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Magazine - Year 1965 - Version 2

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जीवन संग्राम में पुरुषार्थ की आवश्यकता

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यह संसार और मानव-जीवन संघर्षमय है। संघर्ष ही इनका स्वभाव है। जीवन भर मनुष्य को कुछ न कुछ करना ही पड़ता है। बिना संघर्ष के जीवन पथ पर एक कदम भी आगे बढ़ना सम्भव नहीं होता। गति का अभाव ही मृत्यु है। जो जीवन में विशेष सफलतायें अर्जित करना चाहते हैं, उन्हें तो और भी अधिक संघर्ष करना पड़ता है। कोई व्यक्ति चाहे कि मैं संघर्षशून्य जीवन बिता लूँ तो यह असम्भव है। इस संसार की बनावट ही कुछ ऐसी है जहाँ संघर्षहीन व्यक्ति को एक ही रास्ता है विनाश और पतन का। क्योंकि संघर्ष से बचकर भागने से एक ओर तो जीवन-निर्वाह की गति का ही क्षय होने लगता है, दूसरे बुराइयों की विरोधी शक्तियों को प्रोत्साहन मिलता है जो मनुष्य को शाँत और चुपचाप नहीं बैठने देती। इसलिए मनुष्य के सामने सम्मान सहित जीवित रहने का एक ही मार्ग है संघर्ष का, मुकाबला किया जाय पूरी शक्ति, साहस और दृढ़ता से। इस तरह के सजीव प्रयत्न को पुरुषार्थ कहते हैं। पुरुषार्थ ही जीवन का मूल मंत्र है। यही मनुष्य का सच्चा सहायक है-

अभिमानवतो मनस्विनः प्रियमुच्चैः पद्धासरुक्षतः।

विनिपात निवर्त्तनक्षमं मतमालम्बनमात्म पौरुषम्॥

“उन्नति के पद को प्राप्त करने के इच्छुक, सम्मानयुक्त धीर पुरुष आपत्ति निवारण करने में समर्थ अपने पुरुषार्थ का आश्रय लेना ही उचित मानते हैं। पुरुषार्थ ही शूरवीरों का सच्चा सहायक होता है।”

पुरुषार्थी सफलता के लिए किसी के सहारे या भाग्य कृपा की प्रतीक्षा नहीं करता वह कहता है -

कृतं में दक्षिणे हस्ते जयो में सव्य आहितः।

गोजिद् भूयासमश्वजिद् धनंज्यों हिरण्यजित्॥

“दाहिने हाथ में मैं अपना पुरुषार्थ लिए हूँ और बाँये हाथ में सफलता। प्रभु कृपा से, अपने परिश्रम से गोधन अश्वधन स्वर्ण आदि का विजेता मैं स्वयं ही होऊँ।”

जिसमें पूरी शक्ति से काम करने की दृढ़ लगन है उसके मार्ग में चाहे कितना प्रबल विरोध का प्रवाह आये, वह उसकी गति को अवरुद्ध नहीं कर सकता, पीछे नहीं हटा सकता। आप आगे बढ़ने का प्रयत्न जितनी दृढ़ता के साथ करेंगे। सफलता उतनी ही आपके समीप आती जायगी। पुरुषार्थ सब अभावों की पूर्ति करता है। इसीलिए कहा है- “उद्योगे नास्ति दारिद्रयम्” पुरुषार्थ करने पर दरिद्रता नहीं रहती। महर्षि वेदव्यास ने कहा है-

तथा स्वर्गश्च भोगश्च निष्ठाया च मनीषिता।

सर्व पुरुष कारेण कृते नेहोपलभ्यते ॥

“पुरुषार्थी को स्वर्ग, भोग, धन में निष्ठा, बुद्धिमत्ता इन सबकी उपलब्धि होती है।”

आप में योग्यता की कितनी ही कमी हो, यदि आप में वह शक्ति है जो किसी भी निर्दिष्ट लक्ष्य से हटना नहीं जानती, जो कार्य आपने शुरू किया है उसे छोड़ना नहीं जानती तो आप एक दिन सफलता की मंजिल तक पहुँच ही जाएँगे। इसके विपरीत काफी योग्यता रखते हुए भी शिथिल प्रयत्न, अधूरे मन से काम में लगने वाले, असफल हों तो इसमें किसी का क्या दोष।

कई लोग बड़े-बड़े काम करना चाहते हैं। बड़ी-बड़ी योजनायें बनाते है, भविष्य का महान नक्शा खींचते हैं किंतु उसके लिए उतना प्रयत्न नहीं करना चाहते। जितनी शक्ति और प्रयत्न की आवश्यकता होती है उतना नहीं लगाते। फलस्वरूप उन्हें पूर्ण सफलता भी प्राप्त नहीं होती-

अर्थों वा मित्र वर्गों वा ऐश्वर्य या कुलान्वितम्।

श्रीश्चापि दुर्लभा भोक्तुँ तथैवा कृतकर्मभिः॥

स्मरण रहे जितना हम पुरुषार्थ करेंगे उतनी ही सफलता के हम भागीदार होंगे। जितना गुड़ डाला जाता है उतनी मिठास बढ़ती जाती है। सिंह जब अपने शिकार पर झपटता है तो पहले धनुष की तरह पीछे की ओर तनता है और फिर सम्पूर्ण वेग से उछल जाता है। हम किसी भी काम में जितना जोर मारेंगे, उतनी ही हमारी गति तीव्र होगी। जो लोग अपने काम में पूरी शक्ति का उपयोग नहीं करते, पूर्ण पुरुषार्थ नहीं करते वे प्रायः असफल ही होते हैं।

कई बार लोग उपयुक्त अवसर तथा बाहरी सहायता की ताक में बैठे रहते हैं। लेकिन ऐसे लोगों के लिए न तो उपयुक्त अवसर आता ही है और न किसी की सहायता ही मिलती है। जो अपनी शक्ति का उपयोग नहीं करता स्वयं पुरुषार्थ नहीं करता, उसकी सहायता कौन करेगा? न इस तरह की मनोवृत्ति से सफलता ही मिलती है। सफलता तो प्रयत्नशील व्यक्तियों को ही मिलती है। नीतिकार ने कहा है-

उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथैः।

उद्यम अर्थात् पुरुषार्थ से ही सम्पूर्ण कार्य सफल होते हैं, मनोरथों से नहीं। किसी काम के बारे में कल्पना कर लेना ही पर्याप्त नहीं होता, उसके लिए पूरी मेहनत करनी पड़ती है। ऐसे लोग जो अपने भाग्य या अवसर की प्रतीक्षा में बैठे रहते है वे असफलता की तैयारी और अपनी शक्तियों को कुँठित कर देने के सिवा कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाते। यदि अपवादस्वरूप किसी को कुछ सफलता प्राप्त हो भी जाय तो वह टिकाऊ नहीं होती। और यह भी निश्चित है जिन्हें स्वयं कुछ करने का विश्वास नहीं, उन्हें सहायता के कितने ही अवसर आयें वे उनसे लाभ नहीं उठा सके। सफलता प्राप्त करने वाले दूसरे ही होते हैं, जो अपने साहस और पुरुषार्थ का सहारा लेकर चलते हैं। वे किसी का मुँह नहीं ताकते, भाग्य की कृपा या अवसर की प्रतीक्षा में नहीं बैठते। जो काम हाथ में लेते हैं उसे प्राणपण से पूरा-पूरा करने में जुट जाते हैं। चाहे कितनी ही बाधायें आयें उनके मार्ग में वे आगे बढ़ते ही जाते हैं। बहानेबाजी आलसियों का अवलम्बन है। जो काम करने से जी चुराते हैं, वे भाग्य और अवसर तथा किसी के सहारे की आशा लगाये बैठे रहते हैं।

पुरुषार्थ ही जीवन है। इसका अभाव ही मृत्यु है। पुरुषार्थहीन व्यक्ति जीवित रहते हुए भी मरे के ही समान होता है-

विपदोऽभिभवन्त्य विक्रमं रहयत्या पदुपेतमायतिः।

नियता लघुता निरातेरगरीयान्न पदं नृपद्मियः॥

“पुरुषार्थहीन व्यक्ति को विपत्तियाँ आक्रान्त कर लेती हैं और विपत्तियों से ग्रस्त होने पर उसकी भावी उन्नति रुक जाती है जिससे उसका गौरव नष्ट हो जाता है। गौरव नष्ट होने पर राज्यश्री के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता जिसका वह आश्रय ले सके।”

वस्तुतः विपत्तियों से घिरे हुए आश्रयहीन साथ ही पुरुषार्थहीन व्यक्तियों के लिए जीते हुए भी मरण का सा दुःख सहना पड़ता है।

अक्सर लोग गलत चिन्तन और अकर्मण्यता के कारण भाग्य के भरोसे बैठे रहते हैं। उसकी मनौतियाँ करते रहते हैं किन्तु भाग्य की अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। न भाग्य मनुष्य को परवश पशु की तरह ही हाँकता है। हमारा पूर्व पुरुषार्थ ही आज का भाग्य बन कर आता है और आज का पुरुषार्थ भावी भाग्य रेखायें खींचता हैं। महर्षि वाल्मीकि ने लिखा है-

“पूर्व जन्म कृतं कर्म तददैवमिति कथ्यते। तस्मात पुरुषयत्नेन बिना दैवं न सिध्यति ॥”

(बा.रा.)

“पूर्व जन्म में किया हुआ कर्म ही भाग्य कहलाता है इसलिए बिना पुरुषार्थ के भाग्य का निर्माण नहीं हो सकता।”

इतना ही नहीं पुरुषार्थ पूर्व कर्म को भी क्षय कर देता है-

“कृतं चाप्यकृतं किंचित कृते कर्माणि सिद्धचति।

सुकृतं दुष्कृतं कर्म न यथायं प्रपद्यते ॥”

(महाभारत)

“प्रबल पुरुषार्थ करने से पहले किया हुआ कोई भी कर्म अकर्म सा हो जाता है और यह प्रबल कर्म ही सिद्ध होकर अपना फल देता है। इस तरह पुण्य या पाप कर्म अपने यथार्थ फल को नहीं दे पाते।” भाग्य खुद कैसा भी पाशा फेंके किन्तु उसे प्रभावहीन निष्क्रिय बनाने की शक्ति मनुष्य के पुरुषार्थ में ही है।

इतना ही नहीं, भाग्य कितना ही महान अवसर प्रदान करे, पुरुषार्थ के अभाव में वह मनुष्य की कुछ भी सहायता नहीं कर सकता। महर्षि व्यास ने कहा है-

कृतः पुरुषकारस्तु दैवमेवानु वर्तते ।

न दैवमकृते किंचित कस्यचिद् दातुभर्हति॥

(महाभारत)

“किया हुआ पुरुषार्थ ही दैव का अनुकरण करता है। लेकिन पुरुषार्थहीन को भाग्य कुछ भी नहीं दे सकता।” भाग्य भी पुरुषार्थ का सहारा पाकर ही फलता है-

यथाग्निः पवनोद्वूतः सुसूक्ष्मोऽपि महान भवेत।

तथा कर्म समादुक्त दैवं साधु विवर्धते॥

‘जैसे थोड़ी सी अग्नि वायु का संयोग पाकर बहुत बढ़ जाती है उसी प्रकार पुरुषार्थ का सहारा पाकर भाग्य का बल भी विशेष बढ़ जाता है।”

अस्तु दोनों ही स्थितियों में भाग्य चाहे अनुकूल हो या प्रतिकूल, हम किसी भी शर्त पर अपने पुरुषार्थ का अवलम्बन न छोड़ें। क्योंकि अनुकूलता की स्थिति में पुरुषार्थ के द्वारा उसका अधिक लाभ उठाया जा सकता है और प्रतिकूलता की दशा में उसे प्रभावशून्य निष्क्रिय किया जा सकता है, ऐसी दुधारी शक्ति है पुरुषार्थ की-

दैव पुरुषकारेणयः समयः प्रबाधितुम॥

“प्रयत्नशील व्यक्ति अपने पुरुषार्थ से भाग्य को भी दवा देने की शक्ति रखता है।”

पुरुषार्थ ही स्वतन्त्रता और समता का रक्षक है। जो लोग पुरुषार्थी नहीं होते, उनकी स्वतन्त्रता और समानता के हक छिन जाते हैं। उन्हें परतन्त्र और निम्न भेदभाव पूर्ण तिरस्कृत जीवन बिताना पड़ता है। इतिहास साक्षी है कि हमने पुरुषार्थ को छोड़कर जब प्रमादी जीवन बिताना शुरू किया, अपनी शक्ति और क्षमता पर भरोसा न रखकर दूसरों से सहायता की आशा रखी, भाग्य कृपा का आश्रय लिया, तब-तब ही हमें परतन्त्र जीवन बिताना पड़ा, गुलामी के दिन काटने पड़े, दूसरों द्वारा शोषित होना पड़ा, ठोकरें खानी पड़ीं। जब हमारा सामूहिक पुरुषार्थ जगा हमने परतन्त्रता के विरुद्ध संघर्ष छेड़ा तो फिर स्वतन्त्रता और समानता के अधिकार प्राप्त कर लिए।

जो यह चाहते है कि कोई हमारी सहायता करे, हमें जीवन पथ पर चलने की दिशा दिखावे, जो सोचते हैं कैसे करूं, वे अन्धकार में ही निवास करते हैं। ऐसी स्थिति से समाज में दासवृत्ति को जीवन और पोषण मिलता हैं क्योंकि तब हम दूसरों का मुँह ताकते है। दूसरों की आशा करते है। ऐसे परावलंबी व्यक्ति कभी सफलता प्राप्त नहीं कर सकते, न अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा ही कर सकते है। हमें अपने ही पैरों पर आगे बढ़ना होगा, अपने आप ही अपनी मंजिल का रास्ता खोजना होगा। अपने पुरुषार्थ से ही अपने अधिकारों की रक्षा करनी होगी।

आज के युग में जीवन संघर्ष और भी अधिक बढ़ गया है। आज मनुष्य के लिए दो ही मार्ग रह गये हैं एक ठेलने वाला, दूसरा ठेले जाने वाला। या तो दूसरों की ठोकरों में लुढ़कने के लिए अपने आपको छोड़ दें। हम दृढ़प्रतिज्ञ होकर कुछ करें, कर दिखायें या फिर उदासीन होकर भाग्य और दूसरों की आशा लगाये जिन्दगी के दिन पूरे करते रहें, पराधीनता के रूप में जीवित मृत्यु की यन्त्रणा भुगतते रहें।

पुरुषार्थ ही हमारी स्वतन्त्रता और सभ्यता की रक्षा करने के लिए दृढ़ दुर्ग है जिसे कोई भी बेध नहीं सकता। हमें अपनी शक्ति पर भरोसा रखकर, पुरुषार्थ के बल जीवन संघर्ष में आगे बढ़ना होगा। यदि हमें कुछ करना है, स्वतन्त्र रहना है, जीवित रहना है तो एक ही रास्ता है- पुरुषार्थ की उपासना का। पुरुषार्थ ही हमारे जीवन का मूल मन्त्र होना आवश्यक है।

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