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Magazine - Year 1965 - Version 2

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खाद्य-पदार्थों में मिलावट कैसे दूर हो।

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वस्तुओं में खासकर खाद्य-पदार्थों में मिलावट रोकने के लिए सरकारी प्रयत्न तो होने ही चाहिए। सरकार कड़े कानून बनाकर, मिलावट करने वाले अपराधियों को कड़ा दण्ड देकर, इस रोग को समाज से दूर करने के लिए बहुत कुछ कर सकती है। सरकारी क्षेत्र से इस तरह के प्रयत्न चल भी रहे हैं। लेकिन लोकतन्त्र में किसी भी समस्या को सरकार के ऊपर ही नहीं छोड़ा जा सकता। कानून और दण्ड से ही बुराइयों को नहीं मिटाया जा सकता। हाँ, एक अंश रूप में ये समस्या को निपटने के लिए सहायक हो सकते है लेकिन समस्या के स्थायी समाधान के लिए लोकमत को जागृत होना पड़ेगा। खाद्य-पदार्थों में मिलावट का मसला सरकार पर ही पूर्णतया नहीं छोड़ा जा सकता। हमें व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर इसका मुकाबला करना होगा। बुराइयाँ अपराध तभी समाप्त किये जा सकते हैं जब कि समाज में उन्हें सहन न करने की जागृति आये।

बुराइयों के फलने-फूलने और बढ़ने का एक और कारण हैं, वह है-समाज की नपुँसक वृत्ति, प्रतिरोध करने की क्षमता का अभाव। जब हम चुपचाप, व्यापारी या दुकानदार से मिलावट किये हुये सामान खरीद कर चुपचाप नीचा मुँह किये चले जाते हैं, घी में डालडा, हल्दी में पीली मिट्टी, दूध में अरारोट, आटे में सेलखड़ी, बूरे में पाउडर आदि का चुपचाप, सब कुछ जानबूझ कर भी उपयोग करते रहते हैं तो फिर क्यों न मिलावट करने वालों का हौसला बढ़ेगा ? क्यों न अधिक मिलावट करने वालों के लिए उनका उत्साह बढ़ेगा ?

लोकतन्त्र में बुराइयों को जब तक जनता का समर्थन मिलेगा या समाज उन्हें चुपचाप सहन करता रहेगा तो सरकार कितने ही प्रयत्न करे उन्हें दूर नहीं किया जा सकता। मिलावट की समस्या का हल तभी हो सकेगा जब इस तरह की असामाजिक प्रवृत्तियों को सहन न करने की सामर्थ्य हममें पैदा होगी।

यद्यपि किसी भी देशव्यापी समस्या को देखकर हम हिम्मत हार बैठते हैं कि इतनी बड़ी समस्या के लिए कुछ लोग क्या कर सकते हैं, लोगों को अपने कामों से ही फुर्सत नहीं मिलती। लेकिन इस प्रकार सोचने से भी तो काम नहीं चलता हैं। ठीक है, हम देशव्यापी समस्या का हल नहीं कर सकते लेकिन अपने पड़ौस, अपने गाँव, शहर और कस्बे में तो इसके लिए प्रयत्न कर सकते हैं। जहाँ हम रहते हैं, वहीं उपभोक्ताओं का संगठन बनाकर, इस अन्याय का मुकाबला कर सकते हैं “अपने क्षेत्र में मिलावट नहीं होने देंगे।” इस संकल्प के साथ यदि उपभोक्ता लोग एक होकर काम करें तो बेचने वाले की कोई हिम्मत नहीं हो सकती कि हमें विषाक्त पदार्थ दे। मिलावट करने वाले व्यापारियों का बहिष्कार करना, उनके विरुद्ध सामूहिक आन्दोलन, प्रदर्शन करना इसके लिए उपयुक्त रहेगा। इसके साथ-साथ जन-साधारण में मिलावटी वस्तुओं कौन खरीदने की जागृति पैदा करनी होगी। उन्हें शिक्षित करना होगा कि अपनी गाढ़ी कमाई के बदले बाजार से मिलावटी पदार्थों का विष नहीं खरीदना है। जिस समाज में इस तरह की चेतना, जागृति पैदा हो जाय तो फिर कोई आधार नहीं रह जाता कि विक्रेता उसे अधिक समय धोखा देता रहे।

मिलावट करने वाले व्यापारी उद्योगपतियों का विरोध, उनके साथ असहयोग आदि के साथ-साथ हमें रचनात्मक दृष्टि से भी विचार करना होगा। वस्तुएँ शुद्ध रूप में मिल सकें, इसके लिए उपभोक्ताओं को अपने सहकारी भण्डार, दुकानें आदि चालू करने चाहिए। सरकारी सहयोग भी इस सम्बन्ध में मिल सकता है। वस्तुतः स्वास्थ्यप्रद, ताजा, शुद्ध वस्तुयें उपयुक्त मूल्य पर जनसाधारण को मुहैया करना भी आज के युग में कोई कम सेवा नहीं है समाज की।

प्रत्येक व्यापारी, उद्योगपति का भी अपने देश, समाज, मानवता के प्रति कुछ कर्तव्य होता है, कुछ उत्तरदायित्व होता है। इन सामाजिक उत्तरदायित्वों, मानवीय कर्तव्यों को चाँदी के चन्द टुकड़ों के लिए उपेक्षित नहीं करना चाहिए। उनके द्वारा समाज को होने वाली हानि पर सोचना चाहिए। कदाचित् ठण्डे दिल से कोई व्यापारी ऐसा सोचे तो फिर उसकी आत्मा इस अनुचित कार्य के लिए आज्ञा नहीं दे सकती।

यह भी सत्य है कि मिलावट करने वाले व्यापारियों को मजदूर, नौकर, सहयोगी के रूप में हम लोगों में से ही सहायता मिलती है। अपनी आँखों के आगे ही इस तरह सामाजिक पाप को होते हम नित्य देखते हैं। कदाचित् दुकानों, उद्योग संस्थानों, मिल फैक्ट्रियों में काम करने वाले मजदूर, नौकर उन्हें सहयोग न दें, मिलावट के पाप कृत्य में सहायक न बनें तो समस्या बहुत कुछ हल हो सकती है। व्यापारियों की संख्या नगण्य है। वस्तुतः उनका कारोबार चलाने वाले तो हम ही लोगों में से होते है। यदि हम सहयोग न देकर इस दुष्कृत्य के लिए उनका विरोध करें, काम बन्द कर दें तो अकेला विक्रेता भी कुछ नहीं कर पाएगा यह निश्चित है।

खाद्य पदार्थों के उत्पादन का कार्य व्यक्तिगत स्वरूप में न रहकर सामाजिक अधिकार के अंतर्गत हो। क्योंकि व्यक्तिगत क्षेत्र में इसका उद्देश्य मुनाफा कमाना, अपना अधिक से अधिक लाभ निकालना हो सकता है। ऐसी स्थिति में कई बार आवश्यकता से अधिक मात्रा में वस्तुएँ तैयार की जाती हैं, जिन्हें सड़ने या बासी होने से बचाने के लिए कई रसायन द्रव्यों का उपयोग किया जाता है। एक तो पुराना बासी पदार्थ, फिर उसमें रसायनों की मिलावट, दोनों ही उसके विषाक्त होने के कारण बन जाते हैं। फिर व्यक्तिगत केन्द्रीय संस्थानों में मिलावट करने की सरलता, सुविधा रहती है। क्योंकि यह सब परोक्ष रूप से होते हैं। लेकिन सामूहिक क्षेत्रों में जहाँ वस्तुओं का उत्पादन लाभ के लिए नहीं वरन् उपयोग के लिए किया जाय, मिलावट या उनके सड़ने के लिए कोई गुँजाइश नहीं रहती। उपभोक्ताओं की माँग के अनुसार ही वहाँ उत्पादन हो और वह तुरन्त बट जाना चाहिए। उत्पादन पर व्यक्तिगत नियन्त्रण न रहकर सामाजिक नियन्त्रण रहे तो भी मिलावट की समस्या बहुत कुछ हल हो सकती है।

खाद्य-पदार्थों में मिलावट को रोकने के लिए हमें लोकमत जागृत करना पड़ेगा, मिलावट करने वालों के प्रति विरोध, असहयोग, बहिष्कार करना होगा, सहकारी उपभोक्ता स्टोर खोलने होंगे, व्यक्ति का मूल्य पैसे से नहीं उसके चरित्र से देखा जाएगा, उत्पादन का कार्य विकेन्द्रित कर सामाजिक नियन्त्रण में लाना होगा तभी हम इस बुराई को मिटा सकेंगे। और सबसे आवश्यक बात यह है कि हमें इसके लिए दृढ़ विश्वास, लगन, उत्साह से काम करना होगा। अपना नुकसान उठाकर, कई खतरे झेल कर हमें इस समस्या के विरुद्ध संघर्ष छेड़ना होगा तभी हम अपने समाज, देश, जन-जीवन को नष्ट, रुग्ण, क्षीण होने से और शोषण होने से बचा सकेंगे। सचमुच मिलावट का यह रोग हमारे लिए एक चुनौती है जिसे हम सभी को स्वीकार करना चाहिए।

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