• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • प्रेम और कृतज्ञता का सौंदर्य
    • आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध
    • प्रेम ही परमेश्वर है।
    • भारतीय-संस्कृति महान है
    • अकेला चल अकेला?
    • संयम की आवश्यकता
    • आत्मविश्वास की शक्ति
    • Quotation
    • संघर्ष के समर्थक-महर्षि परशुराम
    • आत्म निरीक्षण से मानसोपचार
    • Quotation
    • सत्य से बढ़कर और कुछ नहीं
    • विश्व-कवि-रवीन्द्रनाथ टैगोर
    • शान्ति और सन्तोष क्यों नहीं मिलते?
    • दुर्बलता के पाप से बचिए।
    • विश्व साहित्य के अमर निर्माता - टॉलस्टाय
    • Quotation
    • देश के लिए समाज के लिए
    • Quotation
    • विज्ञानवेत्ता-लियो जिलार्ड
    • धन्यो गृहस्थाश्रमः
    • समय जरा भी बर्बाद मत होने दीजिए
    • क्रान्तिकारिणी - भीकाजी कामा
    • खर्च करना भी सीखिए
    • बच्चों को अनुशासन कैसे सिखाया जाय?
    • छोटे-छोटे काम भी उपेक्षणीय नहीं
    • मधु-संचय
    • मधु-संचय (Kavita)
    • गुरु पूर्णिमा-पर्व की शानदार सूचनाएँ
    • वह कार्य जो हमें करना ही होगा
    • मथुरा आने का आमन्त्रण
    • अखण्ड-ज्योति छह महीने के लिए भी
    • युग -निर्माण का सत्साहित्य
    • स्वर्ग को चल पड़े स्वर्ग के देवता
    • स्वर्ग को चल पड़े स्वर्ग के देवता (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • प्रेम और कृतज्ञता का सौंदर्य
    • आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध
    • प्रेम ही परमेश्वर है।
    • भारतीय-संस्कृति महान है
    • अकेला चल अकेला?
    • संयम की आवश्यकता
    • आत्मविश्वास की शक्ति
    • Quotation
    • संघर्ष के समर्थक-महर्षि परशुराम
    • आत्म निरीक्षण से मानसोपचार
    • Quotation
    • सत्य से बढ़कर और कुछ नहीं
    • विश्व-कवि-रवीन्द्रनाथ टैगोर
    • शान्ति और सन्तोष क्यों नहीं मिलते?
    • दुर्बलता के पाप से बचिए।
    • विश्व साहित्य के अमर निर्माता - टॉलस्टाय
    • Quotation
    • देश के लिए समाज के लिए
    • Quotation
    • विज्ञानवेत्ता-लियो जिलार्ड
    • धन्यो गृहस्थाश्रमः
    • समय जरा भी बर्बाद मत होने दीजिए
    • क्रान्तिकारिणी - भीकाजी कामा
    • खर्च करना भी सीखिए
    • बच्चों को अनुशासन कैसे सिखाया जाय?
    • छोटे-छोटे काम भी उपेक्षणीय नहीं
    • मधु-संचय
    • मधु-संचय (Kavita)
    • गुरु पूर्णिमा-पर्व की शानदार सूचनाएँ
    • वह कार्य जो हमें करना ही होगा
    • मथुरा आने का आमन्त्रण
    • अखण्ड-ज्योति छह महीने के लिए भी
    • युग -निर्माण का सत्साहित्य
    • स्वर्ग को चल पड़े स्वर्ग के देवता
    • स्वर्ग को चल पड़े स्वर्ग के देवता (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1964 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


संयम की आवश्यकता

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 5 7 Last
राम रावण युद्ध का प्रथम दौर प्रारम्भ हुआ। रावण ने अपने सर्वोच्च सेनापति मेघनाद को ही सबसे पहले लड़ने भेजा। वह मेघनाद जिस पर रावण के युद्ध का, उसकी विजय का पूरा-पूरा दारोमदार था। मेघनाद को आता देख राम पीछे हट गये और बोले- “लक्ष्मण तुम्हें ही मेघनाद से युद्ध करना है।”

कैसी विचित्र बात थी। अपार शक्तिशाली राम को पीछे क्यों हटना पड़ा मेघनाद से और अकेले लक्ष्मण को ही क्यों उसका सामना करने भेजा? इसका स्पष्टीकरण करते हुए राम ने ही कहा है, “लक्ष्मण, मेघनाद बारह वर्षों से तप कर रहा है, ब्रह्मचारी है। और तुमने चौदह वर्षों से स्त्री का मुँह तक नहीं देखा। मेरे साथ रहकर तपस्वी, संयमी जीवन बिताया। इसलिये तुम ही मेघनाद को हरा सकते हो। मैं तो गृहस्थ हूँ।” और सचमुच लक्ष्मण ही उसे हरा सके। मेघनाद को इन्द्रजीत कहा जाता है। इसका तात्पर्य वस्तुतः अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेने से है।

पितामह भीष्म के बारे में कौन हिन्दू जानता न होगा। महाभारत का वह घनघोर युद्ध जिसमें श्रीकृष्ण को भी अपनी प्रतिज्ञा भंग करनी पड़ी उनके समक्ष। हनुमान से लेकर महर्षि दयानन्द, विवेकानन्द तथा बहुत से महापुरुष संसार में जो कुछ कार्य कर सके उसका मूलाधार उनका संयमी ब्रह्मचर्यपूर्ण जीवन ही था। स्वयं महात्मा गाँधी का जीवन उस समय से प्रकाश में आया जब से उन्होंने अखण्ड संयम, ब्रह्मचर्य की धारणा की।

मनुष्य का शरीर एक शक्ति उत्पादक डायनेमो की तरह है। इससे नित्य निरन्तर महत्वपूर्ण शक्तियों का उद्वेग होता रहता है। जब इन्हें रोककर संग्रहीत कर लिया जाता है और उचित दिशा में लगा दिया जाता है तो महान् कार्य सम्पन्न होते हैं। और जब इसे विषय भोगों के छिद्रों से नष्ट कर दिया जाता है तो मनुष्य दीन−हीन, असहाय, परतन्त्र- परावलम्बी बन जाता है। अपने शक्ति धन को लुटा देने के बाद मनुष्य थोथा है, रोता है। अपनी शक्ति को संचित रखकर उसका सदुपयोग करने से ही मनुष्य का जीवन प्रभावशाली, महत्वपूर्ण बनता है।

इसीलिए हमारे मनीषियों ने संयम - ब्रह्मचर्य को जीवन का आवश्यक अंग बताया। उसे आवश्यक धर्म कर्तव्य बताया। धर्म का एक अंग बना दिया। वस्तुतः ब्रह्मचर्य ही जीवन है, तेज है, शक्ति है, सामर्थ्य है। ब्रह्मचर्य के अभाव में उत्कृष्ट - जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। मनुष्य जितना संयमी होगा उतना ही उसका व्यक्तित्व उतना ही प्रखर तेजस्वी, सामर्थ्यवान बनेगा। दूसरों को प्रभावित कर सकेगा।

यह ध्रुव सत्य है, और हमारे प्राचीन मनीषियों से लेकर आधुनिक महापुरुषों का अनुभव सिद्ध तथ्य है कि भोगों में मनुष्य को सुख नहीं मिल सकता। गीताकार ने कहा है :--

ये हि संस्पर्शजाः भोगा दुःख योनय एवते।

आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥

“जो ये इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं वे निःसन्देह दुःख के ही हेतु हैं और अनित्य हैं। हे अर्जुन। बुद्धिमान विवेकी पुरुषों को उसमें रमण नहीं करना चाहिए।”

मनुष्य जब सुख की खोज में इन्द्रिय और विषयों को साधन बनाकर प्रयत्न प्रारम्भ करता है। मन, बुद्धि को भी इसी ओर लगाता है तो इसी प्रयत्न में अनेकों दुःखों का सूत्रपात हो जाता है उसके लिए। मनुष्य जब शरीर की आवश्यकता के लिए नहीं वरन् रसना के माध्यम से अनेक स्वाद के आनन्द के लिए भोजन करता है तो भोजन की मात्रा और उसके स्वरूप का निर्णय पेट न करके जिव्हा करने लगती है। जीभ की तृप्ति के लिए मनुष्य तरह-तरह से सुस्वादु भोजन करता है। और परिणाम रोग, शारीरिक कष्टों के रूप में ही प्राप्त होता है। यही बात जननेन्द्रिय के सम्बन्ध में है। उसका उपयोग सन्तानोत्पादन के लिये होता है। उसके साथ जुड़ा हुआ सुख तो प्रकृति का एक पारितोषिक और वरदान है। लेकिन जब मनुष्य सन्तानोत्पादन के लिए नहीं वरन् उस सुख को प्रधान मानकर विषयों में प्रवृत्त होता है और प्रकृति की मर्यादा का उल्लंघन करता है तो परिणाम में अपनी शक्तियों का ह्रास करता है और दुःखों को निमन्त्रण देता है। अपनी जीवनी शक्ति का नाश करके मृत्यु की ओर अग्रसर होता है।

विषय भोगों में इन्द्रिय, मन, बुद्धि में संसार और इसके पदार्थों में मनुष्य को सुख मिल ही नहीं सकता। जिसे हम सुख समझते हैं उसके बदले वस्तुतः बड़े दुःख के रूप में मूल्य चुकाना पड़ता है। जब तक वह सुख नहीं मिलता तो उसे प्राप्त करने की बेचैनी, फिर भोगते ही वह समाप्त हो जाता है फिर नये सिरे से उसकी प्राप्ति के लिये मन बुद्धि इन्द्रियों को संचालित करना पड़ता है। और कोल्हू के बैल की तरह एक अन्धी दौड़ में मनुष्य को इनके पीछे दौड़ते रहना पड़ता है। दुःख पश्चाताप, क्लेश, आत्मग्लानि, आसक्ति न जाने कितनी ही हानियाँ उठानी पड़ती हैं इनके लिए। इसमें कोई सन्देह नहीं कि विषय - भोगों में हम जितने लिप्त रहते हैं, उतने ही मृत्यु और विनाश की ओर ही अग्रसर होते जाते हैं।

क्या आपको उस व्यक्ति की घटना याद है जिसने एक सुन्दर फूल देखा? देखकर उसका मन ललचाया। उसने उसे तोड़कर नाक से सूँघा ही था कि वह दर्द में मारे चिल्ला उठा। क्यों ? उस फूल के अन्दर एक मधुमक्खी बैठी थी। सूँघते समय उसी ने उसे डंक मार दिया और वह दुःख से तिलमिला उठा। विषय भोगों का सुख भी इसी तरह है। वह हमें लुभावना लगता है। हम उसमें लीन होते हैं लेकिन परिणाम में दुःख के जहरीले डंक से भी हमें घायल होना पड़ता है।

हमारे शरीर में निहित जीवनी शक्ति ही सर्वत्र अपना काम करती है। सुनने में, खाने में, पीने में, काम करने में, यही अपना काम करती है। अन्य क्षेत्रों में शक्ति का इतना क्षय नहीं होता जितना सम्भोग में होता है। एक सीमा तक जबकि भोग मर्यादित होते हैं तब शक्ति अनावश्यक रूप से खर्च नहीं होती। लेकिन अमर्यादित वासना तृप्ति में अन्य विषयों से अधिक शक्ति का क्षय होता है। इसलिए यह अधिक हानिकारक सिद्ध होता है। संयम में ब्रह्मचर्य- इन्द्रिय निग्रह को ही अधिक महत्व दिया गया है। यद्यपि अन्य भोगों का संयम भी आवश्यक होता है लेकिन मुख्य रूप से काम वासना तथा रसना का संयम ब्रह्मचर्य का मूलाधार है, अन्य सब इसके पूरक हैं।

अनियन्त्रित, अमर्यादित वासनापूर्ति का हमारे शरीर, मन, ज्ञानतन्तुओं पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। उससे केवल कुछ शारीरिक तत्व जो कि महत्वपूर्ण होते हैं उनका क्षरण ही नहीं होता अपितु सूक्ष्म प्राणशक्ति, जीवनी शक्ति का भी बहुत बड़ा अंश व्यय होता है। इस अपव्यय से हम खोखले, रिक्त, जर्जरित बनते जाते हैं, चाहे हमारा बाहरी कलेवर कितना ही मोटा - ताजा क्यों न दीखता हो। बीमारियाँ, रोग कीटाणु जिसे धर दबाते हैं उसे मृत्यु समय- पूर्व ही उठा ले जाती है। यह सब उस जीवनी-शक्ति के अपव्यय के कारण ही होता है।

वासना में लिप्त रहने से वह जीवन रस जो शरीर को तेजवान, रसवान बनाता है काफी मात्रा में नष्ट होता है। और यही कारण है कि भोगी मनुष्य निस्तेज रसहीन सूखा-सा दिखाई देता है। उसके जीवन में सरसता, चेतना एवं स्फूर्ति जैसी चीज नाम मात्र को शेष रहती है उत्साह और साहस की मात्रा ऐसे लोगों में बहुत ही कम दृष्टि गोचर होती है।

इस तरह से होने वाले अपार क्षय को रोकने के लिये, शक्तियों को संग्रहीत सञ्चित करने के लिये, परिणाम में प्राप्त होने वाले दुःखों से बचने के लिए, हमारे पूर्वजों ने संयम तप, ब्रह्मचर्य जीवन के लिए आवश्यक बताया है। यह कोरी कल्पना नहीं है व्यवहार सिद्ध है। विषय में नष्ट होने वाली शक्ति अपने सूक्ष्म से सूक्ष्म रूपों में परिवर्तित होती हुई महत्वपूर्ण कार्यों को सम्पन्न कर देगी। ऊर्ध्वरेतस् का यही अर्थ है कि मनुष्य अपनी जीवनी शक्ति गन्दे मार्ग में नष्ट न कर उसे सञ्चित कर उत्कृष्ट कार्यों की साधना में लगाता है, इसे कई सूक्ष्म शक्तियों में परिवर्तित कर कला, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान, आदि का सृजन करने लगता है।

काम शक्ति एक महत्वपूर्ण शक्ति है जिसको निम्नगामी बनाकर उसे नष्ट करके अपने दुःखों का आधार बनाया जा सकता है समाज में अपराधों को प्रोत्साहन दिया जा सकता है या इसके विपरीत इसे संयमित कर उपयोगी महान् कार्यों में व्यक्त किया जा सकता है। और इसीलिए संयम की आवश्यकता को महत्व दिया गया है। कोई व्यक्ति यदि अपनी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, क्षमताओं को बढ़ाना चाहे, कोई महत्वपूर्ण सृजन अनुसंधान का काम करना चाहे, तो उसे संयम का पथ ही अपनाना पड़ेगा।

क्या आप शक्ति-सम्पन्न, विजयी, सफल, महान जीवन बिताना चाहते हैं? क्या आप अपना व्यक्तित्व उत्कृष्ट बनाना चाहते हैं? तो आपके लिए एक ही मार्ग है, वह है संयम का मार्ग, ब्रह्मचर्य की साधना। भोगों के पथ पर चलकर शक्ति का, महानता का, विश्वास का पथ संधान नहीं किया जा सकता। यह उतना ही सत्य है जितना छिद्र युक्त घड़े में पानी का संचय नहीं किया जा सकता। संयम को छोड़कर अन्य कोई मार्ग नहीं है अपने उत्कर्ष का, जीवन का, महानता का, सुख का, शांति का।

First 5 7 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • प्रेम और कृतज्ञता का सौंदर्य
  • आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध
  • प्रेम ही परमेश्वर है।
  • भारतीय-संस्कृति महान है
  • अकेला चल अकेला?
  • संयम की आवश्यकता
  • आत्मविश्वास की शक्ति
  • Quotation
  • संघर्ष के समर्थक-महर्षि परशुराम
  • आत्म निरीक्षण से मानसोपचार
  • Quotation
  • सत्य से बढ़कर और कुछ नहीं
  • विश्व-कवि-रवीन्द्रनाथ टैगोर
  • शान्ति और सन्तोष क्यों नहीं मिलते?
  • दुर्बलता के पाप से बचिए।
  • विश्व साहित्य के अमर निर्माता - टॉलस्टाय
  • Quotation
  • देश के लिए समाज के लिए
  • Quotation
  • विज्ञानवेत्ता-लियो जिलार्ड
  • धन्यो गृहस्थाश्रमः
  • समय जरा भी बर्बाद मत होने दीजिए
  • क्रान्तिकारिणी - भीकाजी कामा
  • खर्च करना भी सीखिए
  • बच्चों को अनुशासन कैसे सिखाया जाय?
  • छोटे-छोटे काम भी उपेक्षणीय नहीं
  • मधु-संचय
  • मधु-संचय (Kavita)
  • गुरु पूर्णिमा-पर्व की शानदार सूचनाएँ
  • वह कार्य जो हमें करना ही होगा
  • मथुरा आने का आमन्त्रण
  • अखण्ड-ज्योति छह महीने के लिए भी
  • युग -निर्माण का सत्साहित्य
  • स्वर्ग को चल पड़े स्वर्ग के देवता
  • स्वर्ग को चल पड़े स्वर्ग के देवता (Kavita)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj