
आत्म-सत्ता और उसकी महान् महत्ता
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जीव की शारीरिक स्थिति पर विचार करें तो प्रत्यक्षतः यह देखने में आता है कि दो शक्तियाँ अवस्थित हैं। प्रथम पञ्चधा प्रकृति—जिससे हाथ, पाँव, पेट, मुँह, आँख, कान, दाँत आदि शरीर का स्थूल कलेवर बनकर तैयार होता है। इस निर्जीव तत्व की शक्ति और अस्तित्व का भी अपना विशिष्ट विधान है जो भौतिक विज्ञान के रूप में आज सर्वत्र विद्यमान है। जड़ की परमाणविक शक्ति ने ही आज संसार में तहलका मचा रखा है जबकि उसके सर्गाणुओं, कर्षाणुओं, केन्द्रपिण्ड (न्यूक्लिअस) आदि की खोज अभी भी बाकी है। यह सम्पूर्ण शक्ति अपने आप में कितनी प्रबल होगी इसकी कल्पना करना भी कठिन है। द्वितीय—शरीर में सर्वथा स्वतन्त्र चेतन शक्ति , भी कार्य कर रही है जो प्राकृतिक तत्वों की अपेक्षा अधिक शक्तिमान मानी गई है। यह चेतन तत्व संचालक है, इच्छा कर सकता है, योजनायें बना सकता है, अनुसन्धान कर सकता है इसलिये उसका महत्व और भी बढ़-चढ़कर है। हिन्दू ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में जो गहन शोधों के विवरण हैं वे चेतन शक्ति की आश्चर्यजनक शक्ति प्रकट करते हैं। इतना तो सभी देखते हैं कि संसार में जो व्यापक क्रियाशीलता फैली हुई है वह इस चेतना का ही खेल है। इसके न रहने पर बहुमूल्य, बहु शक्ति -सम्पन्न और सुन्दर शरीर भी किसी काम का नहीं रह जाता।
जीवधारियों के शरीर में व्याप्त इस चेतना का ही नाम आत्मा है। सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, ज्ञान तथा प्रयत्न उसके धर्म और गुण हैं। न्याय और वैशेषिक दर्शनों में आत्मा के रहस्यों पर विशद प्रकाश डाला गया है और उसे परमात्मा का अंश बताया गया है। यह आत्मा ही जब सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष आदि विकारों का त्याग कर देती है तो वह परमात्म-भाव में परिणित हो जाता है।
आज भौतिक विचारधारा के लोग इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं होते। उनकी दृष्टि में शरीर और आत्मा में कोई भेद नहीं है। इतना तो कोई साधारण बुद्धि का व्यक्ति भी आसानी से सोच सकता है कि जब उसके हृदय में ऐसे प्रश्न उठते रहते हैं—’मैं कौन हूँ’, ‘मैं कहाँ से आया हूँ’, ‘मेरा स्वरूप क्या है’, ‘मेरे सही शरीर-धारण का उद्देश्य क्या है’ आदि। ‘मैं यह खाऊँगा’, ‘मुझे यह करना चाहिए, ‘मुझे धन मिले’—ऐसी अनेक इच्छायें प्रतिक्षण उठती रहती हैं। यदि आत्मा का प्रथम अस्तित्व न होता तो मृत्यु हो जाने के बाद भी वह ऐसी स्वानुभूतियाँ करता और उन्हें व्यक्त करता। मुख से किसी कारणवश बोल न पाता तो हाथ से इशारा करता, आँखें पलक मारती, भूख लगती, पेशाब होती। पर ऐसा कभी होता नहीं देखा गया। मृत्यु होने के बाद जीवित अवस्था की सी चेष्टायें आज तक किसी ने नहीं कीं, आत्मा और शरीर दो विलग वस्तुयें—दो विलग तत्व होने का यही सबसे बड़ा प्रमाण है।
छान्दोग्योपनिषद के सातवें अध्याय के 26वें खण्ड में बताया गया है—
‘आत्मा से प्राण, आत्मा से आशा, आत्मा से स्मृति, आत्मा से आकाश, आत्मा से तेज, आत्मा से जल, आत्मा से आविर्भाव और तिरोभाव, आत्मा से अन्न, आत्मा से बल, आत्मा से विज्ञान, आत्मा से ध्यान, आत्मा से चित्त; आत्मा से संकल्प, आत्मा से मन, आत्मा से वाक्, आत्मा से नाम, आत्मा से मन्त्र, आत्मा से कर्म और यह सम्पूर्ण चेतन जगत ही आत्मा से आच्छादित है। इस आत्म-तत्व का ज्ञान प्राप्त कर लेने वाले मनुष्य जीवन-मरण के बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं।’
वृहदारण्यकोपनिषद् में राजा जनक ने आत्मा के सम्बन्ध में श्री याज्ञवल्क्य को उपदेश देते हुए कहा है—’यह आत्मा प्राणों में बुद्धि वृत्तियों के भीतर रहने वाला विज्ञानमय ज्योति स्वरूप पुरुष है। वह लोक परलोक दोनों में संचार करता है। स्वप्नास्थामें यह सूक्ष्मातिसूक्ष्म आत्मा ही विभिन्न लोकों में विचरण करता है।’
भौतिक विज्ञान दरअसल आत्मा के अस्तित्व का खण्डन नहीं करता अपितु वह उसे सिद्ध करने में ही सहायक हुआ है। विज्ञान की उच्च सतह पर न पहुँचने के कारण आज कुछ लोग ऐसी भ्रामक धारणायें फैलाए हुए हों, यह दूसरी बात है अन्यथा जिन वैज्ञानिकों ने गहन तत्वान्वेषण किये हैं उनमें से प्रायः सभी ने यह माना है कि पदार्थ जड़ है और आत्मा चेतनायुक्त ज्ञानमय द्रव्य है। इन दोनों के गुणों में असमानता है और आत्मा की शक्ति पदार्थ की शक्ति से बहुत बड़ी है।
जुलाई 1936 में कलकत्ता ने प्रकाशित ‘दी मार्डन रिव्यू’—में सर ए. एस. एडिंग्टन तथा प्रो. अलवर्ट आइन्स्टीन के आत्म-ज्ञान सम्बन्धी विचार उद्धृत हुए हैं जो इस प्रकार हैं—
‘संसार में कोई अज्ञात शक्ति काम कर रही है जिसे हम नहीं जानते कि वह क्या है? फिर भी इतना तो स्पष्ट है ही कि वह अधिक शक्तिशाली है। मैं चेतना को मुख्य मानता हूँ। इस आत्मा के विषय में मुझे अपने मत से कोई विचलित नहीं कर सकता।’
‘मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि सारी प्रकृति में एक असीम शक्तिशाली चेतन-शक्ति काम कर रही है।’
विश्वविख्यात वैज्ञानिक डा. गाल का मत है—’विश्व में केवल एक ही मुख्य तत्व है जो देखता है, अनुभव करता है, प्रेम करता है, विचार और स्मृति करता है।’
‘जैसे मनुष्य दो दिनों के बीच रात्रि को स्वप्न देखता है वैसे ही मनुष्य की आरम्भ ही मृत्यु तथा पुनर्जन्म के मध्य विभिन्न साँसारिक क्रियायें करती हैं—सर ओलीवर लाज ने इन शब्दों में आत्मा के अस्तित्व पर प्रकाश डाला है।
कुछ दिन पूर्व इस बात को लेकर वैज्ञानिकों में काफी लम्बी चर्चा चली थी और आत्मा के अस्तित्व सम्बन्धी उनके मत लिए गए थे जिन्हें सामूहिक रूप से ‘दो ग्रेट डिजाइन’ नामक पुस्तक में प्रकाशित किया गया है। पुस्तक में उपसंहार करते हुए लिखा गया है—
‘यह संसार कोई आकस्मिक घटना नहीं लगता है। इसके पीछे कोई सुनियोजित विधान चल रहा है। एक मस्तिष्क, एक चेतन-शक्ति काम कर रही है। अपनी-अपनी भाषा में उसका नाम चाहे कुछ रख लिया जाय पर वह मनुष्य की आत्मा ही है।’
इसके अतिरिक्त जे. एन. थामसन, जे. बी. एम. हेल्डन, पी. गोइडेस, आर्थर एच. काम्पटन, सर जेम्स जोन्स आदि वैज्ञानिकों ने भी आत्मा के अस्तित्व में सहमति प्रकट की है। उसके प्रत्यक्ष ज्ञान के साधनों का पाश्चात्य देशों में भले ही अभाव हो, पर विचार और बुद्धिशील मनुष्य के लिए यह अनुभव करना कठिन नहीं है कि यह जगत केवल वैज्ञानिक तथ्यों तक सीमित नहीं वरन् उन्हें नियन्त्रित करने वाली कोई चेतना भी अवश्य काम कर रही है और उसे जानना मनुष्य के लिए बहुत आवश्यक है।
शास्त्रीय कथानकों के माध्यम से आत्मा के अस्तित्व, गुणों और क्रियाओं के सम्बन्ध में बड़ी ही ज्ञानपूर्ण चर्चायें की गई हैं। ऐसे कथानकों में नारद, ध्रुव आदि के वार्तालाप के साथ राजा चित्रकेतु की कथा भी बड़ी शिक्षाप्रद और वास्तविक तथ्यों से ओत प्रोत है।
चित्रकेतु एक राजा था जिसे महर्षि अंगिरा की कृपा से एक सन्तान प्राप्त हुई थी। बच्चा अभी किशोर ही था कि उसकी मृत्यु हो गई। राजा पुत्र-वियोग से बड़ा व्याकुल हुआ। अन्त में ऋषिदेव उपस्थित हुए और उन्होंने दिवंगत आत्मा को बुलाकर शोकातुर राजा से वार्तालाप कराया। पिता ने पुत्र से लौटने के लिए कहा तो उसने जवाब दिया, ‘ए जीव! मैं न तेरा पुत्र हूँ और न तू मेरा पिता है। हम सब जीव कर्मानुसार भ्रमण कर रहे हैं। तू अपनी आत्मा को पहचान। हे राजन् ! इसी से तू साँसारिक संतापों से छुटकारा पा सकता है।’ अपने पुत्र के इस उपदेश से राजा आश्वस्त हुआ और शेष जीवन उसने आत्म-कल्याण की साधना में लगाया। राजा चित्रकेतु अन्त में आत्म-ज्ञान प्राप्त कर जीवन-मुक्त हो गया।
यह आत्मा अनेक योनियों में भ्रमण करती हुई मनुष्य जीवन में आती है। ऐसा संयोग उसे सदैव नहीं मिलता। शास्त्रीय अथवा विचार की भाषा में इतना तो निश्चय ही कहा जा सकता है कि जीवों की अपेक्षा मनुष्य को जो श्रेष्ठताएँ उपलब्ध है वे किसी विशेष प्रयोजन के लिए ही हैं जो आत्मज्ञान या अपने आपको जानना ही हो सकता है, आत्मज्ञान ही मनुष्य-जीवन का लक्ष्य है जिससे वह जीवभाव से मुक्त होकर ईश्वरीय भाव में लीन हो जाता है।