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Magazine - Year 1964 - Version 2

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शान्ति और सन्तोष क्यों नहीं मिलते?

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जीवन में असन्तोष और अशान्ति क्यों पैदा होते हैं? इसका कोई एक उत्तर नहीं दिया जा सकता। मानव जीवन में दृश्य-अदृश्य ऐसे बहुत से कारण होते हैं जो अशान्ति और असन्तोष पैदा कर देते हैं, फिर भी मनुष्य की द्विविधामय स्थिति, यथार्थ से आँखें मूँद कर कल्पना-लोक में विचरण करना, जीवन जीने का अस्वाभाविक मार्ग अपनाना, तृष्णा, अपने आपके प्रति अनजान रहना, असन्तुलित मन निरुद्देश्य जीवन ऐसे मुख्य कारण हैं, जिनसे मनुष्य जीवन में अशान्त और असन्तुष्ट रहता है।

अशान्ति, असन्तोष मनुष्य के जीवन में तब पैदा हो जाती हैं, जब उसके आन्तरिक और बाह्य मन में एक समता नहीं होती है। अन्तर मन कुछ और चाहे और बाह्य मन कुछ और करे। ऐसे लोग असन्तुष्ट और अशान्त ही रहते हैं, जो दुविधा की स्थिति में पड़े रहते हैं। कई व्यक्ति अंतर्मन से बड़े आदर्शवादी होते हैं। लेकिन बाह्य मन की प्रेरणा से अपने आदर्श के प्रतिकूल कार्य कर बैठते हैं। कई बार मनुष्य की नैतिक बुद्धि प्रबल होती है लेकिन असंस्कृत मन पूर्व अभ्यास- संस्कार के कारण अनैतिक कार्य की प्रेरणा देकर मनुष्य को प्रवृत्त कर देता है और यही द्वन्द्वात्मक स्थिति मनुष्य की अशान्ति, असन्तोष का कारण बन जाती है। इससे कई शारीरिक मानसिक बीमारियाँ भी उत्पन्न हो जाती हैं। मन की शान्ति और सन्तोष के लिए इस तरह की द्विविधा को मिटा कर अपने अन्तर - बाह्य मन में सामंजस्य पैदा करना आवश्यक है। जैसा भीतर हो, वैसा बाहर इस तरह की एकरूपता जितनी होगी, उतनी ही मनुष्य में प्रसन्नता, शान्ति, सन्तोष की वृद्धि होगी।

असन्तोष का एक मुख्य कारण है अपनी यथार्थ स्थिति को भूल जाना, वास्तविकता से आँखें मूँद कर किसी के कहे, सुने या कल्पित स्वरूप में अपने आपको समझने, देखने की भूल कर बैठना। बहुत से लोगों को इसी कारण जीवनभर अशान्ति और असन्तोष का सामना करना पड़ता है। अपनी सहज स्वाभाविक स्थिति को भुलाकर लोग जब जीवन का अस्वाभाविक मार्ग अपनाते हैं, अपनी सीमा से कुछ अधिक की आकाँक्षायें रखते हैं तो उन्हें असन्तुष्ट रहना पड़ता है। क्योंकि प्रकृति का एक नियम है कि क्रमिक विकास से ही सब उच्च कक्षाओं में, स्थितियों में पहुँचते हैं। बचपन से कोई अचानक वृद्धावस्था में नहीं पहुँच जाता। उगते हुए पेड़ में ही फल नहीं आ जाते। अभी किशोरावस्था में ही पहुँचे है कि दूसरों के कहे सुने अनुसार लोग बड़े दार्शनिक, धार्मिक बन जाने की धारणा कर बैठते हैं। लेकिन उनकी प्राकृतिक स्थिति इससे भिन्न होती है, वह उछल-कूद सीखना, सृजन करना आदि प्रवृत्ति प्रधान कार्यों में लगा ना चाहती है। वे जबरन इन पर रोक लगाते हैं, फलतः उनकी प्रकृति और अस्वाभाविक प्रवृत्तियों में संघर्ष पैदा हो जाता है और यही असन्तोष का कारण बन बैठता है।

ठीक इसके विपरीत लोग बड़ी उम्र में पहुँचकर भी युवकों, किशोरों जैसे प्रवृत्ति प्रधान कार्यक्रमों में लगे रहते हैं, जब कि प्रकृति उन्हें निवृत्ति की ओर लगाना चाहती है। भौतिक कार्यक्रमों से विरक्त होकर दर्शन धर्म संस्कृति समाज के चिन्तन में लीन हो जाना आवश्यक है। जब मनुष्य ऐसा नहीं करता, तब भी उक्त प्रकार का असन्तोष पैदा हो जाता है।

कई लोगों की बड़ी उच्च आकाँक्षाएं होती हैं। वे जीवन के महान् स्वप्न देखते हैं। कल्पना क्षेत्र में उड़ते हुए क्या से बन जाते हैं। कई महापुरुषों की जीवनी पढ़कर उनके बारे में सुनकर लोग वैसा ही बन जाना चाहते हैं। महत्वाकाँक्षायें रखना बुरी बात नहीं है। इन्हीं के सहारे मनुष्य आगे बढ़ता है, उच्च सफलतायें अर्जित करता है। लेकिन महत्वाकाँक्षाओं के पीछे भी मनुष्य की अपनी स्थिति, योग्यता, परिस्थितियाँ क्षमता आदि का भी कम महत्व नहीं होता। जो व्यक्ति अपनी महत्वकाँक्षाओं और अपनी परिस्थितियों में तालमेल बैठाकर प्रयत्न - रत रहता है, वह सफल भी हो जाता है लेकिन अपनी स्थिति को भूलकर मनुष्य जब अपरिमित महत्वाकाँक्षाओं के पीछे अन्धा हो जाता है, तब उसे असन्तोष और अशान्ति का ही सामना करना पड़ता है।

आप क्या हैं, आपकी परिस्थितियाँ कैसी हैं, आप कैसे धरातल पर खड़े हैं, आपकी कितनी क्षमतायें हैं? इन्हें जाने, समझे बिना महत्वाकाँक्षाओं के पीछे न दौड़ें। बड़े व्यक्तियों के कहने पर विचार करें, उनके उपदेशों को जीवन में उतारें लेकिन उन जैसा बनने का अन्धा प्रयत्न न करें। स्मरण रखिए प्रत्येक व्यक्ति की अपनी एक प्रकृत बनावट होती है। उसी की सीमा में बढ़ते रहने पर वह अपने आप में पर्याप्त विकास प्राप्त कर सकता है। लेकिन जब इसके विपरीत मनुष्य अपने प्रकृत स्वत्व को भुला कर दूसरे की नकल करता है, तब उसे अन्तर्द्वन्द्व का सामना करना पड़ता है। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी सृष्टि होती है। अपना स्वत्व होता है। अपनी विशेषता होती है। जो मनुष्य इस वास्तविकता को भुलाने का असफल प्रयत्न करता है, वह उतना ही अशान्त और असन्तुष्ट रहता है।

सन्तोष के साधन के लिए आपके पास वर्तमान में जो कुछ है, उस पर सन्तोष करें, उसका लाभ उठावें। इसका अर्थ यह नहीं कि भावी प्रगति के लिए प्रयत्न ही न किया जाय। सन्तोष का अर्थ हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना नहीं है। वर्तमान से सन्तुष्ट रहकर भावी उन्नति के लिए धैर्यपूर्वक प्रयत्नशील रहना शान्ति के लिए आवश्यक है।

मनुष्य की अशान्ति और असन्तोष का कारण उसका अपना मन भी है। असन्तुलित, बिना साधा हुआ मन मनुष्य को ऐसी परिस्थितियों में घसीटता रहता है अथवा ऐसी उधेड़- बुन में लगा रहता है, जिससे अशान्ति और असन्तोष की आग सुलगती रहती है। जिस तरह बिना सधा हुआ घोड़ा सवार को दुःखद परिस्थितियों में डाल देता है, उसी तरह असंस्कृत, असन्तुलित मन मनुष्य को कई दोष चक्रों में फँसता रहता है, जहाँ असफलता, अशान्ति, असन्तोष ही परिणाम में मिलते हैं।

भले ही मनुष्य इनका दोष भाग्य पर या किसी व्यक्ति पर मढ़ता रहे, लेकिन मूलतः दोष उसके बिना सधे हुए मन का ही होता है। जिसका मन सधा हुआ नहीं है, वह व्यक्ति सदैव अपनी परिस्थितियों, दूसरे व्यक्तियों के पराधीन, परावलम्बी, परमुखापेक्षी रहता है। इससे क्षुब्ध और असन्तुष्ट भी रहता है। स्वावलम्बी, सधे हुए मन वाला व्यक्ति ही सन्तुष्ट और शान्त रह सकता है। जिनका मन आवेशों, उद्वेगों से चलायमान रहता है, जो नाना मनोविकारों से ग्रस्त रहता है, वह व्यक्ति कभी भी शान्ति नहीं पा सकता। विकृत मन की मुख्य तीन अवस्थायें बताई गई हैं - क्षिप्त, विक्षिप्त और मूढ़। इनसे उत्कृष्ट स्थिति है--एकाग्र तथा निरुद्ध मन की। महर्षि पातंजलि ने उक्त तीनों स्थितियों को विकृत बताया है। एकाग्र और निरुद्ध मन ही शान्ति तथा असन्तोष का अधिकारी होता है।

मनुष्य की अशान्ति का एक और कारण होता है, उसका निरुद्देश्य जीवन। प्रत्येक व्यक्ति जीवन में पदार्पण के साथ ही अपनी जीवन यात्रा का एक विशेष लक्ष्य लेकर आता है। लेकिन जब वह संसार में आकर यहाँ के नानात्व में, आकर्षणों में, वस्तु पदार्थों में उलझ जाता है, उनमें लिप्त हो जाता है, तब अन्तर में बैठी हुई चेतना उसे कचोटती रहती है और वह तब तक छटपटाती रहती है, जब तक मनुष्य एक निर्दिष्ट लक्ष्य निर्धारित नहीं कर लेता, जो अन्तरात्मा से स्वीकृत हो।

किसी भी रूप में निरुद्देश्य, लक्ष्य-विहीन जीवन जिसमें मनुष्य परिस्थितियों, वातावरण, दूसरों के द्वारा ठेला जाता है, ऐसी परिस्थिति में शान्ति और सन्तोष की प्राप्ति नहीं होती। आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य अपना लक्ष्य निर्धारित करे और उसके अनुसार आगे बढ़े। निर्दिष्ट लक्ष्य की ओर बढ़ने पर मनुष्य को एक तरह का सन्तोष मिलता है।

इस सम्बन्ध में एक और महत्वपूर्ण बात है वह यह कि स्वार्थपूर्ण जीवन में मनुष्य को स्थायी शान्ति नहीं मिलती, न ऐसे जीवन में सन्तोष ही मिलता। परमार्थ प्रधान कार्यों से ही मनुष्य शान्ति अनुभव करता है। इस परमार्थ में दूसरों के हित में मनुष्य के प्रयास जितने बढ़ते जायेंगे, वह उतना ही सन्तुष्ट और शान्त होता जायेगा।

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