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Magazine - Year 1964 - Version 2

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विश्व साहित्य के अमर निर्माता - टॉलस्टाय

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विश्व मानव की समस्या पर प्रकाशपूर्ण साहित्य के निर्माता - महामनीषी टॉलस्टाय यों रूस के नागरिक थे, पर जो कुछ उन्होंने सोचा, किया और लिखा वह विश्व नागरिक के दृष्टिकोण का ही प्रतिनिधित्व करता है। उनने संसार की विविध समस्याओं पर जिस उद्दात्त भावना के साथ विचार किया और हल खोजा, यदि वह दूसरे लोगों को भी पसन्द आ गया होता तो निस्संदेह आज यह संसार कहीं अधिक बेहतर स्थिति में होता।

रूस के सम्मानित काउण्ट परिवार में तूला जिले के एक छोटे गाँव में टॉलस्टाय सन् 1822 में जन्मे। दो वर्ष की आयु में माता और नौ वर्ष की आयु में पिता चल बसे तो दूर के रिश्ते की चाची ने उन्हें पाला। मैट्रिक पास करके वे विश्व साहित्य में बिखरे हुए ज्ञान का लाभ उठाने के लिए विदेशी भाषाएं पढ़ने बैठे, पीछे वे कानून पढ़ने लगे। इसी बीच राष्ट्र की रक्षा का प्रश्न सामने आया, तो वे पढ़ाई छोड़कर सेना में भर्ती हो गये। काकेशस की लड़ाइयों में उनने बहादुरी के साथ भाग लिया। बाद में सेवेस्तोपोल की लड़ाई में भी मोर्चे पर गये। इस बीच तीन अवसर ऐसे आये कि वे मौत के मुँह में जाने से बाल - बाल ही बचे।

युद्ध के समय जो कुछ उन्होंने देखा सुना, उससे उनकी अन्तरात्मा पर स्थायी प्रभाव पड़ा और युद्धों का अन्त करके स्थायी शान्ति का आधार खोजने के लिए वे कार्य करने लगे। सेना की नौकरी छोड़ दी और एक विचारक के रूप में मानव जीवन का स्वरूप समझने और समझाने के लिए तत्पर हुए। उन्होंने बहुत पढ़ा, बहुत सोचा और अन्त में अपनी निष्ठाओं को जन-साधारण के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए एक साहित्य-निर्माता के रूप में कार्य-क्षेत्र में उतरे। यह कार्य उन्होंने आत्मालोचना से प्रारम्भ किया। अपने निज के अन्तर्द्वन्द्वों, दोष, दुर्गुणों, दुर्बलताओं की कठोर आलोचक की तरह उन्होंने समीक्षा की। सच्चे समीक्षक का गुण है भी यही कि जिस तरह दूसरों के दोष दुर्गुणों की वह चर्चा करता है, उससे भी अधिक कठोरता के साथ यदि अपनी समीक्षा कर सके तो ही उसकी सच्चाई स्वीकार की जा सकती है। ‘टॉलस्टाय की डायरी’ उनके विनिर्मित साहित्य की अमर रचना है। इतना कठोर, इतना नग्न आत्मालोचन शायद ही किसी आत्म - कथा लेखक ने उस समय तक किया हो।

अब उन्होंने अन्य रचनाएं भी लिखनी आरम्भ कीं, जो उस समय की पत्र - पत्रिकाओं में आदरपूर्वक छपने लगीं। ‘शैशव’ नाम की उनकी सर्वप्रथम कहानी बिना लेखक का नाम प्रकट किये छपी तो उसकी प्रशंसा उस समय के प्रसिद्ध कथाकार तुर्गनेव ने भी की। इसके बाद उनकी ‘किशोरावस्था’ और ‘यौवन कथाएँ’ भी इसी प्रकार प्रसिद्ध हुईं। उनकी प्रतिभा इन कथाओं में व्यक्त परिस्थितियों के मूल्याँकन की शैली में ऐसी अच्छी तरह उभरी रहती कि पाठक उन्हें पढ़कर प्रभावित हुए बिना रह नहीं सकता था।

टॉलस्टाय जानते थे कि विशाल अध्ययन के बिना कोई व्यक्ति सही अर्थों में साहित्यकार नहीं बन सकता। जिसका ज्ञान संचय जितना स्वल्प है उसकी विचारणा भी उतनी ही संकुचित होगी। विशाल दृष्टिकोण का परिष्कार विशाल अध्ययन पर निर्भर रहता है। इसलिए उन्होंने अपनी ज्ञान वृद्धि के लिए अधिक प्रयत्न किया। रूसी भाषा में जो कुछ उनके काम का था, वह सब कुछ पढ़ डाला। इसके अतिरिक्त अन्य भाषाओं में जो उत्कृष्ट है, उसे समझने के लिए उन्होंने फ्राँसीसी, जर्मन, अरबी, ग्रीक, लैटिन, तुर्की, हिब्रू, इटालवी आदि भाषाएं पढ़ीं और उनमें लिखे गये श्रेष्ठ साहित्य का अध्ययन किया। गद्य की ही तरह उन्हें पद्य से भी प्रेम था। उन्होंने संगीत सीखा और गायन तथा वाद्य की कला में अच्छी प्रगति कर ली। अपनी ज्ञान पिपासा तृप्त करने के लिए वे विदेशों में गये और वहाँ उन्होंने बहुत कुछ सीखा समझा। इस बीच में उनकी कितनी ही रचनाएँ पत्र - पत्रिकाओं में छपती रहीं और कई पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं।

काउण्ट की आयु 34 वर्ष की हो चुकी थी। अब उसके विवाह का अवसर आया। सोफिया नामक 18 वर्षीय लड़की से उनकी घनिष्ठता बढ़ी। विवाह की बात पक्की हो गई तो उन्होंने अपनी डायरी उस लड़की को दे दी जिसमें उनके अब तक के जीवन की सभी कुत्सित घटनाओं का नग्न चित्र अंकित था। जुआ, शराबखोरी, व्याभिचार आज तक जो भी उचित अनुचित किया था वह सभी कुछ उसमें लिखा था। सोफिया उसे पढ़कर बहुत खिन्न हुई और सारी रात रोती रही। उसने अपने भावी पति का जो आदर चित्र मन में संजो रखा था वह इस डायरी ने चकनाचूर कर दिया। फिर भी उसने इतना तो माना कि यह व्यक्ति सच्चा और ईमानदार है। मुझे धोखे में रखकर प्रेम करने की अपेक्षा सच्चाई प्रकट करके सम्बन्ध टूटने का खतरा तक उठाने को तैयार है। ऐसे ईमानदार व्यक्ति संसार में मिलते नहीं। उसने इस सच्चाई और ईमानदारी को टॉलस्टाय का सबसे बड़ा गुण माना जिसके सामने अन्य सभी दोष तुच्छ हैं। सोफिया ने विवाह स्वीकार कर लिया और उन दोनों का दाम्पत्ति जीवन अन्त तक ईमानदारी और वफादारी के सुदृढ़ सूत्र में बँधा रहा।

टॉलस्टाय की भौतिक महत्वाकाँक्षायें समाप्त हो गईं। धन, यश या शान-शौकत को ओछेपन का चिन्ह मानने लगे और जीवन का स्वरूप अपने आदर्शों के अनुरूप ढालने का प्रयत्न करने लगे। शहर छोड़कर वे अपनी जन्मभूमि गाँव, यास्नाया पोल्याना चले गये और वहाँ निर्धन किसानों के बीच उन्हीं में घुल मिलकर सेवा कार्य करने लगे। बच्चों के लिए उन्होंने एक पाठशाला खोली, अशिक्षितों को पढ़ाया तथा ग्रामीणों का स्तर उठाने के लिए जो कुछ कर सकते थे करने लगे। उस समय की प्रचलित शिक्षा प्रणाली उन्हें बहुत दोषपूर्ण लगती थी अतएव उसके सुधार के लिए प्रयत्न करते थे। इस सम्बन्ध में अनेक लेख लिखे, अधिकारियों से अनुरोध किए तथा अपने चलाये स्कूल में सुधरी हुई शिक्षा पद्धति का नमूना प्रस्तुत किया। बच्चों के लिए उन्होंने साहित्य भी लिखा जिसमें तीन रीछों की कहानी बहुत ही लोकप्रिय हुई। उनके यह शिक्षा सुधार के प्रयत्न निष्फल नहीं गये। अधिकारियों ने उनके सुझावों में से कुछ को मान लिया और सरकार द्वारा कई प्रकार के हेर फेर भी किए गये।

टॉलस्टाय इस बात के पक्ष में थे कि उनकी जो भी कृति हो वह उत्कृष्ट हो। बेगार भुगतने की तरह उलटा सीधा कोई काम फूहड़ ढंग से करके रख देने के वे घोर विरुद्ध थे। वे कहा करते -- “मनुष्य की कृतियाँ ही उसके गौरव का चिन्ह हैं। यदि वे फूहड़ ढंग से की गई हैं तो अपने कर्ता के ओछेपन की चुगली सदैव करती रहेंगी और उसे लज्जित होने का साधन बनेंगी। इसलिए प्रत्येक आत्मसम्मान रखने वाले व्यक्ति को अपना हर काम इतने मनोयोग, परिश्रम एवं सुघड़ ढंग से करना चाहिए कि उसे लोक-सम्मान ही नहीं आत्म-सन्तोष भी मिले। “ उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘युद्ध और शान्ति’ तथा ‘अन्ना कैरिनिना’ विश्व साहित्य में अमर स्थान रखते हैं। उनके लिखने में उन्होंने प्रायः छह छह वर्ष लगाये। सैकड़ों पुस्तकें ढूँढ़ी, ऐतिहासिक सामग्री जमा की, पाण्डुलिपियों को वे बार - बार पढ़ते और उनमें बार-बार संशोधन करते थे। इस प्रकार वे रचनाएं कई-कई बार नए सिरे से लिखे जाने के उपरान्त ही इस योग्य समझी जातीं कि वे प्रेस में छपने दी जा सकें। उतावले नौसिखिए लेखक जो बिना किसी तैयारी के यों ही लिखना आरम्भ कर देते हैं और न छप सकने पर दूसरों पर दोष मढ़ते हैं, उन्हें टॉलस्टाय की शैली एक महत्वपूर्ण मार्ग दर्शन करती है। अच्छी वस्तु तैयार करने के लिए अपनी चीज को कड़ी समीक्षा की कसौटी पर कसते हुए उसमें ठोस तथ्यों का बाहुल्य, भावपूर्ण शैली में लिखने की कला सीखना आवश्यक है। यह कार्य धैर्य स्वाध्याय अभ्यास और अध्यवसाय के आधार पर ही संभव है। विश्व साहित्य के अमर निर्माता महर्षि टॉलस्टाय ने जो कुछ लिखा वह उनकी जीवन साधना का चिन्तन और मनन का, तप और आदर्श का मूर्तिमान प्रतिफल ही कहे जा सकने योग्य है।

समारा में उन्होंने एक नई जमीन खरीदी और वहाँ कृषि करने लगे। हरे भरे खेतों में काम करते हुए उन्हें जो प्रेरणा मिलती वह उनकी भावना क्षेत्र में प्रवेश करके लेखनी द्वारा फूट पड़ती। प्रकृति के सान्निध्य में रहकर ही उनकी कला निखरी। समारा में जब दुर्भिक्ष पड़ा तो उन्होंने एक लोकसेवी की तरह पीड़ितों की सहायता के लिए कुछ उठा न रखा, सहायता-आश्रम खोला और आपत्ति ग्रस्तों की सहायता की। सहृदयता ही किसी कलाकार का सच्चा गुण हो सकता है। टॉलस्टाय में वह यदि पर्याप्त मात्रा में न होती तो वे एक लेखक भर रह जाते-महान मनीषी कभी भी न बन पाते।

उनके जीवन काल में ही उनकी ख्याति इतनी बढ़ गई थी कि सरकारी अत्याचारों के विरुद्ध बहुत कुछ करते रहने पर भी अधिकारी उन्हें गिरफ्तार करने से घबराते थे। उनके विचारों के प्रकाशन पर प्रतिबन्ध लगाये गए। जिन रचनाओं को प्रकाशित होने से रोक दिया गया उनकी टाइप की हुई प्रतियाँ प्रचारित होती थीं। इस अपराध में प्रचारकों को और उनके सचिव को गिरफ्तार किया गया। टॉलस्टाय ने सरकार को ललकारा कि इन निर्दोषों को पकड़ने की अपेक्षा सरकार मुझे पकड़े जेल या फाँसी जो भी चाहे दण्ड दे। अनीति के विरुद्ध आवाज उठाने वाला तो मैं हूँ इसलिए दण्ड भी मुझे ही मिलना चाहिए। इस ललकार को भी सरकार ने अनसुनी ही किया और उन पर मुकदमा चलाने का साहस न किया।

यह महान मनीषी व सच्चे धर्मात्मा थे, पर उनने चर्च के आडम्बरपूर्ण ढकोसलों को मानने से इनकार कर दिया। इस पर उन्हें अधार्मिक ठहराया गया और पादरियों ने बड़ा बवाल मचाया, पर वे बिना हिचक के भारी विरोध का सामना करते हुए अपनी मान्यताओं का प्रतिपादन करते रहे। वे जितने साहसी थे उतने ही सादगी प्रिय भी थे। वेशभूषा को देखकर अजनबी व्यक्ति उन्हें एक मामूली किसान ही समझता था। एक बार वे एक स्कूल का निरीक्षण करने जाने वाले थे। अध्यापकों ने उनके स्वागत की बड़ी तैयारी कर रखी थी। नियत समय पर जब वे स्कूल पहुँचे तो दरबान ने कहा-”ए, बुड्ढे एक तरफ बैठ, एक बड़े आदमी यहाँ आने वाले हैं।” बहुत प्रतीक्षा के बाद भी जब अतिथि न आए तो अध्यापकगण निराश होकर स्कूल बन्द करने लगे। एक कोने में बैठे इस बुड्ढे ने दरबान के आदेशानुसार एक तरफ बैठे रहने की बात कही तो सबको बड़ा संकोच हुआ और इनसे क्षमा माँगने लगे। इस महापुरुष की सादगी देखते ही बनती थी।

टॉलस्टाय ने आर्थिक समानता और विश्व बन्धुत्व के विचारों का प्रतिपादन किया था सो वे यह भी चाहते थे कि उनके पास जो कुछ भी है उसे वे किसानों और गरीबों में बाँट दें, उनकी रचनाएँ छपाने का सभी को अधिकार हो। पर उनकी धर्मपत्नी इससे सहमत न थी। उसके कितने ही अबोध बच्चे थे, जिनके निर्वाह और शिक्षा के लिए उन्हें अनिश्चित छोड़ दिये जाने का विरोध करती थी। इस प्रकार पारिवारिक कलह की नींव पड़ी और वह बढ़ती ही गई। एक दिन वे नाराज होकर घर से निकल पड़े और रेल द्वारा कहीं बाहर जा रहे थे कि रास्ते में ही बीमार हो गये। एक छोटे स्टेशन पर उन्हें उतारा गया और वहीं के स्टेशन मास्टर के घर पर उनका स्वर्गवास हो गया।

महात्मा गाँधी ने टॉलस्टाय के उदात्त विचारों से बड़ी प्रेरणा ली और उनका जीवन संग्राम प्रायः इन्हीं आदर्शों के अनुकूल प्रगतिशील हुआ। उन्होंने जो कुछ सोचा, लिखा कहा और किया वह इतना महान है कि उसकी प्रेरणा मानव जाति को चिरकाल तक अनुप्राणित करती रहेगी।

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