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Magazine - Year 1962 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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देवासुर संग्राम में हम निरपेक्ष न रहें।

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First 7 9 Last
पुराणों में देवासुर संग्राम का वर्णन पग−पग पर किया गया है। प्रत्येक पुराण में किसी न किसी बहाने किन्हीं देवताओं और किन्हीं असुरों की लड़ाई के प्रसंग बार−बार वर्णन किये गये हैं। सच तो यह है कि यह देवासुर संग्राम अनादि काल से चल रहा है और अनन्त तक चलता रहेगा। गीता में जिस धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र का वर्णन है और जिस महाभारत में धर्म और अधर्म का पक्ष प्रतिपादन करने वाली कौरव-पाण्डव सेनाओं का वर्णन हुआ है वह भी केवल उस शास्त्र युद्ध तक सीमित नहीं है वरन् हमारे अन्तः करण में निरन्तर होते रहने वाले देवासुर संग्राम का ही चित्रण है। रीछ, वानर की राम सेना और रावण, कुम्भकरण, मेघनाद जैसे समर्थ योद्धाओं का युद्ध भी एक प्रकार की हमारी भीतरी स्थिति का ही बाह्य चित्रण है। अध्यात्म रामायण में इसका निरूपण अधिक स्पष्ट रूप से हुआ है। प्रत्येक अवतार पाप को नाश करने और पुण्य की स्थापना के लिए—देवताओं की रक्षा और असुरों के संहार के लिए अवतरित होता है। ऐसा अवतार समय−समय पर हममें से अनेकों के अन्तःकरण में अवतरित होते हुए देखा भी जाता है।

पाप पुण्य के प्रबल संस्कार

मनुष्य के भीतर पाप और पुण्य के दोनों प्रकार के प्रबल संस्कार मौजूद हैं। दोनों की शक्ति प्रचंड है दोनों ही उद्भट योद्धाओं के समान हैं। दोनों एक−दूसरे से प्रतिकूल प्रकृति के होने से परस्पर लड़ते भी रहते हैं और एक−दूसरे को परास्त करने का प्रयत्न भी करते हैं। यही देवासुर संग्राम है। हर मनुष्य के भीतर पाप और पतन की असुरता के कुसंस्कार पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं। चौरासी लाख निम्न योनियों में लाखों वर्षों तक भ्रमण करने की अवधि में इसने इन्हें जमा किया होता है। पाशविक वृत्तियाँ उन पतित योनियों में उपयुक्त भले ही कहीं जायँ पर मनुष्य के महान गौरव को देखते हुए वे हेय एवं त्याज्य ही होती हैं। सुरदुर्लभ मानव जाति शरीर में देवत्व की छाया रहती है क्योंकि यह योनि ईश्वर के सबसे निकट है। इस शरीर में आये हुए जीव के लिए ईश्वर तक पहुँचने में छोटी छलाँग लगानी मात्र शेष रह जाती है। इसलिए उसका महत्व एवं उत्तरदायित्व भी अधिक है। देवत्व मनुष्य को अपनी तरह ऊँचा उठाने के लिए खींचता है और असुरता की पाशविक वृत्तियाँ अपनी ओर आकृष्ट किये रहना चाहती हैं। इसी खींचतान में हवा के सहारे उड़ने वाले तिनकों की तरह आमतौर से मनुष्य कभी इधर कभी उधर उड़ते रहते हैं। कोई व्यक्ति एक समय बुरे काम करता है तो दूसरे समय में अच्छे काम करता हुआ दिखाई देता है और कोई इसके प्रतिकूल अच्छे कामों को छोड़कर बुराई में धँसते देखा जाता है। ऐसे उदाहरणों में मनुष्य की मानसिक दुर्बलता और शुभ−अशुभ प्रवृत्तियों की प्रबलता का प्रमाण उपलब्ध होता है।

शुभ और अशुभ प्रवृत्तियाँ

अन्तःकरण में रहने वाली शुभ और अशुभ प्रवृत्तियों में से जिसे भी अपने अनुकूल वातावरण मिल जाता है वही पनपने और बढ़ने लगती हैं। जिसे पोषण नहीं मिलता वह सूख जाती है। जो व्यक्ति आज बहुत बुरा दीखता है वह उत्तम परिस्थितियाँ एवं विचारधारा के सान्निध्य में आने से कल बहुत ही उत्तम प्रकृति का बन सकता है और जिसे आज अच्छा समझा जाता है वही कल बुरे वातावरण में फँसकर बुरा बन सकता है। इसलिए विचारक सदा से यह कहते आये हैं कि इस संसार में बुरा कोई मनुष्य नहीं केवल परिस्थितियाँ और भावनाऐं ही बुरी हैं, जिन्हें बदला जा सकता है। लोहे या पत्थर की तरह नहीं मनुष्य का अन्तःकरण गीली मिट्टी और मोम की तरह है जिसे पिघलाया जा सकता है, बदला जा सकता है।

अध्यात्म विद्या का उद्देश्य मानव प्राणी की अन्तःचेतना को पिघलाकर श्रेष्ठता एवं उत्कृष्टता के ढाँचे में ढालना है। माना कि पाशविक वृत्तियाँ प्रबल हैं, उनमें आकर्षण और प्रलोभन बहुत है जिससे दुर्बल प्रकृति का जीव अनायास ही उनकी ओर खिंच जाता है पर उसका अर्थ यह नहीं कि सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाया या परिपुष्ट नहीं किया जा सकता। कार्य थोड़ा कठिन अवश्य है पर असंभव किसी भी प्रकार नहीं है। पानी को फैला देने से वह निचाई की ओर आसानी से बहने लगेगा पर यदि उसे ऊँचा उठाना हो तो अनेक उपकरण इकट्ठे करके और बल प्रयोग करने से ही वह ऊपर चढ़ेगा। इसी प्रकार मनोवृत्तियों के निम्नगामी प्रवाह को ऊर्ध्वगामी बनाने में श्रम तो पड़ता है और समय भी लगता है। अध्यात्म विद्या में श्रम और समय लगना इस प्रकार स्वाभाविक ही है। पानी ऊपर खींचना हो तो साधन और शक्ति के अनुरूप मात्रा में ही चढ़ेगा पर गिराने और नीचे बहाने में न समय की आवश्यकता है न शक्ति की, चाहे जितनी मात्रा में उसे क्षण भर में नीचे गिराया जा सकता है। पर ऊँचा उठाने की प्रक्रिया इस प्रकार नहीं हो सकती। इसलिए अध्यात्म का मार्ग श्रमसाध्य, समस्यासाध्य और क्रमिक सफलताओं के साथ पूरा हो सकने वाला माना जाता है।

जीतता देवत्व ही है

देवासुर संग्राम में आमतौर से असुर पहली बाजी जीतते हैं पर देवता जब अपनी बेखबरी और लापरवाही छोड़कर कटिबद्ध होते हैं तो अन्तिम विजय उन्हीं की होती है। पुराणों में वर्णित देवासुर संग्राम की किसी भी कथा को लें, एक ही कथानक मिलेगा—असुर बहुत ही प्रबल हैं वे मरते दम तक दुस्साहसपूर्ण युद्ध करते हैं पर चूँकि उनकी सत्ता मूलतः पाप और अज्ञान पर खड़ी होती है इसलिए वह दुर्बलता ही उन्हें ले बैठती है और देवपक्ष का जैसे ही सुव्यवस्थित आक्रमण शुरू होता है वैसे ही असुर लड़खड़ा जाते हैं। देवताओं में लापरवाही की, विसंगठित रहने की जो कमी है वही उन्हें असुरों से हराती रहती है जब वे अपनी इस भूल को समझ जाते हैं और छोड़ देने को तत्पर होते हैं तो उनकी विजय निश्चित हो जाती है।

ऋषि मुनियों को तभी तक लंका के निश्चर मारते खाते रहे जब तक कि वे अलग−अलग अपनी−अपनी कुटियों में जप−तप करते रहे, पर जब संगठित प्रतिरोध का अभियान आरंभ हुआ तो रीछ, बन्दरों की सेना ने लंका को तहस−नहस कर दिया। देवताओं को शुँभ−निशुँभ असुरों की सेना से परास्त होते देखकर ब्रह्माजी ने उनके शरीरों से थोड़ी−थोड़ी शक्ति निकाल कर उस संघ शक्ति से ‘दुर्गा’ नामक एक स्वतंत्र शक्ति की रचना कर दी और उस दुर्गा ने देखते−देखते उन भयंकर असुरों को मार गिराया। इसी प्रकार का एक प्रयोग त्रेता में भी हुआ था। रावण के नाश का कोई उपाय न देखकर ऋषियों ने अपना−अपना रक्त एक घड़े में इकट्ठा किया और उसे जमीन में गाड़ दिया। वही रक्त कालान्तर में सीताजी के रूप में प्रकट हुआ। राजा जनक का हल जोतते समय उसी घड़े के टूटने से प्रकट हुई जो बालिका प्राप्त हुई वह सीता ही आगे चलकर रावण का वंश नष्ट करने का कारण बनी।

उद्बोधन का अभाव

देवत्व हर व्यक्ति के अन्तःकरण में पर्याप्त मात्रा में मौजूद है पर वह प्रसुप्त और बिखरा पड़ा रहता है, उसे अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं होता। लंका लाँघने से पहले हनुमान को अपने ऊपर विश्वास नहीं हो रहा था तब जामवन्त ने प्रोत्साहन देकर उन्हें छलाँग लगाने के लिए उकसाया और वे समुद्र लाँघने में पूर्णतया सफल रहे। अर्जुन भी दोनों सेनाओं के बीच खड़ा हुआ काँप रहा था, धनुष उसके हाथों से छूट रहा था और कुछ सूझ न पड़ता था। कृष्ण ने उसे आवश्यक ज्ञान और प्रोत्साहन दिया तो पार्थ की भुजाऐं फड़कने लगीं। गाण्डीव उठाकर उसने ऐसा घनघोर युद्ध किया कि कौरवों की समुद्र सी उमड़ती सेना अस्त−व्यस्त हो गई। अहंकारी असुर उच्छृंखलता में अभ्यस्त होने के कारण पहली बाजी जीतते हैं और प्रतीत होता है कि इनको हराना कठिन है पर यह निश्चित है कि पाप अत्यन्त दुर्बल होता है। घास के ढेर की तरह वह कितना ही बड़ा क्यों न हो व्यवस्थित रूप से लगाई हुई एक ही छोटी चिनगारी उसे नष्ट कर देने के लिए पर्याप्त होती है। देवत्व के पीछे सत्य है, धर्म है, स्थायित्व है, इसलिए इनके पास स्वल्प साधन होते हुए भी अन्त में जीत उन्हीं की निश्चित रहती है। असफलता तो उन्हें तभी तक मिलती है जब तक वे असंगठित और अव्यवस्थित रहते हैं। यह दो दुर्गुण ही उन्हें संकटों में फँसाते हैं। भूल और बुराई का दंड तो सभी को भोगना पड़ता है। देवता भी उससे कैसे बच सकते हैं? लापरवाही, आलस, प्रमाद, ढील−ढाल और उपेक्षा जहाँ कहीं होगी वहाँ देर−सवेर में विपत्ति अवश्य आवेगी। देवता हो या मनुष्य कोई भी यह भूल करेगा तो दंड पावेगा। इसी प्रकार विसंगठन, फूट, पृथकता एवं स्वार्थपरता का भाव भी मानव जाति के लिए एक अभिशाप है। संघ शक्ति का अवलम्बन किये बिना मनुष्य अपनी आत्म−रक्षा तक कर सकने में समर्थ नहीं हो सकता।

व्यक्तिगत क्षेत्र हो चाहे सामाजिक क्षेत्र, दोनों में यह एक ही सिद्धान्त काम करता है। यदि हमारी पाशविक वृत्तियाँ प्रबल हो रही होंगी और देवत्व बिखरा प्रसुप्त स्थिति में पड़ा होगा तो फिर असुर बुद्धि और असुर प्रवृत्ति ही बलवती रहने से जीवन निम्न कोटि का, पतन और पाप से भरा हुआ दिखाई पड़ेगा। इसके विपरीत यदि देवत्व सजग, संघबद्ध और सक्रिय रह रहा होगा तो असुरता परास्त हुए बिना न रहेगी। मनुष्य के शरीर में न कुछ अच्छाई है न बुराई। उसकी भीतरी स्थिति ही बाह्य जीवन में फूटती रहती है। इस आन्तरिक स्तर को सुधारने और सँभालने का कार्य जिस प्रक्रिया द्वारा होना सम्भव है उसे ही ‘अध्यात्म’ नाम से पुकारा जाता है।

‘असतो मा सद्गमय’

अध्यात्म का उद्देश्य मनुष्य को पाप और कुविचारों की असुरता से छुड़ाकर सत्य और धर्म की सुख−शान्तिमयी गोदी में पहुँचा देने का है। यह सोचना गलती है कि धर्म को अपनाने से मनुष्य घाटे में रहेंगे। जिस धर्म को अपनाने से मनुष्य घाटे में रहें वह सच्चा धर्म नहीं हो सकता। आज कल धर्म के नाम पर जो अस्वाभाविक आडम्बर पुज रहा है उसके बारे में यह सोचना तो ठीक है पर असली धर्म तो पारलौकिक और इहलौकिक दोनों ही सुखों का साधन जुटाता है। प्राचीनकाल में जब घर−घर धर्म की प्रतिष्ठा रहती थी तो भारत में घर−घर धन, वैभव, बल, पुरुषार्थ, विद्या, बुद्धि, स्नेह, सौजन्य, उल्लास का वातावरण बिखरा पड़ा होता था। आज जब कि अधर्ममूलक विचारधारा और कार्यप्रणाली को अपना लिया है घर−घर नरक दृश्य दीख पड़ते हैं। अभाव, दरिद्र, रोग−शोक, क्लेश−कलह, अज्ञान, अविवेक ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार, अभाव जहाँ भी रहेंगे वहाँ नरक की अग्नि ही जलेगी।

मानव जीवन हमें इसलिए प्राप्त नहीं हुआ कि इस जन्म में नरक जैसी कष्टदायक परिस्थितियों में पड़े रहकर तिल−तिल जलने जैसा कष्ट उठाते हुए मौत के दिन पूरे करें और परलोक के लिए अनन्तकाल तक दुर्गति का साधन इकट्ठा करें। जीवन की महत्वपूर्ण समस्याओं में सबसे बड़ी समस्या यह है कि जिस प्रकार का लक्ष्यविहीन जीवन हम व्यतीत कर रहे हैं क्या वही उचित है? क्या यही मनुष्य जन्म जैसे सुरदुर्लभ सौभाग्य का सदुपयोग है? हम अनेकों महत्वपूर्ण समस्याओं को उपेक्षा में डाले रहते हैं और निरर्थक बातों को बहुत आवश्यक समझकर उनके लिए माथा-फोड़ी करते रहते हैं। यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो यही प्रतीत होगा कि हमारे सामने सबसे महत्वपूर्ण समस्या एक ही है और वह है—‟जीवन का लक्ष एवं कार्यक्रम निश्चित करना।” यदि इस समस्या को हल कर लिया गया तो अन्य सारी समस्याऐं हल हो जाती हैं। यदि यह उलझी पड़ी हैं तो चारों ओर उलझनें ही उलझनें बनी रहेंगी।

असुरता का उन्मूलन आवश्यक

आज हमारे भीतर और बाहर सर्वत्र असुरता का बोलबाला है। वैयक्तिक जीवन में हमारी अंतःचेतना असुरता की अन्धकारपूर्ण पाशविक प्रवृत्तियों से भरी हुई है। फलस्वरूप मनुष्य शरीर पाकर भी हम घृणित श्रेणी का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इसी प्रकार सामाजिक जीवन में भी अनाचार का वातावरण प्रबल होता जाता है जिसके फलस्वरूप, स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था, समाज, राजनीति, पारस्परिक सम्बन्ध, नैतिकता और कर्तव्य पालन, उत्पादन और उद्योग प्रत्येक क्षेत्र में संकट उत्पन्न हो रहे हैं और चारों ओर अशान्ति की काली घटायें घुमड़ती हुई दिखाई पड़ती हैं। असुरता की प्रबलता जहाँ कहीं भी होगी वहाँ आपत्तियाँ ही बढ़ेंगी। सुख-शान्ति तो देवत्व के साथ ही अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। यदि हमें अपना व्यक्तिगत जीवन सुखी और सामाजिक जीवन शान्तिमय देखना हो तो उसका एक ही उपाय रह जाता है—असुरता को परास्त करके देवत्व की अभिवृद्धि करना। असुरता जब तक हारेगी नहीं, तब तक अशान्ति का मिट सकना और किस प्रकार संभव होगा?

देवासुर संग्राम पूर्व पौराणिक काल में भी चलता था। व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन के दोनों मोर्चों पर यह लड़ाई प्रचंड गति से चल रही है। इसी का नाम—विश्व−संकट है। यदि यह विश्व−संकट हमें सचमुच ही अप्रिय लगता है, इस कष्टमय स्थिति से सचमुच ही बचना चाहते हैं तो फिर उस असुरता को परास्त करने के लिए क्यों तत्पर नहीं होते जो मानव जाति के ऊपर आई हुई विश्वव्यापी आपत्तियों का एकमात्र कारण है?

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