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Magazine - Year 1969 - Version 2

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ऊँच-नीच की मान्यता अवांछनीय और अन्याय मूलक

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First 19 21 Last
युग-निर्माण योजना मथुरा द्वारा प्रकाशित ‘सन्तान की संख्या न बढ़ाए’)

पुस्तिका का सारांश

कोई समय था जब अपने देश की जनसंख्या बहुत थोड़ी थी, विस्तृत वन भरे पड़े थे। पशु-पालन और कृषि के लिए मन चाही जमीन उपलब्ध थी। तब अर्थ व्यवस्था और सुरक्षा के लिए परिवार के सदस्यों की संख्या बड़ी होना उपयोगी था। जंगली जानवरों और दस्युओं से निपटने में भी वे समर्थ रहते थे, जिनका परिवार बड़ा था। उन दिनों पुत्र का जन्म, सन्तान की वृद्धि एक दैवी कृपा मानी जाती थी।

इन दिनों देश की जनसंख्या खतरे के बिन्दु तक बढ़ गई है। हर व्यक्ति हिस्से में इतनी कम भूमि आती है, जिससे पर्याप्त अन्न उगाना और पशुओं के निर्वाह के लिए चारा प्राप्त करना अति कठिन होता चला जाता है। अन्न उत्पादन के लिए सिर तोड़ परिश्रम करने पर भी विदेशों से कर्ज उधार तथा बदले में अति आवश्यक वस्तुएँ देकर किसी प्रकार पेट पालना सम्भव होता है। अनाज की महंगाई आकाश को छू रही है। दूध, घी देवताओं को दुर्लभ हो रहा है। चाय और डालडा से इन पदार्थों की स्मृतिजन्द, है। जिस क्रम से आबादी बढ़ रही है, उसे देखते हुए अगले दिनों अन्न की कमी, महंगाई, दूध-घी की दुर्लभता अड़ेगी। मनुष्यों के लिए ही जब निवास व अन्न कठिन हो जाएगा तो बेचारे पशु कहाँ रहेंगे- कैसे जियेंगे।

पचास वर्ष पूर्व की और आज की परिस्थिति में आज इस जनसंख्या की दृष्टि ने जमीन, आसमान जितना अन्तर उत्पन्न कर दिया। यह क्रम, चक्र-वृद्धि क्रम से बढ़ रहा है। अस्तु अगले दिनों यह विपन्नता और भी अधिक बढ़ेगी। उद्योग-धन्धे व्यापार, शिक्षा, सवारी आदि के साधन कितने भी बढ़ाये जायें-आबादी जिस तेजी से बढ़ रही है, उसे देखते हुए वे कम ही पड़ते चले जायेंगे और दरिद्रता से लेकर अस्वस्थता तक असंख्य समस्यायें बढ़ती और उलझती चली जायेंगी। निवास, बेरोजगारी, चिकित्सा की गुत्थियाँ अब भी पेचीदा हो रही हैं, अगले दिनों तो वे न सुलझने की स्थिति में जा पहुँचेगी।

सन्तान की संख्या बढ़ाना आज की परिस्थिति में अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में विपत्तियों को सीधा आमन्त्रण देना है। महंगाई और अपर्याप्त आजीविका के कारण बच्चों के निवास, खेल-कूद के लिए स्थान कम मिलता है, उन्हें पौष्टिक भोजन नहीं मिल पाता, महंगी शिक्षा और चिकित्सा के कारण न उनको समय के अनुरूप ऊँची पढ़ाई की व्यवस्था बन पाती है और न चिकित्सा का समुचित प्रबन्ध होता है। ऐसी दशा में कौन आशा करेगा कि इन ढेरों बच्चों का समुचित विकास एक औसत दर्जे का आदमी कर सकता है। उँगलियों पर गिने जाने वाले अमीरों की बात दूसरी है, सर्व साधारण के लिए तो यह भार जितना बढ़ेगा, उतना ही असह्य बनेगा। समय कम और बच्चे अधिक होने पर उनकी ओर समुचित ध्यान भी तो नहीं दिया जा सकता। उनका स्वभाव, संस्कार, स्वास्थ्य सुविकसित करने के लिए अभिभावकों को पूरा ध्यान देना, समय और श्रम लगाना तथा पर्याप्त खर्च करना चाहिये। पर यह अधिक बालकों ने सम्भव नहीं। इसलिए वे बेचारे जंगली घास-फूँस की तरह बढ़ते-अपनी मौत के पास जाते और कुसंस्कारी बनते रहते हैं। ऐसे बालक सारे परिवार के लिए-समस्त समाज के लिए एक सिर-दर्द हो रहते हैं। कुमार्गगामी या अस्वस्थ हो गये, तब तो उन्हें एक विपत्ति एवं अभिशाप ही कहा जाएगा

काम उतना ही हाथ में लेना चाहिये, जो ठीक तरह निबाहा जा सके। बच्चे उत्पन्न करना क्रीड़ा-विनोद मात्र नहीं है। उसके पीछे भारी उत्तरदायित्व लदे हैं। जो उसे ठीक तरह बहन कर सकने में समर्थ हैं, उन्हें ही यह बोझा उठाने का साहस करना चाहिए अन्यथा बिना आगा-पीछा सोचे संतान बढ़ाते जाना, अपने लिए, बच्चों के लिए और समस्त समाज के लिए संकट प्रस्तुत करने का अपराध ही माना जाएगा

सन्तान संख्या को बढ़ाना अपनी पत्नी के साथ प्रत्यक्ष अत्याचार है। बच्चे को नौ महीने पेट में रखने उसका शरीर अपने रक्त-माँस में से बनाने, प्रसव पीड़ा और दूध पिलाना और अधूरी नींद ले पाना माता के लिए एक असाधारण भार है। उसकी पूर्ति के लिए उसे बहुमूल्य पौष्टिक भोजन, विश्राम तथा कई तरह की सुविधायें चाहिये। वे न मिलें और एक के बाद, दूसरे बच्चे जल्दी-जल्दी पैदा होते चले जायें तो निश्चित रूप से उस माता का स्वास्थ्य बिगड़ जायेगा। अपने देश की तीन चौथाई स्त्रियों का स्वास्थ्य इसी कारण खराब है, उन्हें अनेक तरह के भीतरी रोग घेरे रहते हैं। जवानी दो-चार वर्ष के भीतर चली जाती है और देखते-देखते बुढ़ापा आ घेरता है। प्रसवकाल में अगणित स्त्रियाँ मरती हैं। दुर्बल शरीरों के लिए यह भार और क्या परिणाम उत्पन्न कर सकता है। यह स्पष्टतः एक हत्या-काण्डों की शृंखला है। जो जिस वजन को उठाने में असमर्थ है उसके ऊपर लादते ही चले जायें तो आखिर बेचारे को मरना ही पड़ेगा। हम कहने भर को ही अपनी पत्नी से दिखावटी प्यार करते हैं, व्यवहार हमारा कसाई जैसा होता है। प्रजनन के भार से कराहती हुई-बेमौत मरी हुई-अनेक रोगों से ग्रस्त महिलाओं की अगणित आत्मायें अपने पतियों के नृशंस अत्याचारों की ही शिकार होती है। भले ही कोई इस तथ्य की उपेक्षा करे पर सच्चाई तो अन्ततः सच्चाई ही रहेगी। दुर्बल माताएँ चिड़चिड़ी, दुर्गुणी और रुग्ण सन्तान ही उत्पन्न करेंगी। इससे किसी परिवार को प्रसन्नता अनुभव करने का नहीं विपत्ति का ही मुख देखना पड़ेगा। अच्छा हो हम समझ से काम लें और प्रस्तुत परिस्थितियों को देखते हुए सन्तान की संख्या वृद्धि का संकट मोल लेने से पहले हजार बार उस जिम्मेदारी के सम्बन्ध में विचार करें। यदि अपनी पत्नी की शारीरिक, मानसिक और आर्थिक स्थिति इसके लिए हर दृष्टि से उपयुक्त है तो ही आगे बढ़ें। अन्यथा कदम रोक लेने में ही दूर दर्शिता है।

आज की परिस्थिति में बच्चों को बढ़ाना सौभाग्य सूचक नहीं, दुर्भाग्य का प्रतीक बन गया है। प्राचीन काल में सन्तान की कामना और प्रार्थना की जाती हो, उनके जन्म का उत्सव मनाया जाना, यह तो समझ में आता है पर आज भी उसी तरह सोचना अनुपयुक्त है। एक रुपये के बीस-तीस सेर गेहूँ बिने के दिनों की बात आज एक सेर भाव के गेहूँ दिनों में ज्यों की त्यों लागू नहीं की जा सकती। तब सन्तान हीन अभागे कहे जाते थे। पर आज तो सच्चे अर्थों में वे ही भाग्यवान् हैं। उन्हें देश-भक्त एवं पुण्यात्मा कहा जा सकता है, क्योंकि उन्होंने राष्ट्रीय संकट को बढ़ाने का पाप नहीं किया।

अपना देश मूढ़ मान्यताओं के जंजालों में जकड़ा हुआ है। इसमें लोग पाँच हजार वर्ष पुराने ढर्रे पर ही अभी भी सोचने के आदी है। विवाह होते ही संतान की शीघ्रता पड़ती है। जिसने बच्चा पैदा कर लिया, उसने किला जीत लिया, जो उससे बचा रहा वह अभागा और अभाव ग्रस्त समझा गया। असंख्य नर-नारी इसी मूढ़ विचार धारा से प्रभावित होकर सन्तान के अभाव में रोते, कलपते पाये जाते हैं। सन्तान न होने पर पति-पत्नि अधिक स्वस्थ रह सकते हैं। शिशु-पालन से बचे हुए समय और धन को समाज सेवा की ज्ञान-यज्ञ जैसी अति महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं में व्यय कर सकते हैं और अपना लोक-परलोक हर दृष्टि से शानदार बना सकते हैं। बेटे से वंश चलने और पिण्ड मिलने वाली बात दिल्लगी बाजी जितना ही महत्व रखती है। पिण्ड अपने ही सत्कर्मों का मिलता है, बेटे का उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं। वंश अपने यश का चलता है अन्यथा तीन-चार पीढ़ी बाद तो अपने ही अंश-वंश के लोग नाम भूल जाते हैं, फिर आगे उसके चलने की क्या आशा है।

हम आज की परिस्थितियों को समझें और सन्तान उत्पादन का उत्तरदायित्व तभी बहन करें जब उसकी योग्यता एवं क्षमता अपने में हो। ऐसी दशा में भी संख्या न्यूनतम ही रखना उचित है।

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