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सकाम उपासना से प्रभु प्राप्ति-
लोग पूजा करते हैं, प्रार्थना करते हैं, उसे प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं। किन्तु कैसी बच्चों जैसी बात हैं, कितने आश्चर्य का विषय है कि उसके प्रसन्न होने के पूर्व ही अपनी इच्छाओं को सामने रखने लगते हैं, मनोरथों की माँगने लगते हैं, सो भी मनोरथ कौन से? साँसारिक भोग जो संसार में चारों ओर बिखरे पड़े हैं और जिनका न कोई मूल्य है और न ही महत्व। बल्कि सब-के-सब हेय और त्याज्य माने गये हैं।
ऐसे मूर्ख और दरिद्रमना व्यक्ति से कोई साधारण व्यक्ति भी प्रसन्न नहीं होगा फिर परमात्मा के प्रसन्न होने की बात क्या हो सकती है?
कामनाओं को साथ लेकर परमात्मा की पूजा-प्रार्थना करने वाला वास्तव में परमात्मा की नहीं, अपनी कामनाओं की ही उपासना किया करता है। उसमें जो कुछ लगन, तीव्रता और तन्मयता होती है उसका हेतु कामनाओं की लिप्सा ही हुआ करती है, प्रभु-प्रेम नहीं! तब भला ऐसा वंचक उस परम विज्ञानमय प्रभू को किस प्रकार प्रसन्न कर सकता है?
—संत तुकाराम
अपनों से अपनी बात—