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Magazine - Year 1966 - Version 2

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Language: HINDI
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समाज सुधार के लिए प्रबुद्ध वर्ग आगे बढ़े।

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आज समाज ही नहीं संसार की दशा किसी से छिपी नहीं है। क्या अमीर, क्या गरीब, क्या शिक्षित और क्या अशिक्षित, इस यथार्थ के विषय में सभी एक मत हैं कि आज का समाज बुरी तरह विकृत हो चुका है और संसार ऐसे विषम-बिन्दु पर पहुँच गया है कि यदि उसकी इस गति को यहीं पर रोक कर ठीक दिशा में न बढ़ाया गया तो युग-युग की संचित मानवीय सभ्यता का विनाश अवश्यम्भवी है।

वर्तमान दशा और परिवर्तन की पुकार किसी की आँख-कान से परे नहीं है। आज के असहनीय कष्ट सभी देखते, सुनते, और अनुभव कर रहे हैं किन्तु इस परिवर्तन की माँग को पूरा करने के लिए कौन आगे बढ़े, यह प्रश्न सामने खड़ा होकर स्तब्धता की स्थिति उपस्थित कर देता है। निःसन्देह इस संक्रामक काल में परिवर्तन पूर्ण करने के लिए, सम्पूर्ण समाज का कर्तव्य है कि वह योगदान करे। किन्तु यह सर्वथा सम्भव नहीं। इस परिवर्तन को प्रस्तुत करने के लिए समाज के एक विशिष्ट वर्ग को ही आगे बढ़ना होगा।

समाज में तीन प्रकार के व्यक्ति पाये जाते हैं। एक तो सर्वसामान्य जिन्हें रोटी कमाने और पेट भर लेने के अतिरिक्त दीन-दुनिया की खबर नहीं रहती। संसार में रोटी ही उनका एकमात्र उद्देश्य होता है। समाज किधर जा रहा है उसमें किन-किन सुधारों की आवश्यकता है इस चिन्ता से उनका कोई सरोकार नहीं होता। आराम से भोजन वस्त्र मिल गया प्रसन्न हो गए, उसमें घाटा आ गया दुखी हो गए। बस यही उनका जीवन और यही उनका ध्येय होता है। ऐसे आदमियों को जड़ एवं अभावुक कहा जा सकता है। अन्य पशु-पक्षियों और उनके जीवन में कोई विशेष अन्तर नहीं होता। संसार में ऐसे लोगों की ही बहुतायत हुआ करती है। इनमें भोजन एवं प्रजनन क्रिया की प्राकृतिक प्रेरणा के अतिरिक्त कोई विशप चेतना नहीं होती। बहुत अधिक हुआ तो अपने बाल-बच्चों की खोज-खबर की चिन्ता कर ली। समाज क्या है, राष्ट्र क्या होता है, सभ्यता एवं संस्कृति किसे कहते हैं, संसार में इन सबका क्या मूल्य महत्व है, ऐसे उच्चाशयता पूर्ण विचारों से वे न तो जरा भी परिचित होते हैं और न उनकी चिन्ता कर पाते हैं।

इतना ही नहीं समाज में फैलने वाली विकृतियाँ इसी जड़ वर्ग में जन्म लेती और पनपती हैं। यही वह जन साधारण है जो अपनी जड़ता के कारण रोग, शोक, गरीबी, बेकारी, शोषण एवं सन्तापों से ग्रस्त रहता है। और जिसके दुःख से अन्य चेतनावान व्यक्तियों को दुःखी एवं चिन्तित होना पड़ता है।

इसके अतिरिक्त समाज में एक दूसरा वर्ग भी होता है जो उपर्युक्त वर्ग की तरह जड़ अथवा पाशविक तो नहीं होता, अपेक्षाकृत अधिक सजग एवं सक्रिय होता है। किन्तु होता है यह वर्ग बड़ा ही भयंकर! इस वर्ग में वे लोग होते हैं जिनकी विद्या, बल और बुद्धि तथा साधन सुविधायें हैं। इस वर्ग का उद्देश्य यही रहता है कि संसार की सारी सम्पत्तियाँ, भोग तथा सुविधायें अधिक से अधिक उसी के पास रहें। वह और उनका परिवार सबसे अधिक सुखी एवं सम्पन्न रहें। ऐसे स्वार्थी लोग अपनी अनुचित आकाँक्षाओं को पूरा करने के लिये उचित-अनुचित सभी प्रकार के काम किया करते हैं। अपने तुच्छ स्वार्थ के लिये किसी का बड़े से बड़ा अहित कर देने में जरा भी संकोच नहीं करते। अपने मजा, मौज और सुख स्वार्थ के लिए दूसरों का हिस्सा एवं अधिकार अपहरण कर लेना वे अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। ऐसे ही स्वार्थी पशु समाज में चोरी, डकैती तथा अन्य प्रकार के भ्रष्टाचारों को करते और बढ़ाते हैं। इन्हीं के कारण समाज के अन्य लोग दुःखी एवं संत्रस्त रहा करते हैं। शाँति एवं सुरक्षा के वातावरण को सबसे अधिक क्षति इसी वर्ग से पहुँचती है। भोले, भले, दीन, दुःखी और निर्बलों को सताना इनके लिये एक साधारण बात होती है। समाज से सब कुछ लेकर उसके बदले में उसे शोक-सन्ताप एवं कष्ट-क्लेश देना ही इनका धर्म बन जाता है। ऐसे लोग बड़े ही क्रूर, कपटी, अकरुण एवं कृपण होते हैं। अपने और अपने प्रियजनों के अतिरिक्त किसी का हित चाहना इनकी विचार परिधि से परे होता है। ऐसे लोगों को दुराचारी अथवा दुष्ट कहा जा सकता है। ऐसे लोगों की संख्या जड़ वर्ग से कम अवश्य होती है किन्तु समाज को संत्रस्त करने के लिए काफी होती है।

इस प्रकार के जड़ एवं दुष्ट जनसमूह की ही समाज में बहुतायत होती है। यह दोनों प्रकार के मनुष्य सामाजिकता पूर्ण नागरिक भावना से शून्य होते हैं। इनसे किसी सुधार, उपकार अथवा आदर्श कार्य की अपेक्षा नहीं की जा सकती। जो स्वयं बुरा है, व्यर्थ है, वह किसी को क्या तो सुधार सकता है और क्या उपयोगी हो सकता है। यथार्थ बात यह है कि यही दोनों वर्ग समाज में विकृतियों के कारण होते हैं और समाज सुधार के लिये इन्हें ही सुधारने ठीक रास्ते पर लाने के लिये प्रकाश एवं प्रयत्न की आवश्यकता होती है।

इन दो के अतिरिक्त समाज में एक वर्ग और होता है, जिसे ‘प्रबुद्धवर्ग’ कह सकते हैं। यद्यपि वह वर्ग उन दो वर्गों से संख्या में बहुत कम होता है किन्तु, यदि काम में लाये, तो इसकी शक्ति उनसे कहीं अधिक होती है। इस वर्ग की विचारधारा संकीर्ण स्वार्थों एवं पाशविक वृत्तियों से उठी हुई होती है। देश, धर्म, समाज एवं राष्ट्र के प्रति इस वर्ग की भावनायें अधिक तीव्र एवं चिन्ता पूर्ण होती हैं। जिन-जिन देशों में सुधारात्मक क्राँतियाँ हुई हैं उनमें किसी ऐसे ही वर्ग की चेतना काम करती रही है।

प्रबुद्ध वर्ग को किसी भी समाज की जीवनीशक्ति कहा गया है। जिस समाज का यह वर्ग प्रमाद में पड़कर चिन्ता एवं प्रयत्न करना छोड़ देता है वह समाज अधिक समय तक जीवित नहीं रह पाता। इसके विपरीत जिस देश अथवा समाज का यह वर्ग सतेज, सक्रिय एवं सजग रहता है उस समाज में पहले तो विकृतियाँ आती ही नहीं और यदि आ भी जाती हैं तो यह वर्ग उन्हें झाड़-बुहार कर साफ कर देता है। जनता को आदर्श का प्रकाश देना और उसे ठीक राह पर लाने वाला यह प्रबुद्ध वर्ग ही होता है।

जिस प्रकार से भारतीय समाज में सदा से प्रबुद्ध वर्ग रहा है आज भी है। किन्तु फिर भी सामाजिक सुधार का कार्य नहीं हो रहा है। इसका कारण यही है कि आज भारतीय समाज का प्रबुद्ध वर्ग स्वार्थी तो नहीं हुआ किन्तु प्रमादी अवश्य हो गया है। वह समाज की चिन्ता तो करता है किन्तु सक्रिय कार्यक्रमों को चलाने के लिये आगे नहीं बढ़ रहा है। जहाँ-तहाँ लोग समाज की दशा और उसके सुधार की आवश्यकता पर बात करते तो देखे सुने जाते हैं किन्तु एक होकर सुधार कार्य में रुचिवान होते नहीं दीखते।

समाज सुधार के लिए, प्रबुद्ध वर्ग में जो उदासीनता दिखाई देती है उसके दो ही कारण समझ में आते हैं। एक तो आजीविका और दूसरा समाज की अति पतित अवस्था। आजीविका के विषय में आज के समय को बहुत कठिन समय कहा जा सकता है। ईमानदार आदमी को दिन भर काम करने के बाद परिवार के गुजारे के योग्य मुश्किल से मिल पाता है। वह सोचता है कि यदि वह अपना समय समाज सुधार के कार्यक्रमों में देने लगा तो उसे आजीविका की पूर्ति करने में कठिनाई पड़ने लगेगी। साथ ही समाज का सर्वांगीण पतन देख कर कार्य क्षेत्र में उतरते उसका साहस नहीं होता। उसे शंका रहती है कि यदि आज के बुरे युग में वह अच्छाई का सन्देश लेकर जाता है तो कोई भी उसकी न सुनेगा और असफल होकर हताश अथवा उपहासास्पद होना होगा।

किन्तु लोगों की यह दोनों धारणायें निराधार हैं। जहाँ तक भोजन का प्रश्न है, अधिकतर लोग आजीविका के लिये आठ-दस घण्टे काम किया करते हैं। दस घण्टे काम करने के लिये रख लिए जायें और दस घण्टे सोने आदि के लिए मान लिए जायें तब भी हर किसी के पास चार घण्टे का ऐसा समय बच सकता है जिनमें समाज सेवा का बहुत सा काम किया जा सकता है। समाज सेवा के लिए समय न होने का बहाना मात्र है वस्तुतः इसमें कोई तथ्य नहीं है।

जहाँ तक समाज की भयावह स्थिति का प्रश्न है, उसके लिये साहस करना ही शोभनीय है। बाढ़, आग आदि की आपत्ति आ जाने पर यदि उसकी भयंकरता से डर कर हाथ पाँव छोड़ कर एक तरफ हो जाया जाए तो इसका परिणाम सर्वनाश के सिवाय और क्या हो सकता है? उस महा भयंकर आपत्तिकाल में लोग हिम्मत बाँधते और प्रयत्न करते ही हैं। उन्हें इसका फल आपत्ति निवारण के रूप में मिलता ही है। किसी सत्कार्य को करने के लिये उसके फल की चिन्ता नहीं करना चाहिये। ईमानदारी और लगन से अपना कर्तव्य करें और फल भगवान के ऊपर छोड़ दें—यही गीता के कर्म योग का सन्देश है जिसे हर श्रेष्ठ व्यक्ति को हृदयंगम रखना चाहिये।

आज तो केवल सामाजिक विकृतियों से लड़ना है—कुछ समय पूर्व जब महात्मा गाँधी देशोद्धार के क्षेत्र में उतरे थे तो सामाजिक विकृतियाँ तो इस प्रकार थी ही साथ ही समाज के पैरों में अंग्रेजी दासता की शृंखला भी पड़ी हुई थी। महात्मा गाँधी ने तो आज से भी अधिक भयावह परिस्थिति में बिना किसी साधन के स्वाधीनता संग्राम छेड़ा था और अपने साहस, लगन एवं अध्यवसाय के बल पर सफल होकर संसार के सामने एक उदाहरण उपस्थित कर दिया। विकृतियाँ देखने में ही भयावह मालूम होती हैं, वस्तुतः उनमें कोई शक्ति नहीं होती। सत्प्रवृत्तियों का प्रकाश होते ही उनका अन्धकार तो आप से आप दूर होने लगता है। प्रबुद्ध वर्ग को हर प्रकार की शंकायें एवं भयों को त्याग कर समाज सुधार के कार्य में लग ही जाना चाहिये।

वह हर भाग्यवान व्यक्ति अपने को प्रबुद्ध वर्ग का नैसर्गिक सदस्य समझे जिसकी अन्तरात्मा में परमात्मा ने देश धर्म के प्रति जागरूकता और मन मस्तिष्क में समाज की दयनीय दशा की पीड़ा पैदा की है। जो बुद्धिमान अपने अन्दर आदर्शवादिता, धार्मिकता, आध्यात्मिकता, सामाजिकता एवं मानवता का कोई अंश समझता है और देश तथा समाज की वर्तमान दशा से क्षुब्ध होता है जिसके हृदय में कुछ न कुछ उपाय करने की जिज्ञासा होती है, वह हर व्यक्ति अपने को प्रबुद्ध वर्ग का समझे और तदनुसार अपने कर्तव्य में यह समझ कर लग जाये कि यदि परमात्मा हम से इस पावन कर्तव्य की अपेक्षा न करता तो हमारी आत्मा में इस प्रकार की मंगलमयी जागरूकता न भरता।

हर प्रबुद्ध व्यक्ति नव-निर्माण के अलावा कार्यक्रमों में से अपने योग्य कोई भी एक अथवा अनेक कार्यक्रम चुन सकता है और उसे धार्मिक भावना के साथ अपने तथा समाज के कल्याण के लिए प्रसारित कर सकता है । आज समय की माँग है कि समाज के प्रबुद्ध व्यक्ति एक या अनेक होकर समाज सुधार के किसी न किसी काम को लेकर आगे बढ़ें और दूसरों को इस ओर बढ़ने की प्रेरणा दें। संसार की सारी क्राँतियाँ तथा परिवर्तन प्रबुद्ध वर्ग द्वारा ही लाये गये हैं। आज भी समाज सुधार का महान कार्य प्रब़द्ध वर्ग ही कर सकता है और उसे करना भी चाहिये।

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