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Magazine - Year 1965 - Version 2

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साँस्कृतिक उत्थान की नींव बाल-उत्थान

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भूलों, त्रुटियों और पापपूर्ण जीवन को कठोर तपश्चर्या और गहन पश्चाताप के बाद भी उतना पवित्र और निर्मल नहीं बना सकते जितना प्रारम्भिक जीवन के चरित्र निर्माण से ही मनुष्य का जीवन शुद्ध होता है। अंतर्मन में प्रसुप्त कुसंस्कार जब भी अनुकूल परिस्थिति पाते हैं, तभी मस्तिष्क में घोर क्रान्ति उत्पन्न कर देते हैं जिससे आन्तरिक पवित्रता पर बार-बार मल-विकारों का उतार चढ़ाव बना रहता है। इस स्थिति के रहते स्वाभाविक उज्ज्वलता आ नहीं पाती। इसलिये भारतीय धर्म का निरूपण करने वाले आचार्यों ने यह व्यवस्था पहले ही बना दी थी कि लोगों के चरित्र उनके शैशव काल में ही दृढ़ कर दिये जाएँ। आयु बढ़ने के साथ उनमें चारित्र्यक प्रौढ़ता आती जाती थी। ऐसे मनुष्य ही आगे चलकर महान्, मनस्वी, तेजवान् तथा आत्म-बल सम्पन्न होते थे। जब तक यह परम्परा देश में यथावत् चलती रही, तब तक यहाँ सुख शान्ति और समृद्धि में किसी बात में कमी नहीं रही।

किन्तु आज जिस रूप में बालकों को इतना उपेक्षित देखते हैं, उससे प्रत्येक विचारवान् को गहरा धक्का लगता है। बालकों के नैतिक अपराध आज जिस गति से बढ़ रहे है, उन्हें देखते हुए, समाज सुधारकों का चिन्तित होना स्वाभाविक ही है। स्वभाव में जब द्वेष तथा दुर्गुण गहराई तक जम जाते हैं तो यदि किसी प्रकार के सुधार के कार्यक्रम बनाये भी जाएँ तो उनमें भारी शक्ति लगाकर भी मनोवाँछित सफलता मिलती नहीं है। व्यवहारिक कठिनाई यह है कि हमारे अभिभावक इस जिम्मेदारी को उदारतापूर्वक वहन नहीं करते। अधिकाँश को तो इस विषय में ज्ञान ही नहीं होता कि बालकों का चारित्र्यक विकास किस प्रकार करें। स्वेच्छाचारी बालक समाज के द्वेष-दुर्गुणों को ही ग्रहण कर लेते हैं क्योंकि यही सब तो उनके आस-पास जमा होते हैं। बालकों का निर्माण गर्भावस्था में आने से ही होने लगता है। इस आवश्यकता को ध्यान में रखते हुये ही भारतीय आचार्यों ने संस्कार-पद्धति चलाई थी। इससे बालकों के नैतिक-प्रशिक्षण में किसी प्रकार की कठिनाई उत्पन्न नहीं होती थी।

दार्शनिक सुकरात के पास एक स्त्री गई। उसने पूछा गुरुदेव! अपने बच्चे की शिक्षा मैं कब से प्रारम्भ करूं?

“बच्चे की उम्र क्या है?” सुकरात ने पूछा।

‘चार वर्ष।’ स्त्री ने सरलता से उत्तर दिया।

“तब तो आप चार वर्ष नौ माह, बच्चे को शिक्षा देने में पीछे रह गई।” सुकरात ने उसका समाधान किया। माता के आहार विहार आदि से बच्चे के संस्कार बनना प्रारम्भ हो जाते है, अतएव यह कहना अत्युक्ति नहीं कि गर्भावस्था से ही बच्चों की शिक्षा प्रारम्भ कर देनी चाहिये। हमारे यहाँ यह पद्धति क्रमिक और वैज्ञानिक थी। यही कारण था कि घर-घर ध्रुव, प्रह्लाद, भरत, अभिमन्यु जैसे प्रतिभाशाली बच्चे जन्म लिया करते हैं अब उन प्रथाओं को फिर से जाग्रत करने की आवश्यकता है। साँस्कृतिक उत्थान की नींव बालकों के उत्थान से प्रारम्भ करें तभी चारित्र्यक समृद्धि अपने मौलिक रूप में आ सकेगी।

बालकों को संस्कारवान् बनाने का अभ्यास उनके गर्भ में आने से ही प्रारम्भ करना चाहिये। माता-पिता की मनोदशा का बालक की मनोदशा पर प्रभाव पड़ता है। माता के शरीर से रस और रक्त लेकर उसका स्वास्थ्य बनता है। उनके रहन-सहन का सूक्ष्म प्रभाव बालकों की आत्मा पर पड़ता है। अतएव खान-पान, रहन-सहन तथा व्यवहार में माता-पिता को गर्भावस्था में बालक के आते ही सात्विकता का पर्याप्त समावेश कर लेना चाहिये। जो माताएँ मिर्च मसाले, खटाई, तीखे, कसैले बासी भोजन का प्रयोग करती हैं उनके बच्चे अधिकाँश क्रोधी, दुष्ट तथा तामसी प्रकृति के होते हैं। वस्त्र, आभूषण, बोली भाषा आदि का भी गर्भस्थ बच्चे पर प्रभाव पड़ता है। पति-पत्नी में प्रेम और सदाचार न हो तो बच्चे भी दुर्गुणी, नास्तिक तथा चिड़चिड़े प्रकृति के होते है। इन सभी बातों का माता-पिता को पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है।

जन्म लेने के पश्चात् किशोरावस्था में आने तक बच्चा अधिकाँश माता के ही संरक्षण में रहता है। उस समय माता की चेष्टाओं और क्रियाकलापों का बालक बड़ी सूक्ष्मता से अवलोकन करता रहता है, इसलिए यह समय माता की सब से बड़ी जिम्मेदारी का होता है। इस अवस्था में बच्चों को भय दिखाना, अपवित्र रखना, उन्हें निद्रा आदि के लिये नशीली, वस्तुयें खिलाना हानिकारक होता है। कामजन्य चेष्टायें, क्रोध, कलह आदि का दूषित प्रभाव बालक पर पड़े बिना रहता नहीं। जिन स्त्री-पुरुषों में पारस्परिक स्नेह, प्रेम और मैत्री की भावना नहीं, उनके बच्चे स्वभावतया उद्दण्ड और स्वेच्छाचारी ही बनते हैं अतएव यह हमेशा ध्यान बना रहे कि आप कोई ऐसी चेष्टा नहीं करते जो बालक के कोमल मस्तिष्क पर अपना बुरा असर जमा ले।

पाँच वर्ष की अवस्था आ जाने पर बालक की ज्ञान-पिपासा बढ़ने लगती है। अभी तक जिन वस्तुओं को मात्र खेल और तोड़-फोड़ की जरूरत समझता था, अब उनके प्रति उसका जिज्ञासा भाव बढ़ने लगता हैं। इस उम्र में बच्चों को चित्र, कथा कहानियाँ बहुत पसन्द आती है। लोरियाँ व मधुर संगीत के प्रति भी उनकी रुचि जागृत होती है। इनके लिये वे कभी-कभी हठ भी करते हैं। इस समय बालकों को सुन्दर-सुन्दर चित्र, जिसमें महापुरुषों के चित्र, प्राकृतिक दृश्य आदि हों, दिखाने चाहिये। कलात्मक वस्तुओं से अपने निवास को सजाना और बालकों में उसकी रुचि पैदा करनी चाहिये। महापुरुषों की जीवनियाँ सरल व सुबोध ढंग से सुनानी चाहिये। करुण, शान्त और मनोरंजक लोरियों से बालकों का मन-बहलाव भी होता है और उनके मनोजगत में सात्विक संस्कारों का आविर्भाव भी होने लगता है। इस अवस्था में चाहें तो बच्चे का मस्तिष्क किसी भी दिशा में लगा सकते हैं।

इस युग में शिक्षा का उद्देश्य अर्थ-उपार्जन हो गया है अतएव यह तो सम्भव नहीं है कि गुरुकुल प्रथा का एकाएक प्रचलन हो जाये पर इतना तो प्रत्येक अभिभावक कर ही सकते है कि बालकों को पूर्ण ब्रह्मचर्य और संयम के साथ रखकर उन्हें शिक्षित तथा विचारवान् तो बना दें। अपरिपक्व अवस्था में विवाह या साँसारिक व्यवसाय आदि में लगा देना भारी भूल है। अनुभवहीनता के कारण ऐसे बच्चों का जीवन प्रायः असफल ही रहता है और उन्हें जीवन भर तरह-तरह के दुख, कष्ट और क्लेश भुगतने पड़ते है। गृहस्थ की दुर्दशा का एक जबर्दस्त कारण यह भी है कि गृहस्थी की बागडोर जैसे मजबूत हाथों में पड़नी चाहिए थी वैसे, हाथ मजबूत हो नहीं पाते। अनियन्त्रित घोड़ों वाले रथ की जो दशा होती है, ठीक वैसी ही दुर्दशा उस गृहस्थी की भी होती है जिसके सदस्यों को न तो जीवन जीने की कला ही आती है, न उनमें इतना ज्ञान और अनुभव ही होता है। अंधपरंपराओं के रूप में चल रही आज की गृहस्थियों में किस प्रकार के द्वन्द्व छाये हैं, यह किसी से छुपा नहीं है।

शिक्षा मनुष्य के जीवन को सत्यवादी और कर्मशील बनाती है। यह शिक्षा यदि धार्मिकता से अनुगणित रहे तो गृहस्थ जीवन में वह आनन्द आता है कि मनुष्य की बार-बार इस भूमि में आकर जन्म लेने की इच्छा होती है। सामाजिक प्रगति और राष्ट्रीय उत्थान के लिए भी यह आवश्यक बात है कि यहाँ का प्रत्येक नागरिक शिक्षित तथा धर्म-दीक्षित बने। शिक्षा मनुष्य का बौद्धिक विकास करती है और आध्यात्मिकता लौकिक तथा पारलौकिक सुखों का आधार बनाती है। इस प्रकार मनुष्य का इहलोक और परलोक दोनों ही सुधरते हैं। जीवन के समग्र-विकास का सबसे अच्छा उपाय और कुछ हो नहीं सकता।

साँस्कृतिक उत्थान के लिए आत्म निरीक्षण और जीवन शोधन के द्वारा अपना जीवन समुन्नत बनायें, पर यह न भूलें कि इतने से ही अपनी संस्कृति को आर्ष रूप में लाना सम्भव न होगा। आज की सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि हमारे बालकों का चारित्रिक विकास हो। बालकों का नैतिक-उत्थान होगा तो वह परिस्थितियाँ आते देर न लगेगी जिनमें हमारे समाज का गौरव फिर से अपने पूर्व-रूप में झिलमिलाने लगेगा।

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