
आत्म-साक्षात्कार के लिए सच्चरित्रता अनिवार्य
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कठोपनिषद् में वैवस्वत यम ने नचिकेता को आत्म-साधना पर प्रकार डालते हुए कहा—
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।
नाशान्त मानसो वापि प्रज्ञानेनैन माप्नुयात्॥
1/2/24
“हे शिष्य! जिनने अपना चरित्र शुद्ध नहीं किया, जिसकी इन्द्रियाँ शान्त नहीं, जिसका चित्त स्थिर नहीं रहता और जिसका मन सदैव अशान्त रहता है, वह केवल बाह्य ज्ञान के आधार पर आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता।”
चरित्र या कर्म अपना फल किस प्रकार देते हैं? यह जानने की बात है। बीज के अनुरूप ही फल होता है। पाप से आत्मा की पराधीनता दृढ़ होती है और पुण्य आत्मा को मुक्त अवस्था की ओर अग्रसर करता है, यही पाप और पुण्य के फल का रहस्य है। बुरे कर्म आत्मा के लिये आवश्यक हैं या नहीं? यह बातें व्यवहार से स्पष्ट मालूम पड़ जाती हैं। मोटे तौर पर वासना पूर्ति से अशान्ति बढ़ती है, क्रोध से शरीर जलने लगता है और आत्मा को बेचैनी मालूम पड़ती है। लोभ आता है तो मनुष्य कितना उद्विग्न हो जाता है, मानो वह नरक की अग्नि में प्रत्यक्ष जल रहा हो। इसी प्रकार संसार में जितने भी बुरे कर्म हैं, वह आत्मा को कष्ट देने वाले और उसके शाश्वत गुणों के विपरीत ही होते हैं, फिर इनके रहते आत्मा अपने मुक्त रूप में प्रकट भी कैसे हो सकता है?
मन की मलीनतायें, पाप, क्रोध, काम और इच्छायें नहीं रहतीं तो आत्मा को तुरन्त शान्ति मिलती है, गुण बढ़ते हैं, ज्ञान बढ़ता है, आनन्द मिलता है, शक्ति अनुभव होती है, सन्तोष होता है। इस प्रकार आत्मा को सुख की अनुभूति होती है। इससे भी मालूम पड़ता है कि काम, क्रोध आदि विकार हैं और वे आत्मा की पवित्रता को कलंकित करने वाले ही होते हैं। अतः इनके रहते हुए आत्म-ज्ञान की इच्छा कैसे पूर्ण हो सकती है?
आत्मा में केवल वही इच्छायें सुखद अनुभव होती हैं, जिन्हें हम पुण्य कहते हैं। सेवा, सर्द्धम, सद्भावना, प्रेम, स्नेह और त्याग-उदारता के क्षणों में आत्मा की शुद्ध इच्छा प्रकट होती है, जबकि साँसारिक भोग की इच्छायें पराधीनता और दूसरे पदार्थों का दास बनाती हैं। अतः रागद्वेष सभी अस्वाभाविक हैं। इनके रहते हुए आत्म-स्थिरता या आत्मा के सुखों में एकाग्रता नहीं हो पाती और आत्मस्थित हुए बिना उसका ज्ञान प्राप्त करना सम्भव नहीं। यह स्थिति ही ऐसी है, जिसे कामनाओं के पहाड़ पर चढ़कर नहीं देख सकते। आत्मा को देखने के लिए तो विशुद्ध आत्म-गुण वाला बनना पड़ता है या आत्मा में ही बस जाना होता है। अतः आत्मा को जागृत करने का पहला महामन्त्र आत्मा को शुद्ध बनाना है।
अध्यात्म योग की आधार शिला की व्याख्या करते हुए श्री शंकराचार्य ने भी इसी तथ्य का प्रतिपादन किया है। उन्होंने लिखा है—
विषयेभ्यः प्रतिसंहृत्य चेतस आत्मानि
समाधान मध्यात्म योगः।
अर्थात्— चित्त को विषयों से हटा कर आत्मा में समावेश करना ही अध्यात्म-योग है।
उपरोक्त कथन से इस आन्तरिक प्रक्रिया पर पूरी तरह प्रकाश पड़ जाता है कि आत्मा की शुद्धि के बिना आत्म-ज्ञान सम्भव नहीं है।
जैन-धर्म में “तत्वाधिगम् सूत्र” में इस बात को और भी विवरण युक्त करते हुए लिखा है—
हिंसानृतास्तेयब्राह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम्।
(तत्वा. (7/2)
अर्थात्—प्राण हिंसा करना, झूठे बोलना, चोरी करना, व्यभिचार और परिग्रह इन पाँच पापों को छोड़ना ही व्रत है।
बौद्ध दर्शन में निवृत्ति मार्ग की चर्चा की जाती है। वह वस्तुतः आत्मोद्धार का ही पर्याय है। इसके लिए जिन साधनों का विस्तार किया गया है, वे भी उपनिषदों के आत्म-शोधन एवं जैन दर्शन के व्रतों के समान ही है। बौद्ध भिक्षु जब आत्म-कल्याण के लिये निवृत्ति पथ का अनुसरण करता है तो उसे भी इस तरह की पाँच प्रतिज्ञायें करनी पड़ती हैं—
पाणातिपाता वेरमणी सिक्खापदं समादियामि।
—मैं प्राणि-बध नहीं करूंगा।
अदिन्नादाना वेरमणी सिक्खापदं समादियामि।
—किसी की चोरी नहीं करूंगा।
कामे सुमिच्छासारा वेरमणी सिक्खापदं समादियामि।
— व्यभिचार नहीं करूंगा।
मुसावादा वेरमणी सिक्खापदं समादियामि।
—मैं कभी झूठ नहीं बोलूँगा।
सुरा-मेरेय-मज्ज पमाद ट्ठाना वेरमणी
सिक्खापदं समादियामि।
—माँस मदिरा आदि अभक्ष्य पदार्थों का सेवन नहीं करूंगा।
हिन्दू धर्म में भी यह सम्पूर्ण दुराचरण तो विवर्जित हैं ही साथ ही मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से जानी गई मन की सूक्ष्म विकारमय वृत्तियों से जिनके कारण बड़े दोष बन पड़ते हैं, निग्रह की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है जो वास्तव में दूसरे धर्मों के सिद्धान्तों की अपेक्षा अधिक तथ्यपूर्ण एवं वैज्ञानिक हैं। उदाहरणार्थ काम-वासना बुरी वस्तु है और वह आत्म-ज्ञान से विमुख करने वाली है पर मनुष्य केवल मनोबल के आधार पर वासना से मुक्त नहीं हो सकता क्योंकि परिस्थितियों का प्रभाव भी तो अपना महत्व रखता है। मन की काम-वासना वस्तुतः वैज्ञानिक दृष्टि से अन्न दोष है अर्थात् यदि आहार अनियमित है तो मन की वासना पर कभी भी नियंत्रण नहीं किया जा सकता। इसलिए सच्चरित्रता के सिद्धान्तों को कुछ वाक्यों तक ही सीमित नहीं किया गया वरन् उनका बहुत अधिक विस्तृत विश्लेषण किया गया है। अर्थात् इन नियमों को प्रारम्भिक अवस्था, आहार-विहार, शिक्षा-दीक्षा, भाषा-व्यवहार, धर्म-कर्म आदि से ही बाँधने का प्रयास किया है। इस सर्वांगीण शुद्धि-प्रक्रिया को अपनाये बिना मनुष्य जीवन के दोषों से कदापि मुक्त नहीं हो सकता।
संसार में मनुष्य अपने क्षणिक सुख के लिए अनेक प्रकार के दुष्कर्म कर डालता है। उसे यह खबर नहीं होती कि इन दुष्कर्मों का फल हमें अन्त में किस प्रकार भुगतना पड़ेगा। मनुष्य को जो तरह-तरह के कष्ट उठाने पड़ते हैं, उनके लिए किसी अंश तक समाज और देशकाल की परिस्थितियाँ भी उत्तरदायी हो सकती हैं पर अधिकाँशतया वह अपने ही दुष्कर्मों के प्रतिफल भोगता है। किन्तु मनुष्य शरीर दुःख भोगने के लिए नहीं मिला। यह आत्म-कल्याण के लिए मुख्यतः कर्म-साधन है, इसलिए अपनी प्रवृत्ति भी आत्म-कल्याण या सुख प्राप्ति के उद्देश्य की पूर्ति होना चाहिए और इसके लिए बुरे कर्मों से बचना भी आवश्यक हो जाता है।
विकास का क्रम भी इसी तरह चलता है। साधनों को प्राप्त कर यदि आत्मा विवेक का सदुपयोग करता है और उसे अच्छे कर्मों में लगाता है तो आत्मा अपनी शक्तियों को बढ़ाता हुआ अनुकूल साधनों को भी बनाता रहता है और अन्त में प्रारब्ध से, स्वाधीन होकर अपनी पूर्ण उन्नति कर लेता है।
इन दोनों मार्गों में से एक का चुनाव करना आवश्यक हो जाता है। आत्म-ज्ञान की इच्छा रखने वाले एक साथ दोनों आचरण नहीं कर सकते। शास्त्रकार ने अपना निष्कर्ष स्पष्ट शब्दों में व्यक्त करते हुए लिखा है—
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्वं पूषन्नपावृणु सत्य धर्माय दृष्टये॥
“सत्य का मुख ढ़का हुआ है ऐ सत्य शोधक! यदि तू उसे प्राप्त करना चाहता है तो उस ढक्कन को खोलना पड़ेगा जिससे सत्य ढ़क गया है। यदि तू उसे नहीं छोड़ सकता तो सत्य ही तुझे छोड़ जाएगा।” दोनों बातें एक साथ कदापि नहीं हो सकतीं। आत्म-ज्ञान को बुरे कर्मों ने भी इसी तरह ढ़क लिया है। उसे प्राप्त करने के लिए इस अशुद्ध अवस्था का परित्याग करना ही पड़ता है। साँसारिक विषय वासनाओं की इच्छाओं पर विजय करनी ही पड़ती है।