• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • श्रम ही नहीं- अविराम श्रम चाहिये।
    • आत्म-विश्वास ही अटूट शक्ति
    • “मामेकं शरणं व्रज”
    • Quotation
    • आत्म-साक्षात्कार के लिए सच्चरित्रता अनिवार्य
    • अपने जीवन में प्रकृति को प्रवेश होने दीजिये।
    • सुख और दुःख दृष्टिकोण मात्र हैं।
    • निराशा से बचने का उपाय-कम कामनाएं
    • परंपराएं बदली भी जा सकती हैं।
    • Quotation
    • जन-जागरण के अमर साधक-गुरु रामदास
    • भारतीय मस्तिष्क के गौरव सर जगदीशचन्द्र वसु
    • Quotation
    • भोजन भगवान को समर्पित कर लिया करें।
    • नारी का सुयोग्य होना आवश्यक है।
    • धन को सम्मानित न किया जाय।
    • आदर्शवादिता की प्रतिमूर्ति-श्री लाल बहादुर शास्त्री
    • विवेकानन्द
    • ममता और करुणा की मूर्ति-कुमारी डायना बालेमी?
    • Quotation
    • आकस्मिक लाभ का वरदान
    • बच्चों को भीरु नहीं वीर बनाइये
    • विवाह संस्कार को कौतुक न बनाया जाय।
    • गन्दगी एक सामाजिक अपराध
    • जीवन का काया-कल्प करने वाला एक वर्षीय प्रशिक्षण
    • एक वर्षीय प्रशिक्षण योजना
    • इन अनुरोधों की उपेक्षा न की जाय।
    • युग निर्माताओं से-
    • युग निर्माताओं से (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • श्रम ही नहीं- अविराम श्रम चाहिये।
    • आत्म-विश्वास ही अटूट शक्ति
    • “मामेकं शरणं व्रज”
    • Quotation
    • आत्म-साक्षात्कार के लिए सच्चरित्रता अनिवार्य
    • अपने जीवन में प्रकृति को प्रवेश होने दीजिये।
    • सुख और दुःख दृष्टिकोण मात्र हैं।
    • निराशा से बचने का उपाय-कम कामनाएं
    • परंपराएं बदली भी जा सकती हैं।
    • Quotation
    • जन-जागरण के अमर साधक-गुरु रामदास
    • भारतीय मस्तिष्क के गौरव सर जगदीशचन्द्र वसु
    • Quotation
    • भोजन भगवान को समर्पित कर लिया करें।
    • नारी का सुयोग्य होना आवश्यक है।
    • धन को सम्मानित न किया जाय।
    • आदर्शवादिता की प्रतिमूर्ति-श्री लाल बहादुर शास्त्री
    • विवेकानन्द
    • ममता और करुणा की मूर्ति-कुमारी डायना बालेमी?
    • Quotation
    • आकस्मिक लाभ का वरदान
    • बच्चों को भीरु नहीं वीर बनाइये
    • विवाह संस्कार को कौतुक न बनाया जाय।
    • गन्दगी एक सामाजिक अपराध
    • जीवन का काया-कल्प करने वाला एक वर्षीय प्रशिक्षण
    • एक वर्षीय प्रशिक्षण योजना
    • इन अनुरोधों की उपेक्षा न की जाय।
    • युग निर्माताओं से-
    • युग निर्माताओं से (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1966 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
SCAN TEXT


जन-जागरण के अमर साधक-गुरु रामदास

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 9 11 Last
भारतवर्ष का जहाँ यह दुर्भाग्य रहा है कि इसे संसार में सबसे अधिक आक्रमणों एवं अत्याचारों को सहन करना पड़ा है, वहाँ यह सौभाग्य भी रहा है कि आवश्यकतानुसार इसमें समय-समय पर ऐसे महापुरुषों का जन्म भी होता रहा है, जिन्होंने साधन एवं परिस्थितियों के अनुसार अन्धकार में डूबे भारत को प्रकाश की ओर बढ़ाया है। ऐसे ही युग-पुरुषों में गुरु रामदास का प्रमुख स्थान है।

उस समय भारत पर यवनों को राज्य था। मुगल सम्राट औरंगजेब धर्मान्धता के वशीभूत होकर मन्दिरों तथा मूर्तियों को तुड़वा रहा था। असहाय हिन्दुओं के शिखा सूत्र काटे और सिर उतारे जाते थे। सैकड़ों साल निरन्तर लड़ते रहने से राजपूत राजा निरस्त हो चुके थे। धर्मोद्धार का कोई मार्ग दिखाई न दे रहा था। बड़ी भयंकर परिस्थिति चल रही थी।

समर्थ गुरु रामदास ने जिनका घर का नाम नारायण था, यवनों के इस असह्य अत्याचार की पीड़ा अनुभव कर ली थी। बालक नारायण उस समय उसके प्रतिकार के विषय में तो कुछ अधिक न समझ पा रहा था केवल भारतीय संस्कारों के कारण इतना अवश्य जानता था कि तपस्या एवं सच्चे मन से भगवद्भक्ति करने से सारे संकट दूर हो जाते हैं। इसके साथ उसे यह भी विश्वास था कि यदि समाज के सब लोग मिलकर उद्धार के लिए भगवान् से प्रार्थना करें तो अवश्य कल्याण हो जाये। तपस्वीजन यदि अपने तप का भाग समाज कल्याण के लिये प्रदान करे दें तो कोई कारण नहीं कि यवनों के इस अत्याचार की समाप्ति न हो जाये।

इस प्रकार की विचारधारा ने उस अल्प आयु में ही नारायण के मन में विराग-भावना उत्पन्न कर दी, यह स्वाभाविक भी था। मनुष्य की आत्मा में जब परोपकार की भावना समाहित हो जाती है, तब उसको संसार के भोग विलास से विरक्ति हो ही जाती है। इसका स्पष्ट कारण है कि विषय वासना का केन्द्र स्थान मन होता है और वही मन जब किसी उच्चादर्श में नियोजित हो जाता है तब उसमें विषय वासनाओं के लिये कोई स्थान ही नहीं रहता।

नारायण के बड़े भाई श्रेष्ठ बड़े ही विद्वान् एवं सन्त प्रकृति के व्यक्ति थे। नारायण ने उनसे दीक्षा देने का अनुरोध किया। श्रेष्ठ ने उनकी इस जिज्ञासा को केवल बाल बुद्धि ही नहीं समझा। उन्होंने इसके पीछे एक आग, एक लगन भी देखी। उन्होंने पाँच वर्ष के बालक नारायण की इस असामयिक जिज्ञासा का न तो मखौल उड़ाया और न उसकी इतनी उपेक्षा की कि वह हतोत्साह हो जाता। उन्होंने उसकी आयु कम बतलाकर कुछ समय बाद दीक्षा देने का आश्वासन दे दिया।

भाई के मात्र आश्वासन से नारायण को सन्तोष न हुआ। उसे तो अपने तप द्वारा देश का उद्धार करने की लगन लगी हुई थी। उसने स्वयं ही भगवान की शरण जाकर तप करने का विचार किया। कहना न होगा कि किसी कर्तव्य के प्रति आत्मा की सच्चाई किसी मार्ग विरोध की कोई चिन्ता नहीं करती । वह काँटों के बीच भी अपना मार्ग बना लेती है, पहाड़ों पर भी अपना पथ प्रशस्त कर लेती है। नारायण गोदावरी के किनारे एक मन्दिर में जाने और वहाँ एकान्त में ध्यान लगाने का अभ्यास करने लगे।

ज्यों-ज्यों नारायण का हृदय निर्मल होता गया, त्यों-त्यों उसे अपने अन्तर में एक आवाज सुनाई देने लगी—”नारायण! पृथ्वी पर अधर्मियों का अत्याचार फैला है। विदेशी लोग भारत भूमि को आक्रान्त किये हुए हैं। तू अपने तप और ज्ञान से देश का उद्धार कर।” भोले भक्त ने इसे भगवदादेश समझा और उसी के अनुसार कर्तव्य करने का निश्चय कर लिया।

बेटा वैरागी हुआ जाता था, माता को बड़ी चिन्ता थी। उसके पास एक ही अस्त्र था उसे रोकने का ‘विवाह’। निदान उसने नारायण के विवाह की चर्चा चलानी शुरू कर दी। कर्तव्य व्रती नारायण ने जब अपने बन्धन की बात सुनी तो वह विचलित हो उठा और घर से भाग जाने लगा।

माता के अत्यधिक आग्रह पर विवाह का आयोजन हुआ। पुरोहित ने विवाह की कार्यवाही आरम्भ करने के लिये नियमानुसार “सावधान” शब्द का उच्चारण किया। नारायण सतर्क हो गये। उन्होंने सोचा कि सावधान होने का ठीक यही समय है। वे मण्डप छोड़ कर भाग खड़े हुये। लोग बहुत कुछ पीछे दौड़े, खोजा, तलाश किया, किन्तु लगनशील बालक अपनी धुन के पंखों पर उड़ कर गायब ही हो गया।

घर से भागने के बाद नारायण कुछ समय तो अपने इलाके में ही इधर-उधर छिपते फिरे, फिर नासिक को चले गये। अपने कर्तव्य-निष्ठा के प्रकाश से जिसका हृदय भरा हुआ है, जिसने अपने कर्तव्य को पहचान लिया है, अपना जीवन ध्येय देख लिया है उसे भला संसार का कौन-सा बन्धन रोक कर रख सकता है। विवाह तो एक बहुत ही साधारण बात है।

समर्थ श्रीराम के दास होने से नारायण ने स्वयं अपना नामकरण रामदास कर लिया और बाद में उनके भक्तों तथा शिष्यों ने उनकी शक्ति देखकर रामदास के साथ समर्थ शब्द का समावेश कर दिया इस प्रकार से नारायण से समर्थ गुरु रामदास हो गये। अनिवर्चनीय आलोक से परिप्लावित ज्ञान प्राप्त कर समर्थ गुरु रामदास ने अपना वास्तविक कार्य प्रारम्भ किया।

उन्होंने देशाटन का कार्यक्रम बनाया। भारतवर्ष की इस लम्बी तीर्थ-यात्रा में वे एक दिन से अधिक कहीं भी नहीं रुके। उनकी इस यात्रा में जो भी ग्राम, जनपद अथवा नगर पड़ता था उसमें धर्मोपदेश करते, देश की दशा बतलाते, परमात्मा पर विश्वास उत्पन्न कराते और आत्म कल्याण के साथ भारत का उद्धार करने की प्रेरणा करते। समर्थ गुरु रामदास की अखण्ड विद्वत्ता, तेजोमय, व्यक्तित्व तथा ओजपूर्ण वाणी का इतना प्रभाव पड़ता है कि नगर-नगर ग्राम-ग्राम उनके शिष्य बनते चले जाते। इस प्रकार कुछ ही समय में उनकी कीर्ति सारे भारत में फैल गई।

समर्थ गुरु रामदास के शिष्यों में अनेक महाराज शिवाजी के सैनिक तथा अधिकारी थे। उनके द्वारा शिवाजी को भी उनकी कीर्ति सुनने को मिली। महाराज शिवाजी उनसे मिलने को अत्यन्त आतुर रहने लगे। यह समाचार समर्थ को मिला तो उन्होंने शिवाजी के नाम एक लम्बा पत्र लिखा जिसमें उन्होंने शिवाजी को राज-धर्म का उपदेश किया। देश तथा धर्म की दशा का दिग्दर्शन कराया तथा उन्हें धर्मोंद्धार के लिये समर्थ बतलाते हुये उत्साहवर्धन किया।

उन्होंने लिखा- “हो सकता है कि तुम अपने राज्य की सीमित भूमि और गिने-चुने साधनों को देखकर यह समझो कि इतने अल्प उपादानों एवं सीमित शक्ति के द्वारा यवनों के इतने व्यापक अत्याचार को किस प्रकार रोक सकता हूँ और किस प्रकार धर्म की रक्षा करते हुये देश में हिन्दू पद पातशाही की स्थापना कर सकता हूँ। तुम्हारा यह सोचना उचित न होगा। क्योंकि मनुष्य की शक्ति साधनों में नहीं उसकी आत्मा में होती है। जिसे अपनी आत्मा में विश्वास है, मन में देशोद्धार की सच्ची लगन है उसके कर्तव्य पथ पर पद रखते ही साधन स्वयं एकत्र होने लगते हैं। भगवान राम ने अपने विश्वास-बल, इच्छा-शक्ति तथा अविरत उद्योग से वन में अकेले ही वानरों तथा भालुओं की सेना बनाकर सर्व-शक्ति सम्पन्न रावण को न केवल हराया ही बल्कि पूर्णतया नष्ट कर दिया। पाण्डवों ने भिखारी बनकर भी उद्योग बल पर अपना वैभव प्राप्त कर लिया और योगीराज श्रीकृष्ण ने केवल एक अकेले ही महाभारत का नेतृत्व कर भारत से दुरात्माओं को नष्ट करा दिया। अपनी आत्मा का जागरण करो, मन को बलवान बनाओ और उद्धार कार्य में एकनिष्ठ होकर लग जाओ। तुमको अवश्य सफलता प्राप्त होगी।”

“अत्याचारी की शक्ति क्षणिक होती है। उसे देखकर कभी भी भयभीत न होना चाहिये। अत्याचारी प्रत्यक्ष रूप में निरपराधों पर तलवार चलाता हुआ परोक्ष में अपनी ही जड़ें काटा करता है। अत्याचार से अल्पायु एवं अत्याचारी से बढ़कर कोई भी कायर संसार में नहीं होता। निष्काम बुद्धि से अपना कर्तव्य करो। भगवान तुम्हारी सहायता करेंगे।”

पत्र पढ़कर महाराज शिवाजी का हृदय उत्साह से पूरी तरह भर गया। उन्होंने स्वल्प साधनों से ही देशोद्धार कार्य करने का निश्चय कर लिया। दृढ़ निश्चयी का कोई भी कार्य संसार में नहीं रुकता।

समर्थ गुरु रामदास का प्रेरक पत्र पढ़कर जहाँ एक ओर शिवाजी में उत्साह की वृद्धि हुई वहाँ उनसे मिलने कि उत्सुकता अपनी सीमा पार कर गई। वे सोचने लगे, कि जिन महात्मा के वचनों में इतना प्रभाव है उनका व्यक्तित्व कितना महान होगा? निदान एक लम्बी खोज के बाद वे उनसे जा ही मिले।

समर्थ गुरु के दर्शन करके शिवाजी कृतार्थ हो गये। उन्होंने उनसे दीक्षा माँगी और संन्यास लेने की इच्छा प्रकट की। समर्थ गुरु रामदास ने उन्हें वैशाख शुक्ल नववीं सम्वत् 1581 शाके को गुरु मन्त्र दिया और प्रसाद के रूप में एक नारियल, मुट्ठी भर मिट्टी, दो मुट्ठी लीद और चार मुट्ठी पत्थर दिये जो क्रमशः दृढ़ता, पार्थिवता, ऐश्वर्य एवं दुर्ग-विजय के प्रतीक थे। महाराज शिवाजी ने गुरु का वह प्रसाद शिरोधार्य किया और पुनः साधु जीवन अपनाने की अनुमति माँगी।

समर्थ गुरु ने उन्हें समझाया। पीड़ितों की रक्षा तथा धर्म का उद्धार करना तुम्हारा कर्तव्य है? संन्यास का अर्थ संसार के कर्तव्य त्याग देना नहीं है। सच्चे संन्यास का अर्थ है अपनी तृष्णा वासना संकीर्णता और स्वार्थपरता का परित्याग और निःस्वार्थ भाव से देश धर्म की रक्षा करना। तुम संन्यस्त भाव से अपने राज-धर्म का पालन करो, देश का उद्धार करो और धर्म मर्यादा की रक्षा के किये संघर्ष करो।

एक ओर शिवाजी अपनी सैन्य शक्ति से देशोद्धार के लिये प्रयत्न कर रहे थे दूसरी ओर उनके गुरु देश-देश घूम कर धर्म भावना जागृत करते थे। उन्होंने शिवाजी की सैन्य-शिक्षा के लिये हजारों महावीर मठों की स्थापना की, जनता को उनका सहयोग देने के लिये प्रेरित किया। झोली डाल कर गाँव-गाँव घूमे और आवश्यक धनराशि एकत्र की।

गुरु की कृपा और अपने उद्योग से महाराज शिवाजी का दिन-दिन अभ्युदय होता गया और शीघ्र ही वे छत्रपति महाराज शिवाजी के नाम से हिन्दू-पद पातशाही के प्रवर्तक मान लिये गये। गुरु शिष्य के सम्मिलित प्रयत्नों से हिन्दुओं में आत्म-विश्वास जगा, धर्म के प्रति आस्था एवं श्रद्धा की वृद्धि हुई। जिसके फलस्वरूप मुगल साम्राज्य की जड़ें खोखली हो गई और आगे चलकर वह कुछ ही समय में गिर कर ढेर हो गया।

इन सब बातों के साथ ही समर्थ गुरु अपने शिष्य शिवाजी का चरित्र उज्ज्वल रखने के लिये समय-समय पर उनकी परीक्षा लेते और उपदेश देते रहते थे। एक बार वे यह देखने के लिये कि अपने राज्य-विस्तार तथा अभ्युदय से कहीं शिवाजी में माया, मोह अथवा अहंकार की दुर्बलता तो नहीं आ गई, उनके द्वार पर गये और भिक्षा के लिये आवाज लगाई। शिवाजी ने उनकी आवाज पहचानी और एक परचे पर अपना सारा साम्राज्य लिख कर उनके कमण्डल में डाल दिया।

गुरु समर्थ रामदास ने उन्हें राज्य लौटाते हुये केवल अन्न माँगा। शिवाजी दुबारा दिया हुआ राज्य वापस लेने को जब किसी प्रकार तैयार न हुए तब उन्होंने उन्हें अपनी ओर से एक प्रतिनिधि के रूप में राज्य करने का आदेश देकर प्रस्थान किया।

गुरु-भक्त शिवाजी ने सिंहासन पर उनके खड़ाऊँ प्रतिष्ठित कर दिये और राज्य का ध्वज भगवा रंग में रंगवा दिया। इस प्रकार वे सारे राज्य को गुरु का समझ कर एक प्रतिनिधि के रूप में राज-काज करते रहे।

सम्वत् 1903 में शिवाजी के स्वर्गारोहण के बाद समर्थ गुरु रामदास ने भी माघ कृष्णा 9 1903 को यह कहते हुये समाधि ली कि मेरा कार्य पूरा हो चुका अब आने वाली पीढ़ी अपना कर्तव्य करेगी।

समर्थ गुरु रामदास का जन्म चैत्र शुक्ल नवीं रविवार सम्वत् 1530 में हुआ। इनके पिता का नाम सूर्या जी पन्त और माता का नाम राणुवाई था। उनका लिखा हुआ ग्रन्थ ‘दास बोध’ मानव-जीवन की सभी समस्याओं पर प्रकाश डालने वाला एक मात्र अद्वितीय ग्रन्थ माना जाता है।

First 9 11 Last


Other Version of this book



Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...

Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • श्रम ही नहीं- अविराम श्रम चाहिये।
  • आत्म-विश्वास ही अटूट शक्ति
  • “मामेकं शरणं व्रज”
  • Quotation
  • आत्म-साक्षात्कार के लिए सच्चरित्रता अनिवार्य
  • अपने जीवन में प्रकृति को प्रवेश होने दीजिये।
  • सुख और दुःख दृष्टिकोण मात्र हैं।
  • निराशा से बचने का उपाय-कम कामनाएं
  • परंपराएं बदली भी जा सकती हैं।
  • Quotation
  • जन-जागरण के अमर साधक-गुरु रामदास
  • भारतीय मस्तिष्क के गौरव सर जगदीशचन्द्र वसु
  • Quotation
  • भोजन भगवान को समर्पित कर लिया करें।
  • नारी का सुयोग्य होना आवश्यक है।
  • धन को सम्मानित न किया जाय।
  • आदर्शवादिता की प्रतिमूर्ति-श्री लाल बहादुर शास्त्री
  • विवेकानन्द
  • ममता और करुणा की मूर्ति-कुमारी डायना बालेमी?
  • Quotation
  • आकस्मिक लाभ का वरदान
  • बच्चों को भीरु नहीं वीर बनाइये
  • विवाह संस्कार को कौतुक न बनाया जाय।
  • गन्दगी एक सामाजिक अपराध
  • जीवन का काया-कल्प करने वाला एक वर्षीय प्रशिक्षण
  • एक वर्षीय प्रशिक्षण योजना
  • इन अनुरोधों की उपेक्षा न की जाय।
  • युग निर्माताओं से-
  • युग निर्माताओं से (Kavita)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj