
नवीन पवि का सृजन हुआ है। (कविता)
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न युग नया है, न तप नया है, धरति उनीदी, मनुज उनींदा−प्रगति−उषा की ललाट सृजा, अभी न रवि सूर्य का उदय हुआ है।
न जाने कितनी कलियाँ कुआरी हैं, न जाने कितनी गलियाँ रुआँसी—
अभी न पक्षी उडे गगन में न अभी डडडड गई है।
झुके पलक जागृति के अभी तक, नहीं सृजन के गले में फाँसी—
बड़ी स्वार्थ की जंजीर जो दृढ़, वही अभी तक खुली नहीं है। अभी न मन की तृषा मिटी है, अभी न डर की व्यथा गई है—
समझ सके जो नम आँसुओं को, न ऐसे कवि का जनम हुआ है।
वही निशा है वही दिशा है, वहीं अपनी अनजान राहें—
वही मनुज है वही अनुज है, शकल सृष्टि न बदल सकी है।
खड़ी मसजिदें धरा पर, वही अजाने वहीं है भूले—
वही है मंदिर वही पूजारी, अभी न पूजा बदल सकी है।
सजी सजाई खड़ी पालकी, अभी न आई दुल्हिन सफलता−अरे, किसी मनचले भ्रमर ने, अभी न कलि का हृदय छुआ है।
अभी न सागर में ज्वार आया, हँसी न श्रम की पूनम गगन पर−
अभी उमंगें अधरी सबकी, अभी न नजरें बदल सकीं हैं।
वही बहारें, वही खिजाँ है, वहीं सजायें, तनिक न अन्तरन साज बदला,
न राग बदला, न भावनायें बदल सकीं हैं।
अभी न बाँधे कफन सिरों पर, अभी मशालें जली नहीं है−
संभल, अरे−फिरसे अरिग्यों के, नवीन पवि का सृजन हुआ है। −रामस्वरूप खरे *समाप्त*
न जाने कितनी कलियाँ कुआरी हैं, न जाने कितनी गलियाँ रुआँसी—
अभी न पक्षी उडे गगन में न अभी डडडड गई है।
झुके पलक जागृति के अभी तक, नहीं सृजन के गले में फाँसी—
बड़ी स्वार्थ की जंजीर जो दृढ़, वही अभी तक खुली नहीं है। अभी न मन की तृषा मिटी है, अभी न डर की व्यथा गई है—
समझ सके जो नम आँसुओं को, न ऐसे कवि का जनम हुआ है।
वही निशा है वही दिशा है, वहीं अपनी अनजान राहें—
वही मनुज है वही अनुज है, शकल सृष्टि न बदल सकी है।
खड़ी मसजिदें धरा पर, वही अजाने वहीं है भूले—
वही है मंदिर वही पूजारी, अभी न पूजा बदल सकी है।
सजी सजाई खड़ी पालकी, अभी न आई दुल्हिन सफलता−अरे, किसी मनचले भ्रमर ने, अभी न कलि का हृदय छुआ है।
अभी न सागर में ज्वार आया, हँसी न श्रम की पूनम गगन पर−
अभी उमंगें अधरी सबकी, अभी न नजरें बदल सकीं हैं।
वही बहारें, वही खिजाँ है, वहीं सजायें, तनिक न अन्तरन साज बदला,
न राग बदला, न भावनायें बदल सकीं हैं।
अभी न बाँधे कफन सिरों पर, अभी मशालें जली नहीं है−
संभल, अरे−फिरसे अरिग्यों के, नवीन पवि का सृजन हुआ है। −रामस्वरूप खरे *समाप्त*