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Magazine - Year 1965 - Version 2

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अगले वर्ष की विशिष्ट साधना

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केवल उपयुक्त मनोभूमि बालों के लिए

गत अंक में यह बताया जा चुका है कि अपने प्रतिनिधियों को हम आगामी बसंत पंचमी से कुछ विशिष्ट साधना आरम्भ कराने वाले हैं और उसमें उनका ही नहीं हमारा भी योग रहेगा।

साधना और उसकी सफलता-

साधना मार्ग का यह एक प्रकट रहस्य है कि साधक अकेला ही, केवल अपने जप-तप के बल पर ही तेजी के साथ सफलता की ओर अग्रसर नहीं हो सकता। उसे कभी मार्ग-दर्शक ही नहीं, अनुदान-दाता की भी आवश्यकता होती है। यदि वह न मिले तो मंजिल कठिन पड़ती है। यों असम्भव तो कुछ भी नहीं, आत्मा में अपरिमित शक्ति विद्यमान है, वह बिना सहायता के भी अपने प्रबल पुरुषार्थ और अविच्छिन्न मनोयोग के बल पर सब कुछ कर सकने में समर्थ हो सकती है। फिर भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि इस प्रकार के एकाकी प्रयत्न कष्टसाध्य अवश्य हैं। अनाथ बच्चे भी किसी प्रकार पल जाते हैं और आशाजनक उन्नति भी कर लेते हैं पर इतना तो मानना ही पड़ेगा कि जिन बच्चों के अभिभावक मौजूद हों और उन्नति की आवश्यकता सुविधाएँ उपलब्ध हों तो वे अनाथ बालकों की तुलना में अपेक्षा कृत अधिक मात्रा में, अधिक तेजी से, अधिक शीघ्र प्रगति कर सकते हैं। आध्यात्मिक उपासना और जीवन साधना का मार्ग भी ऐसा ही है। इसमें सहचर, स्नेही, मार्गदर्शक ही नहीं अनुदान दाता की आवश्यकता भी पड़ती है और जब यह आवश्यकता पूरी हो जाय तो सफलता की सम्भावना अधिक असंदिग्ध हो जाती है।

मार्गदर्शन ही नहीं अनुदान भी-

पिता-माता को बच्चे को स्नेह देना पड़ता है, मार्ग दर्शन करना पड़ता है, साथ ही उनकी प्रगति के लिए आवश्यक वस्तुएँ, साधना सामग्री भी जुटानी पड़ती हैं। यदि कोई पिता बच्चे को स्नेह तो दे, उपदेश भी दिया करे पर उसके लिए पुस्तक, फीस, भोजन, वस्त्र आदि की व्यवस्था न करे, तो बालक की प्रगति का उद्देश्य पूरा न हो सकेगा। बिल्कुल यही बात आध्यात्मिक क्षेत्र में लागू होती है। साधना कैसे करनी चाहिए इसका विधान बना देना ही पर्याप्त नहीं, यह उद्देश्य तो पुस्तकों से भी पूरा हो सकता है। मार्ग-दर्शक या गुरु की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि वह रुकी हुई गाड़ी को गतिशील बनाने के लिए शिक्षा मात्र ही न दिया करें वरन् अपनी सामर्थ्य एवं तपश्चर्या का अनुदान देकर साधक को मंजिल तक पहुँचाने के लिए सक्रिय सहायता देता रहे।

पिता-पुत्र की परम्परा यही है। पिता अपनी कमाई अपने पुत्र के लिए खर्च करता है। वह पुत्र बड़ा होने पर अपना उपार्जन अपने बच्चों के लिए खर्च करता है इसी सिद्धान्त पर वंश-परम्परा चलती रहती है। गुरु -परम्परा की भी क्रम यही है। गुरु अपनी तपश्चर्या का अंश शिष्य को देकर उसे गतिशील बनाता है। फिर वह जब समर्थ हो जाता है, तब पूर्व क्रम के अनुसार अपनी सामर्थ्य अपने शिष्यों के लिए छोड़ता है। इस प्रकार वह परम्परा भी चलती रहती है। जहाँ यह परम्पराएँ टूटीं कि नई पीढ़ी की प्रगति का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है।

आध्यात्मिक क्षेत्र में गुरु परम्परा एक प्रकार से अवरुद्ध पड़ी हुई है। यों कहने को तो कानफूँका गुरु और कण्ठीधारी चेला सर्वत्र भरे पड़े हैं, पर उस विडम्बना में एक लकीर पीटने के अतिरिक्त सार कुछ नहीं। इसके लिए दूर आवश्यकताओं को देखना समझना पड़ेगा।

अध्यात्म का उद्देश्य और लक्ष्य-

अध्यात्म का उद्देश्य आत्मा की संकीर्णता एवं संकुचित स्वार्थपरता को दूर करके उसे अणु से विभु, तुच्छ से महान्, आत्मा से परमात्मा, स्वार्थी से परमार्थी बनाना है। इस महान् तथ्य को हृदयंगम करने वाला व्यक्ति तेजी से ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की ओर बढ़ता है और उसकी विचारणा एवं कार्यपद्धति विश्व मानव के कल्याणार्थ गतिशील होने लगती है। भाँग खाने पर नशा चढ़ना ही चाहिए। जिसके पीने से नशा न आवे वह शराब कैसी ? इसी प्रकार अध्यात्मवादी का परमार्थी होना निश्चित है। जिसकी आत्मा में अध्यात्म का प्रकाश चमकेगा वह अपनी प्रभा से दूसरों को प्रकाश दिये बिना रह ही न सकेगा। यह हो नहीं सकता कि कोई व्यक्ति आध्यात्मवादी तो हो पर उसकी विचारणा और कार्य पद्धति स्वार्थ की संकुचित सीमा में अवरुद्ध बनी रहे।

आज अध्यात्म के नाम पर जो भ्रम जंजाल चारों ओर फैला फिर रहा है उसमें वास्तविकता नहीं के बराबर और आडम्बर पहाड़ के बराबर भरा पड़ा है। लोग इसलिए अध्यात्म-मार्ग को नहीं अपनाते कि उन्हें ऐसा उत्कृष्ट आत्म-बल मिले जिससे महापुरुषों के पथ का अनुगमन करते हुए अपना जीवन लक्ष्य पूरा करें और संसार को समुन्नत बनाने में अधिकाधिक त्याग बलिदान कर सकने का सौभाग्य प्राप्त हो। आज तो लोक-परलोक में स्वार्थ, मुक्ति चाहते हैं, ऋषि-सिद्धियों से सम्पन्न चमत्कारी सिद्ध बनना चाहते हैं, संसार में धन, सन्तान, यश, बल, सत्ता आदि चाहते हैं, ऐसी अगणित स्वार्थपरताएँ और कामनाएँ उनके रोम-रोम में भरी पड़ी रहती हैं। उन्हीं की पूर्ति का एक सस्ता उपाय उन्हें अध्यात्म दीखता हैं। महीने दो महीने, दस-पाँच माला फेर कर वे न जाने कितने मनोरथ पूरे करना चाहते हैं। उसी के लिए वे कोई जन्त्र-मन्त्र जपते हैं, किसी देवी देवता पर भोग प्रसाद चढ़ाते, किसी तीर्थ, देव का दर्शन करते देखे जाते हैं।

उपयुक्त मनोभूमि की आवश्यकता-

गहराई से विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाता हैं कि उपरोक्त प्रकार की मनोभूमि को विशुद्ध रूप से भौतिकवादी मनोभूमि ही कह सकते है। जिसका लक्ष्य भौतिक हो, सीमित स्वार्थपरता हो, उसे अध्यात्म कहना वस्तुतः अध्यात्मिकता को अपमानित करने के समान है। जब लोगों का उद्देश्य ही अध्यात्म नहीं रहा तो उस क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाले गुरु शिष्य भी क्या होंगे ? लक्ष्य सही है तो अध्यात्म की चर्चा करना उचित है। अन्यथा यहाँ भी वैसी ही लूट खसोट रहेगी जैसी भौतिक जगत के हर क्षेत्र में चलती है। शिष्य चाहेगा कि गुरु की तपश्चर्या लूटी खसोंट कर उनसे अपने भौतिक प्रयोजन सिद्ध कर लूँ। गुरु चाहेगा शिष्य को किसी प्रपंच में फाँसकर उसकी गाँठ काटने के लिए जो भी तरकीब हो सकती हो उसे बरत लूँ। ऐसी आपा-धापी जहाँ फैली हो, वहाँ अध्यात्म साधना, गुरु, शिष्य, ईश्वर सिद्धि आदि शब्दों की दुर्गति हो रही ही कही जा सकती है। उन परिस्थितियों में गुरु-परम्परा क्या निभेगी। उस नकली साधना का फल भी किसी को क्या मिलेगा ?

दीन नहीं दानी बनें-

दीन दुखियों की सहायता आवश्यक है। जिस प्रकार धनी लोग निर्धनों की एक सीमा तक सहायता करते हैं, उसी तरह तपस्वी लोग दूसरों की कठिनाइयों में भी एक सीमा तक सहायता करते रहते हैं, करनी भी चाहिए। यह एक मानवीय प्रश्न है। ईश्वर भी इसी प्रकार अपनी करुणा के परिचय दीन दुखियों के लिए देता रहता है। इस दृष्टि से की हुई प्रार्थना भी कुछ न कुछ लाभ ही करती है। पर इन बातों को अध्यात्म या साधना नहीं कहना चाहिए। क्योंकि उनका उद्देश्य ही भिन्न है। आत्मा की मलिनता और संकीर्णता का परिष्कार कर उसे उदात्त, महान् एवं परमार्थ परायण बनाना ही अध्यात्म होता है। इस दिशा में जितनी आकांक्षा प्रबल हो, जितना प्रयत्न प्रबल हो, जितनी प्रगति हो रही हो, वहाँ उतनी ही अध्यात्म की विद्यमानता माननी चाहिए। ऐसा अध्यात्म ही कल्प-वृक्ष, अमृत, पारस आदि के नाम से पुकारा जाता है, उसी को पाकर जीव ईश्वर बनता है। भिखमंगे, लालचियों का अध्यात्म उन्हें कुछ टुकड़े दिलाने के अतिरिक्त और किसी प्रकार की उपलब्धियों से लाभान्वित नहीं कर सकता। इस श्रेणी के लोग ईश्वर के कृपा पात्र भी नहीं बन सकते जब उनकी भक्ति ही झूठी हैं तो बदले में ईश्वर का पक्का प्यार भी कैसे मिल सकता है ? इतिहास में जितने भी महान् ईश्वर भक्त हुए हैं उनके जीवन पर दृष्टि डालने से स्पष्ट हो जाता है कि उनमें से हर एक को स्वार्थपरता के क्षेत्र से आगे बढ़कर परमार्थ परायणता का परिचय देना ही पड़ा है। यह मार्ग लालचियों का नहीं, दानियों का है। यहाँ हरिश्चन्द्र, दधीचि, बुद्ध और गांधी जैसों को प्रवेश मिलता है। ईश्वर की जेब काट लेने के फेर में पड़े हुए लोगों को खाली हाथ ही रहना पड़ता है। आखिर ईश्वर भी कुछ तो बुद्धि रखता ही है, उसे सहज ही उल्लू नहीं बनाया जा सकता।

उपासना के विविध स्तर-

हम अब तक गायत्री उपासना की विविध विधि शिक्षायें देते रहे है। साधारण लौकिक कष्टों को दूर करने वाली सकाम उपासनायें दीन-दुखियों के कल्याणार्थ थीं। सूक्ष्म शरीर के पाँच आवरणों को हटाने के लिए पंचकोष की साधनाएँ हैं इनसे मानवीय शक्तियों के गुप्त केन्द्रों का प्रकाश प्रस्फुटित होने में सहायता मिलती है। शास्त्रकारों ने जिस विधि-विधान का उल्लेख किया है, उन विधानों को सही रूप में जन-साधारण तक पहुँचाना हमारा कर्तव्य था। ऋषि ऋण से उऋण होने के लिए यह हमें करना ही चाहिए था। किया भी है और करते भी रहेंगे। अब गुरु परम्परा का प्रश्न आता है। हमारे प्रातः स्मरणीय गुरु देव ने हमें अपनी परम्परा के अनुसार गायत्री उपासना का सम्वल थमाया और साथ ही अपना अनन्त वात्सल्य एवं अजस्र अनुदान भी समय-समय पर प्रदान किया। यदि वह सब प्राप्त न हुआ होता तो इस जीवन में जितनी मंजिल पार कर ली गई हैं उसका सौवाँ भाग भी अपने निज के पुरुषार्थ से पूरा न हो सका होता।

बसन्त पंचमी से शुभारम्भ-

अब चूँकि हमारा कार्यक्रम पूर्ण होने जा रहा है, इसलिए यह आवश्यक हो गया है कि इस साधना परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए दूसरे मजबूत हाथों में सौंप दिया जाय। जो उपयुक्त व्यक्ति होंगे उन्हें इसी बसन्त पंचमी से उस साधन क्रम का आरम्भ भी करा देंगे। साधना का विस्तृत विवरण फरवरी के अंक में होगा। बसन्त पंचमी 4 फरवरी की है। तब तक शायद सब के पास अखण्ड-ज्योति न पहुँच पाये ऐसी दशा में उस दिन इतना ही करना पर्याप्त होगा कि उस दिन उपवास रखा जाय। दूध, दही, शाक, फल पर रहा जाय। प्रातःकाल सूर्योदय से एक घण्टा पूर्व उठकर शरीर को शान्त और मन को स्थिर रखकर ऐसा ध्यान किया जाय कि-”हमारे चारों ओर एक प्रकाश पुंज आच्छादित है और उसकी सूक्ष्म तरंग हमारे शरीर एवं मन के कण-कण में प्रवेश करती हुई नया प्रकाश, नया उल्लास एवं नया सन्देश धारण करा रही है।” यह भावना जितनी गहरी श्रद्धा और जितने अधिक विश्वासपूर्वक की जायेगी, उतना ही उत्तम होगा।

सूर्य उदय से पूर्व यह ध्यान समाप्त कर लेना चाहिए। शौच आदि से निवृत्त होकर बैठना चाहिए। जिनके शरीर दुर्बल हैं वे बिना स्नान के भी बैठ सकते हैं। बसन्त पंचमी के दिन इतना ही ध्यान पर्याप्त है। बाकी अपना नित्य कर्म करें और जो उपासना क्रम चल रहा हो उसे चालू रखें। फरवरी अंक पहुँचने पर अपनी साधना योजना उस आधार पर बनावें।

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