रकाशपूर्ण क्यों दिखाई न देगा? ऐसा व्यक्ति बुरी परिस्थितियों को क्षणिक एवं अपने सुधार के लिए लगी हुई एक हलकी चपत मानकर सदा प्रफुल्लित, संतुष्ट और आनन्दित ही रह सकता है। जब परमात्मा सत्य है, शिव है, सुन्दर है तो उसके उपासक का स्वरूप भी वैसा ही क्यों न होगा?

सत्प्रवृत्तियों का केन्द्र

परमात्मा समस्त सत्प्रवृत्तियों एवं अनन्त शक्तियों का केन्द्र है। जीव अन्त में विभु बनना चाहता है तो उसे अपने सामने एक आदर्श उपस्थित रखना होगा। बड़ी−बड़ी इमारतें बनाने वाले इंजीनियर पहले उसका नक्शा या ‘मॉडल’ बनाते हैं और उसी के आधार पर अपना निर्माण कार्य प्रारम्भ करते हैं। हम अग्रगामी होना चाहते हैं, आत्मा को परमात्मा रूप में, मानव को महामानव के, विश्व मानव के रूप में परिणत करना चाहते हैं तो आवश्यक है कि उसके लिए कोई नक्शा या ‘मॉडल’ सामने हो। सात्विक आनन्द स्वरूप परमात्मा ऐसा ही आधार है जिसको निहारते हुए हम अपनी प्रगति का कार्यक्रम तैयार कर सकते हैं। कहते हैं कि भृंग नामक मक्खी झींगुर को पकड़ कर अपने घर ले जाती है, झींगुर उसकी गुँजार सुनता और रूप देखता रहता है, फलस्वरूप धीरे−धीरे वह उस तन्मयता के आधार पर अपना झींगुर स्वरूप बदल कर भृंग के रूप में कायाकल्प कर लेता है। पुरानी धर्म पुस्तकों में ‘कीट भृंग’ का यह दृष्टान्त जगह−जगह मिलता है। बात कहाँ तक सच है, यह खोज का विषय है पर आत्मा के सम्बन्ध में यह सर्वथा सत्य है। वह परमात्मा का सच्चे मन से जितना−जितना चिन्तन करता है उसी अनुपात से परमात्मा रूप में बदलता जाता है। साधारण आत्माओं से महात्मा बनते कितनों को ही देखा गया है। जीवन का लक्ष आत्मोत्कर्ष है उसकी पूर्ति में परमात्मा का स्मरण चिन्तन एवं भजन पूजन की प्रक्रिया का अपनाया जाना आवश्यक है।

भक्ति −भावना का विस्तार

ईश्वर और जीव की निकटता, एक का दूसरे के रूप में परिणत होना मानसिक तत्व के आधार पर संभव हो सकता है उसका नाम है प्रेम या भक्ति । मनुष्य और मनुष्य के हृदय भी इसी गोंद के आधार पर चिपकते और घनिष्ठ होते हैं। परमात्मा और आत्मा की एकता भी इसी तथ्य पर निर्भर है। भौतिक पदार्थ नाशवान हैं, वे क्षण−क्षण में बनते-बिगड़ते रहते हैं। जीवों का भी यही हाल है वे भी अपनी रुचि और परिस्थिति के अनुसार आँखें बदलते रहते हैं। इसलिए उनसे सच्चा और चिरस्थायी प्रेम निभ नहीं सकता। सामने वाले की स्थिति का प्रभाव अपने ऊपर पड़ता ही है इसलिए प्रेम की साधना करने वाले को ऐसा आधार ढूँढ़ना पड़ता है जो अपरिवर्तनशील एवं उच्च संभावनाओं से ओत−प्रोत हो। इस विश्व में परमात्मा ही एकमात्र ऐसी वस्तु है जो मानव जीवन की सर्वश्रेष्ठ रसानुभूति प्रेम भावना की अभिवृद्धि में सहायक हो सकती है। भक्ति भावना अपने आप में एक विभूति है और जिसे इसका एक कण भी प्राप्त हो गया वह धन्य हो जाता है। इस भक्ति साधना का अभ्यास भी उपासना की पूजा अर्चा द्वारा ही संभव है।

आस्तिकता के अगणित लाभों का उठाया जाना तभी हो सकता है जब उपासना को दैनिक जीवन में नियमित एवं निश्चित रूप से निरन्तर करते रहा जाय। केवल ईश्वर है इतना मान लेने मात्र से उस मान्यता के द्वारा कुछ महत्वपूर्ण प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिए हममें से हर एक को यह प्रयत्न करना चाहिए कि दैनिक जीवन में उपासना के लिए कोई निश्चित समय एवं निर्धारित विधान अवश्य रहे।

गायत्री की सर्वोपरि साधना

यह कहने की आवश्यकता नहीं कि हिन्दू धर्म में प्रचलित सभी उपासनाओं में गायत्री का स्थान सर्वोपरि है। अनादि एवं सनातन साधना वही है। अवतारों ऋषियों, महापुरुषों एवं सर्व-साधारण ने इसे युग−युगों से अपनाये रखा है। पिछले अन्धकार युग में जब अनेक मत मतान्तर और देवी देवता उपज पड़े तो उपासना विधानों का बहुसंख्यक हो जाना भी स्वाभाविक ही था। आज विविध-विधि उपासनाऐं हिन्दू धर्म में प्रचलित हैं। वे चलती रहें तो भी कुछ हानि नहीं, पर गायत्री उपासना को भावात्मक एकता एवं प्राचीनतम साधन परम्परा को सजीव रखने के लिए प्रथम स्थान देना होगा। जो लोग कोई और उपासना करते हैं किसी और मन्त्र या देवी देवता को मानते हैं उन्हें भी उचित है कि उस उपासना में कम से कम 108 गायत्री मन्त्रों का जप सम्मिलित कर लें। इसमें पाँच छह मिनट ही तो लगती हैं।

जो लोग उपासना बिलकुल भी नहीं करते उन्हें 108 मन्त्र गायत्री जप करने में 5−6 मिनट का समय लगाना तो आरंभ कर ही देना चाहिए। जिन्हें स्नान या समय सम्बन्धी असुविधा है वे बिना स्नान के भी गायत्री मन्त्र−लेखन या मौन मानसिक जप कर सकते हैं। प्रातः सोकर उठते समय और रात को सोने के समय पाँच−पाँच मिनट का समय लगा सकने में तो किसी को भी कुछ कठिनाई न होनी चाहिए। जो व्यक्ति सम्प्रदाय−भेद के कारण—जैसे जैन, बौद्ध, सिक्ख आदि—गायत्री का जप न करे सकें वे अपने साम्प्रदायिक मन्त्र का इसी भाँति नियमित रूप से जप करते हुए सुफल प्राप्त कर सकते हैं।

उपासना का दैनिक जीवन में स्थान

गायत्री उपासना के लाभ असामान्य हैं। इस महाशक्ति की विधिवत् आराधना करके मनुष्य अपने आत्मबल को आशातीत स्थिति तक ऊँचा उठा सकता है और उससे उपलब्ध हो सकने वाले भौतिक एवं आत्मिक, लौकिक एवं पारलौकिक लाभों से लाभान्वित हो सकता है। विभिन्न प्रकार की साँसारिक कठिनाइयों के समाधान एवं श्री समृद्धि और सफलता के लिए गायत्री का उपयोग किया जाता है वह विशेष विधान गायत्री ग्रन्थों में अलग से हम लिख चुके हैं। विशेष प्रयोजनों के लिए उन्हीं से मार्गदर्शन लेना पड़ेगा। पर युग निर्माण की दृष्टि से जन साधारण में आस्तिकता का प्रसार करना अनिवार्य है और इसके लिए गायत्री को ही प्रधानता मिलनी चाहिए।

आस्तिकता मनुष्य को सच्चा मनुष्य बनाये रखने के लिए एक सुदृढ़ अवलम्बन है। यह आस्तिकता उपासना के बलबूते पर ही मूर्तिमान बनती है। इसलिये हमें उपासना पर पूरा जोर देना चाहिये। हम स्वयं यदि अभी तक उपासना नहीं करते तो आज से ही उसका शुभारम्भ किसी न किसी रूप में आरम्भ कर देना चाहिये। यह अपने तक की सीमित न रहे वरन् अपने स्वजन संबंधियों में भी इसका प्रसार होना चाहिये। हमको प्रयत्न करना चाहिये कि हमारा प्रभाव क्षेत्र जहाँ तक है वहाँ तक गायत्री उपासना को दैनिक जीवन में कोई न कोई स्थान, कोई न कोई समय अवश्य मिले। युग निर्माण की यही प्रधान एवं प्रमुख प्रक्रिया रह सकती है। हमारा भविष्य आस्तिकता एवं उपासना का आश्रय लिये बिना उज्ज्वल नहीं हो सकता।

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