
निराशा से बचने का उपाय-कम कामनाएं
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“मनुष्य कुछ भी नहीं है, वह एक चलता फिरता धूल-पिण्ड है, उसकी शक्तियाँ सीमित हैं। वह नियति के हाथ की कठपुतली है, भाग्य का खिलौना और हर समय काल का कवल है।”
इस प्रकार के निषेधात्मक एवं निराशापूर्ण विचार रखने वाले निःसन्देह धूल-पिंड भाग्य की कठपुतली और जीवित अवस्था में भी मृतक ही होते हैं। जो कायर और निराशावादी है वह अभागा ही है। जहाँ संसार में लोग कंधे से कंधा भिड़ाकर उन्नति और विकास के लिये निरंतर संघर्ष कर रहे हैं, वहाँ निराशावादी विषाद का रोग पाले हुए दुनिया के एक कोने में पड़े हुए मक्खियाँ मारा करते हैं। समाज की निरपेक्षता तथा संसार की नश्वरता को कोसा करते हैं। मनुष्य की इस दशा को दुर्भाग्य नहीं तो और क्या कहा जायेगा।
मनुष्य-योनि में आकर जिसने जीवन में कोई विशेष कार्य नहीं किया, किसी के कुछ काम नहीं आया, उसने मनुष्य शरीर देने वाले उस परमात्मा को लज्जित कर दिया। अपने में अनन्त शक्ति होने पर भी दीनतापूर्ण जीवन बिताना, दयनीयता को अंगीकार करना अपने साथ घोर अन्याय करना है। मनुष्य जीवन रोने कलपने के लिए नहीं, हँसते मुस्कराते हुए अपना तथा दूसरों का उत्कर्ष करने के लिए है।
मनुष्य जीवन के लिए निराशा अस्वाभाविक है। यह एक प्रकार का मानसिक रोग है जो मनुष्य को हीन विचारों, जीवन में आई कठिनाइयों और असफलता के कारण लग जाता है। इच्छाओं की पूर्ति न होने, मनचाही परिस्थितियाँ न पाने से मनुष्य में संसार के प्रति, अपने प्रति तथा समाज के प्रति घृणा हो जाती है। बार-बार असफलता पाने से मनुष्य का साहस टूट जाता है और वह निराश होकर बैठ जाता है। जीवन के प्रति उसका कोई अनुराग नहीं रह जाता।
निराशाग्रस्त मनुष्य दिन-रात अपनी इच्छाओं कामनाओं और वाँछाओं की आपूर्ति पर आँसू बहाता हुआ उनका काल्पनिक चिन्तन करता हुआ तड़पा करता है। एक कुढ़न, एक त्रस्तता एक वेदना हर समय उसके मनों-मन्दिर को जलाया करती है। बार-बार असफलता पाने से मनुष्य का अपने प्रति एक क्षुद्र भाव बन जाता है । उसे यह विश्वास हो जाता है कि वह किसी काम के योग्य नहीं है। उसमें कोई ऐसी क्षमता नहीं है, जिसके बल पर वह अपने स्वप्नों को पूरा कर सके, सुख और शान्ति पा सके।
साहस रहित मनुष्य का वैराग्य, असफलता जन्य विरक्ति और निराशा से उपजी हुई आत्म-ग्लानि बड़ी भयंकर होती है। इससे मनुष्य की अन्तरात्मा कुचल जाती है।
ऐसे असात्विक वैराग्य का मुख्य करण मनुष्य की मनोवाँछाओं की असफलता ही है जिसके कारण अपने से तथा संसार से घृणा हो जाती है। प्रतिक्रिया स्वरूप संसार भी उससे नफरत करने लगता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य की मनोदशा उस भयानक बिन्दु के पास तक पहुँच जाती है जहाँ पर वह त्रास से त्राण पाने के लिए आत्म-हत्या जैसे जघन्य पाप की ओर तक प्रवृत्त होने लगता है।
जो भी अधिक इच्छाएं रखेगा बहुत प्रकार की कामनाएँ करेगा उसका ऐसी स्थिति में पहुँच जाना स्वाभाविक ही है। किसी मनुष्य की सभी मनोकामनाएं सदा पूरी नहीं होती। वह हो भी नहीं सकतीं। मनुष्य की वांछाएं इतनी अधिक होती हैं कि यदि संसार के समस्त साधन लगा दिये जायें, तब भी वे पूरी न होंगी।
ऐसा नहीं है कि मनुष्यों की इच्छायें पूर्ण नहीं होती हों, किन्तु इच्छायें उसी मनुष्य की पूर्ण होती हैं जो उनको सीमित एवं नियंत्रित रखता है। जिसकी आकाँक्षायें अनियंत्रित हैं जिनका कोई ओर-छोर ही नहीं है उसकी कोई भी महत्वाकाँक्षा पूर्ण होने में सन्देह रहता है। बहुधा अनन्त आकाँक्षाओं वाले व्यक्ति को घोरतम निराशा का ही सामना करना पड़ता है।
इच्छाओं के ऐसे दुष्परिणाम देखकर ही भारतीय मनीषियों ने इच्छाओं को त्याज्य बतलाया है। उन्होंने अच्छी प्रकार इस सत्य को अनुभव कर लिया था कि जो इच्छाओं के प्रति त्याग भावना नहीं रखता उसकी इच्छायें धीरे-धीरे एक से दो और दो से चार होती हुई शीघ्र ही बढ़ती चली जाती हैं और फिर वे न तो नियंत्रण में आ पाती हैं न पूरी हो पाती हैं। फलस्वरूप मनुष्य को घोर निराशा की स्थिति में पहुँचा देती हैं। अतएव ऋषि मुनियों ने हृदय को पूर्ण रूप से निष्काम रखने का ही आदेश दिया है।
इस इच्छा त्याग का गलत अर्थ लगाकर लोग यह कह उठते हैं कि जिसमें कोई इच्छा नहीं होगी, वह कोई काम ही न करेगा और यदि एक दिन संसार का हर मनुष्य इच्छा रहित निष्काम हो जाये तो सृष्टि की सारी गति-विधि ही नष्ट हो जाये और यह चौपट हो जाये।
इच्छाओं के त्याग का अर्थ यह कदापि नहीं कि मनुष्य प्रगति, विकास, उत्थान और उन्नति की सारी कामनाएँ छोड़कर निष्क्रिय होकर बैठ जाये। इच्छाओं के त्याग का अर्थ उन इच्छाओं को छोड़ देना है जो मनुष्य के वास्तविक विकास में काम नहीं आतीं, बल्कि उलटे उसे पतन की ओर ही ले जाती हैं। जो वस्तुऐं आत्मोन्नति में उपयोगी नहीं, जो परिस्थितियाँ मनुष्य को भुलाकर अपने तक सीमित कर लेती हैं मनुष्य को उनकी कामना नहीं करनी चाहिये। साथ ही वाँछनीय कामनाओं को इतना महत्व न दिया जाये कि उनकी अपूर्णता शोक बनकर सारे जीवन को ही आक्रान्त कर ले।
मनुष्य का लगाव इच्छाओं से नहीं बल्कि उनकी पूर्ति के लिये किये जाने वाले कर्म से ही होना चाहिए। इससे कर्म की गति में तीव्रता आयेगी और मनुष्य की क्षमताओं में वृद्धि होगी जिससे मनोवाँछित फल पाने में कोई सन्देह नहीं रह जायेगा। इसके साथ ही केवल कर्म से लगाव होने पर यदि कोई प्रयत्न में लग जायेगा। असफलता उसे प्रभावित नहीं कर पायेगी। इच्छा के प्रति लगाव रहने से प्रयत्न की असफलता पर मनोवाँछा पूरी न होने से उसका जी रो उठेगा। वह अपनी कामना के लिए तड़पने और कलपने लगेगा। अपेक्षित फल न पाने से उसे कर्म के प्रति विरक्ति होने लगेगी, प्रयत्नों से घृणा हो जायेगी और तब कर्म का अभाव उसको निष्क्रिय बनाकर घोर निराशा की स्थिति में भेज देगा। अस्तु, मनुष्य को मनोवांछाएं प्राप्त करने और निराशा के भयानक अभिशाप से बचने के लिये अपना लगाव इच्छाओं के प्रति नहीं बल्कि उनके लिये आवश्यक प्रयत्नों के प्रति ही रखना चाहिये।
मनुष्य की वे ही वासनायें उपयुक्त कही जा सकती हैं जो उसके विकास में सहायक हों। सम्पत्ति की कामना तभी उपयुक्त है जब वह कोई महान कार्य सम्पादित करने में काम आये। सम्पत्ति की कामना इसलिये करना ठीक नहीं-कि लोग हमें धनवान समझें समाज में प्रभाव बढ़े, संसार की हर चीज प्राप्त की जाये, भोगों के अधिक साधन संग्रह किये जायें। लोग सन्तान की वासना करते हैं, ठीक है सन्तान की कामना स्वाभाविक है, किन्तु सन्तान को केवल इसलिए चाहना कि मैं पुत्रवान समझा जाऊँ सम्पत्ति का कोई उत्तराधिकारी हो जाये, बहुत उपयुक्त नहीं। देश को अपने प्रतिनिधि के रूप में एक अच्छा नागरिक देने के लिये सन्तान की कामना महान एवं उपयुक्त है। लोग जीवन में कीर्ति चाहते हैं, अपनी ख्याति चाहते हैं और उसके लिये न जाने कौन-कौन से उपाय प्रयोग किया करते हैं। ख्याति इसीलिए चाहना ठीक नहीं-कि समाज में प्रभाव बढ़ेगा उससे हजार प्रकार के काम निकलेंगे, लोग आदर करेंगे, चाटुकारी करेंगे, प्रतिष्ठा बढ़ेगी। मनुष्य को कीर्ति कामी होना चाहिए, किन्तु यह तभी ठीक होगा कि वह कीर्ति का उपार्जन अपने सत्कर्मों से करे, अन्याय और धूर्तता से नहीं।
इस प्रकार की उपयुक्त कामनाएं रखने वाला व्यक्ति कभी भी उनकी असफलताओं से दुःखी नहीं होता और न कभी निराशा की स्थिति में पहुँचता है। अपने व्यक्तिगत सुखभोग के लिए विषयों की कामना परिणाम में ही नहीं प्रारम्भ में भी दुःखदायी होती है। आत्म विकास और समाज कल्याण के लिये की हुई कामनायें आदि एवं अंत दोनों में ही सुखदायी एवं कल्याणकारी रहती है। जीवन में निराशा से बचने के लिये मनुष्य को कम से कम कामनाएँ रखना ही ठीक है। कामनाओं की अधिकता ही निराशा और पतन का कारण होती है।