Magazine - Year 1969 - Version 2
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Language: HINDI
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श्रेष्ठता की परीक्षा
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“नहीं, नहीं, विरोचन। श्रेष्ठता का आधार वह तप अर्थ नहीं जो व्यक्ति को मात्र सिद्धियाँ और सामर्थ्य प्रदान करे। ऐसा तप तो शक्ति-संचय का साधन मात्र है। श्रेष्ठ तपस्वी तो वह है जो अपने लिये कुछ चाहे बिना समाज के शोषित, उत्पीड़ित, दलित और असहाय जनों को निरन्तर ऊपर उठाने के लिये परिश्रम किया करता है। इस दृष्टि से महर्षि कण्व की तुलना राजर्षि विश्वामित्र नहीं कर सकते। कण्व की सर्वोच्च प्रतिष्ठा इसलिये है कि वह समाज और संस्कृति, व्यष्टि और समष्टि के उत्थान के लिये निरंतर घुलते रहते हैं।” भगवान इन्द्र ने विनोद भाव से विरोचन की बात का प्रतिवाद किया।
और विरोचन अपनी बात पर दृढ़ थे। उनका कहना था-तपस्वियों में तो श्रेष्ठ विश्वामित्र ही हैं। उन दिनों विश्वामित्र शिवालिक-शिखर पर सविकल्प समाधि अवस्था में थे और कण्व वहाँ से कुछ दूर आश्रम-जीवन ज्ञापन कर रहे थे। कण्व के आश्रम में बालकों का ही शिक्षण नहीं बालिकाओं को भी समानान्तर आध्यात्मिक, धार्मिक एवं साधनात्मक प्रशिक्षण प्रदान किया जाता था।
विरोचन के फिर वही व्यंग्य करते हुए कहा-भगवान् आपको तो स्पर्धा का भय है किन्तु आप विश्वास रखिये विश्वामित्र त्यागी सर्व प्रथम है तपस्वी बाद में। उन्हें इन्द्रासन का कोई लोभ नहीं, तप तो वह आत्म-कल्याण के लिये कर रहे हैं। उन्होंने न झुकने वाली सिद्धियाँ अर्जित की हैं। उन सिद्धियों का नाम तो समाज को भी दिया जा सकता है।
विश्वामित्र की सिद्धियों को मैं जानता हूँ विरोचन। भगवान् इन्द्र ने पुनः अपने तर्क के प्रमाणित किया-किन्तु सिद्धियाँ प्राप्त कर लेने के बाद यह आवश्यक नहीं कि वह व्यक्ति उनका उपयोग लोक-कल्याण में करे। शक्ति में अहंभाव का जो दोष है वह सेवा में नहीं इसलिये सेवा को मैं शक्ति से श्रेष्ठ मानता हूँ इसीलिये कण्व की विश्वामित्र से बड़ा मानता हूँ।
बात आगे बढ़ती किन्तु महारानी शची के आ जाने से विवाद रुक गया। रुका नहीं-एक मोड़ ले लिया। शची ने हँसते हुए कहा-अनुचित क्या है? क्यों न इस बात की हाथों-हाथ परीक्षा कर ली जाये।
बात निश्चित हो गई। कण्व और विश्वामित्र की परीक्षा होगी, यह बात कानों-कान सारी इन्द्रपुरी में पहुँच गई। लोग उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा करने लगे देखें सिद्धि की विजय होती है या सेवा की।
निशादेवी ने पहला पाँव रखा। दीप जले, देव-आरती से उनका स्वागत किया गया। दिव्य-ज्योतियों से सारा इन्द्रपुर लगभग-जगमग करने सका। ऐसे समय भगवान् इन्द्र ने अनुचर को बुलाकर रुपसी अप्सरा मेनका को उपस्थित करने की आज्ञा दी। अविलम्ब आज्ञा का पालन किया गया। थोड़ी ही देर में मेनका वहाँ आ गई। इन्द्र ने उसे सारी बातें समझा दीं। वह रात इस तरह इन्द्रपुर में अनेक प्रकार की मनोभावों में ही बीती।
सबेरा हुआ। भगवती उषा का साम्राज्य ढलने लगा। भुवन भास्कर देव प्राची में अपनी दिव्य सभा के साथ उगने लगे। भगवती गायत्री के आराधना का यह सर्वोत्कृष्ट समय होता है। तपस्वी विश्वामित्र आसन बंध और प्राणायाम समाप्त कर जप के लिये बैठे थे। उनके हृदय में वैराग्य की धारा अहर्निश बहा करती थी। जप और ध्यान में कोई कष्ट नहीं होता था। बैठते-बैठते चित्त भगवान् सविता के भर्ग से आच्छादित हो गया। एक प्राण भगवती गायत्री और राजर्षि विश्वामित्र। दिव्य तेज फूट रहा था उनकी मुखाकृति से। पक्षी और वन्य जन्तु भी उनकी साधना देख मुग्ध हो जाते थे।
उनकी यह गहन शान्ति और स्थिरता देखकर पक्षियों को कलरव करने का साहस न होता। जन्तु चराचर नहीं करते थे, उन्हें भय था कहीं ध्यान न टूट जाये और तपस्वी के कोप का भाजन बनना पड़े। सिंह तब दहाड़ना भूल जाते वे दिन के तृतीय प्रहर में ही दहाड़ते और वह भी विश्वामित्र की प्रसन्नता बढ़ाने के लिये क्योंकि वह उस समय वन-विहार के लिये आश्रम छोड़ चुके होते थे।
किन्तु आज उस स्तब्धता को तोड़ने को साहस किया किसी अबला ने। अबला नहीं अप्सरा। मेनका। इन्द्रपुर जिसकी छवि पर दीपक की लौ पर शलभ की भाँति जल जाने के लिये तैयार रहता था। आज उसने अप्रतिम शृंगार कर विश्वामित्र के आश्रम में प्रवेश किया था। पायल की मधुर झंकार से वहाँ का प्राण-पूत वातावरण भी सिहर उठा। लौध्र पुष्प की सुगन्ध सारे आश्रम में छा गई। जहाँ अब तक शान्ति थी, साधना थी वहाँ देखते-देखते मादकता, वैभव और विलास खेलने लगा।
किन्तु विश्वामित्र की समाधि निश्चल अविचलित। अन्तरिक्ष में गये प्राण जिस सुख और शान्ति की अनुभूति में निमग्न थे लगता है यह नयापन उसकी तुलना में नगण्य था किन्तु जैसे-जैसे मेनका के पाँवों की थिरकन, कण्ठ का संगीत और अंगराग वहाँ तीव्रता से बिखरने लगा। विश्वामित्र की चेतना में आकुलता बढ़ने लगी। रूप और सौंदर्य के इन्द्रजाल में आकाश में विलीन विश्वामित्र की एकाग्रता को आश्रम में ला पटका। नेत्र-पटल खुल गये। मेनका नृत्य में खो गई और विश्वामित्र को स्थिरता खो गई। उसके अंग सौठव, रूप-सज्जा और प्रबल कामासक्ति में।
दण्ड और कमण्डलु ऋषि ने एक ओर रख दिये। कस्तूरी मृग जिस तरह बहेलिये की संगीत-ध्वनि से मोहित होकर कालातीत होने के लिये चल पड़ता है। लहराने लगता है। सर्प जिस तरह वेणु का नाच सुनकर उसी प्रकार महर्षि विश्वामित्र ने अपना सर्वस्व उस रुपसी अप्सरा के अञ्चल में न्यौछावर कर दिया। सारे भारतवर्ष में कोलाहल मच गया कि विश्वामित्र का तप भंग हो गया।
एक दिन, दो दिन, सप्ताह, पक्ष और मास बीतते गये और उनके साथ ही विश्वामित्र का तप और तेज भी स्खलित होता गया। विश्वामित्र का अर्जित तप काम के दो कौड़ी वाम बिक गया। और जब तप के साथ उनकी शांति उनका यश और वैभव भी नष्ट हो गया तब उन्हें पता चला कि भूल नहीं अपराध हो गया। विश्वामित्र प्रायश्चित की अग्नि में चलने लगे।
क्रोधोच्छ्दासित विश्वामित्र ने मेनका को दंड देने का निश्चय किया पर प्रातःकाल होने तक मेनका आश्रम से जा चुकी थी, इतने दिन की योग-साधना का परिणाम एक कन्या के रूप में छोड़ कर। विश्वामित्र ने बिलखती आत्मजा के पास भी मेनका को नहीं देखा तो उनकी देह क्रोध से जलने लगी पर अब हो ही क्या सकता? मेनका इन्द्रपुर जा चुकी थी।
रोती-बिलखती कन्या को देखकर भी विश्वामित्र को दया नहीं आई। पाप उन्होंने किया था पश्चाताप भी उन्हें ही करना चाहिये था पर उनकी आँखों में तो प्रतिशोध छाया हुआ था। ऐसे समय मनुष्य को इतना विवेक कहाँ रहता है कि वह यह सोचे कि मनुष्य अपनी भूलें सुधार भी सकता है। और नहीं तो अपनी सन्तान, अपने आगे आने वाली पीढ़ी के मार्गदर्शन के लिये तथ्य और सत्य को उजागर ही रख सकता है। विश्वामित्र को आत्म-कल्याण की चिन्ता थी इसलिये उन्हें इतनी भी दया नहीं आई कि वह बालिका को उठाकर उसके लिये दूध और जल की व्यवस्था करते। बालिका को वही बिलखता छोड़कर वे वहाँ से चले गये।
मध्याह्न वेला। ऋषि कण्व लकड़ियाँ काटकर लौट रहे थे। मार्ग में विश्वामित्र का आश्रम पड़ता था। बालिका के रोने का स्वर सुनकर कण्व ने निर्जन आश्रम में प्रवेश किया। आश्रम सूना पड़ा था। अकेली बालिका दोनों हाथों के अंगूठे मुँह में चूसती हुई भूख को धोखा देने का असफल प्रयत्न कर रही थी।
कण्व ने भोली बालिका को देखा, स्थिति का अनुमान करते ही उनकी आंखें छलक उठीं। उन्होंने बालिका को उठाया, चूमा और प्यार किया और गले लगाकर अपने आश्रम की ओर चल पड़े। पीछे-पीछे उनके सब शिष्य चल रहे थे। इन्द्र ने विरोचन से पूछा-तात बोलो न। जिस व्यक्ति के हृदय में पाप करने वाले के प्रति कोई दुर्भाव नहीं, पाप से उत्पीड़ित के लिये इतना गहन प्यार की उसकी सेवा माता की तरह करने को तैयार वह कण्व
श्रेष्ठ हैं या विश्वामित्र?
विरोचन आगे कुछ न बोल सके। उन्होंने लज्जावश अपना सिर नीचे झुका लिया।