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Magazine - Year 1966 - Version 2

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परमात्मा का अस्तिव और अनुग्रह

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विज्ञान-विकास के प्रारम्भिक चरण के समय भौतिक उपलब्धियों से उन्मत्त अनेक लोग यह कहने का साहस करने लगे थे कि—संसार में र्इ्रश्वर नाम की कोई सत्ता नहीं है। यह तो लोगों के अपरिपक्व एवं जिज्ञासु मस्तिष्क की काल्पनिक उपज है। यह सारा संसार स्वयं उद्भूत, स्वयं संचालित तथा स्वयं स्थित है। न तो कोई इसका बनाने वाला है न चलाने वाला और न स्थिर रखने वाला है। इसके कर्त्ता के रूप में ईश्वर एक आरोपित नाम है, जिसका कहीं न तो कोई अस्तित्व है न इस विश्व-ब्रह्माण्ड से, इसकी गतिविधि से कोई सम्बन्ध।”

विज्ञान-विकास की नूतन चकाचौंध में कुछ दिन यह नास्तिक विचारधारा जोर पकड़े रही। वैज्ञानिकों ने अपनी खोज के आधार पर यह घोषणा की थी कि—’संसार के मूल तथा उसकी प्रत्येक क्रिया प्रक्रिया एवं प्रतिक्रिया में एक विद्युत, जो इलेक्ट्रोन प्रोटोन के रूप में पाई गई है काम कर रही है जो संचलन में स्वतः सक्षम एवं समर्थ है उनमें स्वयं ही अपनी चेतना उत्पन्न होती है। सक्रियता के लिए उन्हें किसी ऐसी अन्य चेतन शक्ति पर निर्भर नहीं रहना पड़ता जिसे धर्मवादी लोग ईश्वर कहते हैं।”

इस नास्तिक भाव का वास्तविक कारण विज्ञान का अपूर्ण ज्ञान ही था। पर ज्यों-ज्यों वैज्ञानिक ज्ञान पूर्णता की ओर बढ़ता गया सूक्ष्म से सूक्ष्मतर चेतन शक्ति का पता लगता गया और विज्ञानवादियों की विचारधारा उस ओर बढ़ती गई, जिसमें ईश्वर के अस्तित्व की शक्ति विद्यमान थी। एक दिन ऐसा आया कि संसार के सर्वश्रेष्ठ विज्ञान महारथी यह कहने पर सहमत हुए कि अणुओं के एक निश्चित नियम से अपनी गतिविधि बनाए रखने में स्वयं अणुओं की शक्ति नहीं है बल्कि यह काम किसी ऐसी चेतना शक्ति का है जो उनमें अगोचर रूप से ओत-प्रोत रहती है। विज्ञान महारथी आइन्सटीन की यह घोषणा ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यद्यपि पिछले दिनों विज्ञान आश्चर्यजनक प्रगति कर गया है तथापि अभी पूर्णता की सीमा में नहीं पहुँचा है। जिस दिन भौतिक विज्ञान पूर्णता को प्राप्त होगा, निश्चय ही यह तत्वज्ञान में बदल जायेगा और इसका सबसे ऊँचा एवं विश्वसनीय उद्घोष यही होगा—”यह संसार निश्चय ही उस चेतन तत्व की रचना है जिसे परम ब्रह्म परमात्मा कहते हैं। यह उसी से उत्पन्न हुआ है, उसी की सत्ता से स्थित है और उसी में लयमान होता जा रहा है। जड़ चेतन की सारी सक्रियता, सारा चमत्कार उसी परम प्रभु की चेष्टा है जिसमें सब लीन हैं और जो स्वयं सबमें ओत-प्रोत है। न तो कुछ परमात्मा से भिन्न है और न परमात्मा किसी से प्रथक है।” पूर्णता को पहुँचा हुआ वैज्ञानिक सबसे बड़ा अस्तिव, सबसे बड़ा भक्त होगा ऐसा विश्वास वैज्ञानिकों की बदलती हुई धारणाओं के आधार पर निर्भय होकर किया जा सकता है।

पवन, अग्नि, जल और मृत्तिका चार व्यक्त एवं अस्तित्ववान पदार्थों से मिल कर यह संसार बना है। यह चारों पदार्थ अपने में जड़ और निर्जीव हैं। किन्तु फिर भी इनमें एक जीवन, एक सक्रियता एवं एक प्राणमयता दीखती है। यह सजीवता क्या है? उसी परमात्मारूपी चेतन शक्ति की विद्यमानता है। हवा का चलना, जल का बहना, अग्नि का चमकना तथा जलना, मिट्टी का गुण सब ही तो उस सर्वशक्तिमान परमात्मा की सत्ता से ही सम्भव है। अन्यथा किसी जड़ अथवा निर्जीव पदार्थ में सक्रियता की सम्भावना कहाँ? गुण अथवा प्राण रूप से विद्यमान परमात्मा जब इनकी सक्रियता समापन करना चाहता तो उनमें से तिरोधान हो जाता है। ऐसी दशा में कोई भी पदार्थ अपनी सक्रियता का प्रमाण नहीं दे पाता। संसार के किसी भी पदार्थ में अपनी कोई क्षमता अथवा अपना कोई गुण नहीं है वह सब उसी चेतन रूप परमात्मा का ही चमत्कार है जो अणु-अणु में सक्रिय, सुखद, अथवा निश्चल मौनता के रूप में निरन्तर विद्यमान रहता है। ऐसे चेतन सर्वव्यापक, सर्व समर्थ एवं सर्व विदित विभु के अस्तित्व से इनकार करना अपनी धृष्टता एवं अज्ञानता का परिचय देना है।

लोहा जड़ एवं निर्जीव पदार्थ है किन्तु यन्त्रों एवं चक्रों के रूप में सक्रिय दिखाई देता है। पत्थर निर्जीव एवं जड़ वस्तु है किन्तु चक्की के रूप में चलता दिखाई देता है। काष्ठ निर्जीव तथा जड़ पदार्थ है किन्तु वृक्ष रूप में उठता हुआ और फूल-फल-पत्तों से भरता झरता दिखाई देता है। इन सब निर्जीव पदार्थों की सक्रियता का कारण चेतन शक्ति ही है। फिर चाहे उसका समावेश मनुष्य की सहायता से हुआ हो अथवा उक्त चेतना स्वयं ही उसमें गतिमती हो उठी हो। चेतन सत्ता के अभाव अथवा अव्यक्ति की स्थिति में सम्पूर्ण जग निर्जीव, निष्प्राण एवं निस्तब्ध स्थिरता मात्र है। इस प्रकार संसार के नियामक संचालन एवं प्राण रूप परमात्मा में विश्वास ही नहीं आस्था रहना हम जीवों का परम पावन कर्तव्य है। उसके अस्तित्व से विमुख होकर मनमानी घोषणायें करना विवेकशील मनुष्य को योग्य नहीं है। हम आप सब परमात्मा के अंश रूप में उसके प्रतिनिधि पुत्र हैं, अपने परम पिता से परांगमुख होना न तो हमारे लिए शोभनीय है और न कल्याणकारी!

बहती सरितायें, गिरते प्रपात खिलते फूल, हिलती हुई पत्तियाँ, उड़ती और गाती हुई चिड़ियाँ उदय अस्त होते हुए सूर्य चन्द्र, निकलते और चलते हुए तारे, भ्रमण करते हुए नक्षत्र, आते जाते दिन-रात और बदलती हुई ऋतुओं में उसी चेतन रूप परमात्मा की ही विद्यमानता है। अन्यथा मूल रूप में जड़ इन सबमें यह विशेषतायें स्वयं सम्भव कैसे हो सकती?

यह सर्वांग सुन्दर मनुष्य मूलतः क्या है? निर्जीव मिट्टी का एक नश्वर पुतला, जिसमें न कोई अपने गुण हैं और न अपनी कोई चेतना! किन्तु यह मात्र मिट्टी की प्रतिमा क्या-क्या काम और कैसे-कैसे चमत्कार कर दिखाती है? निरर्थकताओं को उपयोगी और जड़ों को चेतन बना कर चला देने वाला मनुष्य यदि अपनी विशेषताओं को अपना समझने का दम्भ करता है तो यह परमात्मा के प्रति कृतघ्नता ही है, जिसने उसमें चेतना रूप आत्मा होकर स्वयं प्रवेश किया और उसे ऐसा कर सकने योग्य बनाया!

परमात्मा के अंश आत्मा की उपस्थिति के कारण ही मनुष्य शरीर का मूल्य एवं महत्व है। मनुष्य शरीर में स्थित यही आत्मा प्राण रूप में मुखर एवं सक्रिय होता और जिसके प्रभाव से यह मृत्तिका मय मानव शरीर संक्रामक एवं सक्षम बनता है। जिस दिन यह परम तत्व—परमात्मा—अपने को स्थिर एवं स्तब्ध कर लेता है समग्र अवयवों के अक्षत रहने पर भी शरीर निचेष्ट होकर निरर्थक हो जाता है और अन्ततः यह मिट्टी होकर मिट्टी में मिल जाता है। संसार में सारे सम्बन्धी एवं स्नेही जन रहने पर भी प्राणहीन शरीर का कोई पूछने वाला नहीं रहता। मनुष्य शरीर में यह परमात्मा तत्व ही है जो उसका मूल्य महत्व बढ़ाता है और परिजन उसे चाहते अथवा प्रेम करते हैं। ऐसे सर्वकर्त्ता एवं सर्वभर्ता परमात्मा के अस्तित्व से किस प्रकार इनकार किया जा सकता है?

ऋषियों, मुनियों, मनीषियों एवं महात्माओं ने इस स्पष्ट एवं रहस्यमय परमात्मा को पहचान पाने का प्रयत्न किया, पाया और जन-जन पर उसे पाने की विधि का उद्घाटन किया। उस अपने तथा जगत के सर्वस्व प्राण एवं प्रेरक परमात्मा को धन्यवाद देने तथा अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए उपासना की पद्धति चलाई। जन मानस में अखण्ड आस्तिकता का प्रभाव बढ़ाने के लिए धर्म मार्ग की खोज की और उसका प्रचार किया। उपासना पद्धति से इसी धर्म मार्ग पर चल कर न जाने कितने जीव परम प्रभु को पाकर तद्रुप हो चुके हैं और आगे भी होते रहेंगे।

परम प्रभु की उपासना की अनेक विधियाँ हैं किन्तु इन सबका मूल मन्तव्य एक ही है—वह है अपने जीवन की रीति नीति ऐसी बनाना है जो परमात्मा के अंश मनुष्य के अनुरूप हो! परमात्मा से स्वीकृत, मन, वचन, कर्म से जीवन पद्धति अपनाने वाला सहज ही परमात्मा का कृपापात्र बन जाता है और तब उस पर इस परमपिता की कृपा की अजस्र धारा अनेक उन्नतियों के रूप में बरसती रहती है। परमात्मा आनन्द रूप में अपने युक्त उपासक को अपना मंगलमय सान्निध्य का अनुग्रह करता है। परमात्मा के सच्चे भक्तों को संसार में किसी भी प्रकार की सुख शाँति की कमी नहीं रहती।

यह बात असंदिग्ध रूप से सत्य है कि परमात्मा परम कृपालु एवं स्वभावतः करुणाकर है। किन्तु इसके साथ उसका एक रूप और भी है—वह है उसका न्यायी तथा दण्ड दाता होना। जहाँ उसकी प्रसन्नता अपने पुत्र मनुष्य पर अनिवर्चनीय उपहारों की झड़ी लगा देती है वहाँ उसकी अप्रसन्नता असहनीय दण्ड भी देती है! संसार में कदाचित् ही कोई ऐसा अभागा एवं दुर्बुद्धि व्यक्ति हो जो परमात्मा की न्याय परिधि में आकर दुख की, दंड की कामना करे। नहीं तो प्रत्येक जीव उसकी प्रसन्नता एवं पुरस्कार पाने का ही आकाँक्षी रहता है। उपासना परमात्मा की प्रसन्नता प्राप्त करने का ही एक उपाय है। किन्तु यह उपाय केवल पूजा-पाठ, भजन, कीर्तन अथवा स्मरण जाप से ही सफल नहीं हो सकता!

अनेक लोग परमात्मा को अकारण करुणाकर मान कर यह आशा करते हैं कि थोड़ा-सा पूजा पाठ कर देने से वह कृपालु प्रसन्न हो जायेगा और उनके सारे अपराध क्षमा कर अदण्डनीय मान लेगा। इसी भ्राँत विश्वास के आधार पर लोग उसके पुण्य पथ से विपथ होकर गुण कर्म एवं स्वभाव को अवाँछनीय रख कर भी पूजा-पाठ का क्रम चलाते और सोचते रहते हैं कि परमात्मा उनको क्षमा कर देगा! ऐसे अल्पबुद्धि लोग परमात्मा को भी अपनी ही तरह पक्षपाती तथा घूसखोर समझते हैं। वे यह नहीं सोच पाते कि परमात्मा अपनी न्याय विधि में वज्र की तरह कठोर तथा यम की तरह निर्दय है। वह बड़ी से बड़ी चाटुकारी तथा पूजा अर्चा से भी अपने न्याय से विचलित नहीं हो सकता।

परमात्मा की कृपा पाने और कृपा के फलस्वरूप सुव्यवस्थित शाँति, हर्ष उल्लास तथा आनन्द मंगल के शिव एवं शाश्वत उपहार पाने के लिए मनुष्य को उसके निर्देशित धर्म मार्ग पर चलकर ही उपासना करनी होगी। मनुष्य का कल्याण इसी में है कि वह परमात्मा के कृपालु रूप के साथ उसके ‘रुद्र’ रूप को भी याद रक्खे, उससे डरे और सत्पथ पर शुद्ध एवं सात्विक भावना से चलकर उसे अप्रसन्न होने का अवसर न दे। हम सबको परमात्मा का प्रकोप नहीं उसकी प्रसन्नता पाने का ही प्रयत्न करना चाहिए। यही मनुष्यरूप परमात्मा के अंश हम सबके लिए योग्य एवं शोभनीय है। पुरस्कार एवं दण्ड का भागी बनना न तो मनुष्यता के अनुरूप है और न विवेकसंगत!

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