Magazine - Year 1969 - Version 2
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Language: HINDI
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‘ब्रह्म सत्य जगन्माया-अलबर्ट आइन्स्टीन की दृष्टि में
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विज्ञान ने अब इतनी प्रगति कर ली है कि वह भौतिकवादी मान्यताओं को पीछे छोड़कर आध्यात्मिक तत्त्वों के अनुसन्धान और अनुशीलन की कक्षा में जा पहुँचा है। अलबर्ट आइन्स्टीन का सापेक्षवाद (थ्योरी आफ रिलेटिविटी) इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है और उससे यह ज्ञात होता है कि वैज्ञानिक भी जिस अन्तिम सत्य की जानकारी के लिये बेचैन हैं, उसके लिये उन्हें पदार्थ की भौतिकीय जानकारी (फि लीकल नालेज आफ एलेमेनट्स) से हटकर चतुष्दिमतीय (फोर डाइमेन्शनल) अथवा उससे भी अधिक विमतीय (मल्टी डाइमेन्शनल) संसार और तथ्यों का अध्ययन करना आवश्यक होगा।
डाइमेन्शन का अर्थ है आकार। आकार में जितनी बातें सम्मिलित हों, उतने ही डाइमेन्शन की वह वस्तु होगी। सरल या सीधी रेखा जिसमें केवल लम्बाई होती है एक विमतीय (वन डाइमेन्शन), आयत (रेक्टंन्गिल) जिसमें लम्बाई और चौड़ाई होती है द्विविमतीय (टू हाडमेन्शन) और इसी प्रकार कोई ठोस (सालिड) वस्तु लें तो उसमें लम्बाई-चौड़ाई और ऊँचाई (बी डाइमेन्शन्स) होंगे। संसार के जितने भी पदार्थ हैं, वह इन्हीं तीन प्रकार के आकारों के अंतर्गत आते हैं। हमारे पास जो भी वस्तुएँ हैं, वह इन्हीं तक सीमित हैं, इसलिये भौतिक विज्ञान जब भी किन्हीं वस्तुओं का अध्ययन करता है, वह इसी सीमा की जानकारी दे पाता है।
लेकिन अलबर्ट आइन्स्टीन ने बताया कि यह गलत है। जब तक हम एक और चौथे डाइमेन्शन समय (टाइम) की कल्पना नहीं करते, तब तक वस्तुओं के स्वरूप को अच्छी प्रकार समझ नहीं सकते। सभी पदार्थ समय की सीमा से बँधे हैं, अर्थात् हर वस्तु का समय भी निर्धारित है, उसके बाद या तो वह अपना रूपान्तर कर देता है या नष्ट हो जाता है। मनुष्य शरीर भी एक दिन नष्ट हो जाता है, फिर वस्तुओं के बारे में तो कहना ही क्या? मनुष्य धोखे में रहता है कि यह वस्तु मेरी है, इस पर मेरा अधिकार है, इसका मैं उपभोग करूँगा, यह मेरे काम की है, इसका उपार्जन मैंने किया है पर यदि इस चौथे डाइमेन्शन को ध्यान में रखकर विचार करें तो पता चलेगा कि जिन वस्तुओं को हम अपना कहते हैं, वह न अपनी हैं और न किसी दूसरे की, सब प्राकृतिक परमाणुओं से बनी आकृतियाँ मात्र हैं। उनका कोई निश्चित स्वरूप नहीं। समय की मर्यादा में बँधे परमाणु जब टूट-टूटकर अलग हो जाते हैं तो वस्तु का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। इस तरह पानी के बुलबुले के समान संसार बनता और बिगड़ता रहता है। स्थिर-तत्त्व तो कुछ और ही है।
आइन्स्टीन का सम्पूर्ण सापेक्षवाद का सिद्धान्त (थ्योरी आफ रिलेटिविटी) इसी तथ्य को समझना है। आज वैज्ञानिकों, भौतिकवादी शिक्षितों ओर पाश्चात्य देशों के निवासियों तक को इस सापेक्षवाद के सिद्धान्त ने उलझन में डाल रखा है। बड़े-बड़े डिफरैन्शियल केलकुलस (एक प्रकार की गणित) और थाइनामियल जैसी थ्योरम [थह बीजगणित की एक लम्बे पृष्ठों में हल होने वाला समीकरण (इक्वेशन) है जो समझ लेना आसान समझा जाता है, किन्तु आइन्स्टीन के सापेक्षवाद (थ्योरी आफ रिलेटिविटी) की भावानुभूति (कान्सेप्ट) को समझना दुस्तर हो रहा है। कारण कि वह संसार, साँसारिक परिस्थितियों प्रकृति और मानवीय चेतना का एक ऐसा अध्ययन (स्टडी) है, जो मनुष्य को संसार की यथार्थता से अवगत कराती है और उसे जीवन के प्रति एक नये प्रकार का दृष्टिकोण अपनाने की सम्मति प्रदान करती है, जिसमें प्रकृति ही प्रकृति, पदार्थ ही पदार्थ नहीं वरन् एक परम तत्त्व (एब्सोल्यूट एलीमेण्ट) भी है, जिसके जानने से ही संसार की वास्तविकता का पता लगाया जा सकता है। भारतीय अध्यात्म विज्ञान उसे ही ईश्वर, परमात्मा परमगति और संसार की सर्वोच्च सत्ता मानता है। दोनों सिद्धान्त एक स्थान पर मिल रहे हैं, केवल नाम और अनुभूति के तरीके (वे आफ कान्सेप्शन) में अन्तर है।
संसार में जितने भी पदार्थ हैं, वह 1. समय (टाइम) 2. स्थान (स्पेस), 3. गति (मोशन), 4. कारण काज-इन चार के ही अंतर्गत है। हम समय की सीमा में बँधे हैं। अर्थात् हमारा एक निश्चित समय है, अधिकतम अपनी आयु भर के अन्दर की वस्तुएँ सोचते विचारते हैं न तो जन्म से पहले की कल्पना है और मृत्यु के बाद की इसलिये जो कुछ भी करते हैं, उसका सीधा सम्बन्ध इस समय से ही होता है। उसके बाहर का कोई भी संसार हमारे मस्तिष्क में नहीं आता।
होना यह चाहिये कि हम परम समय (एब्सोल्यूट टाइम) को ध्यान में रखकर ही अपने क्रियाकलाप निर्धारित करें। भारतीय आचार्यों ने आचार संहिता तैयार करते समय इस बात को ध्यान में रखा था और ऐसी व्यवस्था की थी कि मनुष्य पूजा, उपासना, संयम, सेवा, सदाचार का पालन करता हुआ अपने भौतिक कर्तव्य पूरे करे, ताकि आत्म-शक्तियों का ह्रास न हो। शक्ति को विघटित कर देने से मनुष्य इस जीवन में भी दुःखी होता है और यह निम्नगामी योनियों की ओर आकर्षित हो जाता है। बढ़ी हुई शक्ति चाहे वह शारीरिक हो, मानसिक, बौद्धिक अथवा आत्मिक उससे यह जीवन तो सफल होता ही है, उस परम स्थिति को प्राप्त करने से मूल लाभ मिलता है। इस विज्ञता का ही परिणाम है कि भारतीय जीवन शैली आज भी अपने ही ढंग की है। उसमें पाश्चात्य ढंग के विकारों के लिये कोई स्थान नहीं है।
‘समय’ की तरह ही हम ‘देश’ से भी बँधे हैं। अब जब विज्ञान और समाज-शास्त्र ने इतनी उन्नति कर ली है कि सारी पृथ्वी एक परिवार की तरह हो गई है और हमारी प्रत्येक क्रिया का प्रभाव सारे विश्व में पड़ता है। अब हम सम्पूर्ण पृथ्वी की घटनाओं और हलचलों के बारे में विचारते हैं पर इससे पहले का मनुष्य अधिक से अधिक अपने देश तक की बात सोच पाता था, क्योंकि उसके लिये संसार उतने ही देश (स्पेस) में बँधा था। कोई समय ऐसा भी रहा होगा, जब उसका यह विस्तार का संसार और भी छोटा रहा होगा। आज तो मनुष्य स्वार्थी नहीं रह सकता, उसे विवश होकर संसार के और लोगों के हित पर ध्यान देना अनिवार्य हो गया है, पर पहले उसके कर्तव्य की सीमा बहुत छोटी थी। सापेक्षवाद के चार अनुभागों (फैक्टर्स) में दूसरा देश या स्थान (स्पेस) हमें यह बताता है कि हम जितने संसार से परिचित हैं, उतने से ही अपने कर्तव्य से जुड़े रहते हैं और उतने लोगों की भलाई या बुराई को ध्यान में रखकर काम करते हैं।
एक अन्य तथ्य यह है कि हम ‘गति’ के नियमों से भी बँधे हुए हैं। प्रकृति के सभी परमाणु क्रियाशील हैं, छोटे छोटे टीले बढ़कर पहाड़ बन जाते हैं और छोटी-छोटी नालियाँ नदियाँ, गड्ढे तालाब बन जाते हैं और पौधे विशालकाय वृक्ष। हमारी पृथ्वी में जलवायु और दिन-रात सम्बन्धी परिवर्तन भी गति (मोशन) के ही परिणाम स्वरूप हैं, प्राकृतिक गतिशीलता से हम स्वयं भी प्रभावित होते हैं। ऐसा कोई भी पदार्थ और प्राणी इस धरती पर नहीं है जो इन परिवर्तनों से प्रभावित न होता हो। हमारे सुख-दुःख भी इनसे जुड़े हुए हैं, कभी-कभी परिवर्तन हमारी इच्छाओं के अनुरूप होते हैं तो हमें सुख मिलता है और कभी-कभी प्रतिकूल होने से हमें दुःख और कष्ट का अनुभव होने लगता है, तात्पर्य यह कि गति (मोशन) हमारे भौतिक जीवन को ही नहीं चेतन विचार और भावनाओं को भी प्रभावित करता है।
आज हम जिस स्थिति में हैं, वह अनेक घटनाओं का क्रम-बद्ध इतिहास होता है। इसे ही कारण (कांजेशन) कहते हैं, जो आइन्स्टीन के सापेक्षवाद सिद्धान्त। थ्योरी आफ रिलेटिविटी का चौथा तत्त्व (फैक्टर) है। हमारा जन्म स्वयं भी कारण के विकास को प्रतिक्रिया है। इसी प्रकार संसार में जो कुछ भी है, वह पूर्व से घटनाबद्ध है कोई भी प्रभाव या परिणाम कारण (कांजेशन) के बिना सम्भव नहीं है।
यह चार बातें हैं, जो हमारे जीवन को घेरे हुये हैं, हम समय, स्थान, गति और कारण (टाइम, स्पेस, मोशन एण्ड कांजेशन) से बँधे हुए हैं। इन चार से अतिरिक्त और कोई बात हम सोच भी नहीं सकते। सही बात तो यह है कि हमारे विचार इन चार बातों में इतना आसक्त हो गये हैं कि हम इससे आगे की कोई बात सोच ही नहीं पाते। इन चारों की जो जितनी कम मात्रा से बँधा रहता है, वह उतना ही स्वार्थी, संकीर्ण और भोगवादी होता है। जो व्यक्ति केवल वर्तमान की ही बात सोचता है, भूत और भविष्य के निष्कर्षों का लाभ नहीं लेता, वही पाप और स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियों को स्वयं भी करता है और दूसरों को भी प्रोत्साहित करता है। इसी प्रकार जो केवल अपने शरीर या अधिक से अधिक अपने परिवार के ही हित की बात सोचता, उसके भी कार्य संकीर्ण और दुःखद होते हैं। विकास सम्बन्धी अवस्था को भी जो बहुत छोटी सीमा में मानते हैं और भौतिक जगत् में होने वाली गतिविधियों में किसी दूरवर्ती कारण को नहीं देखते वह गलत लक्ष्य बनाते या अधिक से अधिक अपने स्वार्थ की बात सोचते हैं। संकीर्णता की यह मनोवृत्ति ही संसार में दुःख का कारण है। इसी का नाम माया था कहा गया है। “तू मैं और तोर से माया। स्ववश कीन्ह जिन्ह विश्व निकाया॥” अर्थात् मैं और मेरे, तू और तेरे का संकीर्णता ने ही मनुष्य को भौतिक बन्धनों में बाँध लिया है, इसी का नाम आया है।
मानवीय चेतना और मानवीय लक्ष्य का विस्तृत अध्ययन चिन्तन और मनन करने के बाद आइन्स्टीन को भी कहना ही पड़ा कि मनुष्य का इस प्रकार समय, स्थान या देश, गति और कारण (टाइम, स्पेस, मोशन, एण्ड कांजेशन) की संकीर्णता में बँधना उसकी भयंकर भूल है। उन्होंने बताया कि वह सम्पूर्ण चीजें हैं ही नहीं। संसार में न तो समय का कोई अस्तित्व है, न स्थान का, न गति का और नहीं किसी कारण या परिणाम का। यह चारों मस्तिष्क की उपज है और हम जब तक इनसे प्रतिबन्धित है, तब तक अन्तिम सत्य (एब्सोल्यूट) की अनुभूति नहीं कर सकते। अन्तिम सत्य वह है, जो इन चारों से बँधकर नहीं इनको बाँधकर रखता है। जो स्वयं इनसे प्रभावित नहीं होता वरन् इन्हें प्रभावित करता है। उन्होंने बताया जो भी है जैसा भी है, मस्तिष्क इन चारों से ऊपर का एक बहुविमतीय (मल्टी डाइमेन्शन) तत्त्व है, उसे इन चारों चीजों से मुक्त कर दिया जाये तो परम स्थिति (एब्सोल्यूट स्टेज) को अच्छी तरह जाना जा सकता है। वही संसार का अन्तिम सत्य, परमात्मा, परमपद, मोक्ष या स्वर्ग और मुक्ति की स्थिति है।
इतने भारी दृश्य संसार को मिथ्या कह देना एक वैज्ञानिक के लिये साधारण बात नहीं थी। उन्हें सापेक्षवाद के सिद्धान्त पर ‘नोबुल पुरस्कार’ प्रदान किया गया था, इसलिये जो लोग इस सिद्धान्त की गहराई के नहीं समझ सके, उनका प्रश्नों पर प्रश्न करना स्वाभाविक था। आइन्स्टीन से पूछा गया तब फिर यह जो समय और पदार्थों की हमें अनुभूति होती है, दिखाई देते हैं, यह सब क्या है? उसने उत्तर दिया माया-अर्थात् सापेक्षता (रिलेटिविटी) हमने अनुभव कर लिया है कि सूर्योदय से सूर्यास्त तक का समय 24 घण्टे का होता है। समय कोई भौतिक पदार्थ नहीं है, यह तो दो घटनाओं के बीच की अवधि की माप (मेजरमेन्ट्स) है, जो कभी सत्य नहीं हो सकता, क्योंकि यदि आप चंद्रमा पर बैठे हों एक बार सूर्य के उदय होने और उसके अस्त होने में 12&7=84 घन्टे लग जाते हैं। 84 घण्टों को यदि 60 मिनट से एक घन्टे से बाँटे तो वहाँ का दिन 100 घन्टे से भी बड़ा होगा इसलिये समय कोई स्थिर या शाश्वत वस्तु नहीं है। हम सृष्टि जहाँ से प्रारम्भ हुई है। वहाँ से लेकर सृष्टि जहाँ समाप्त होगी, वहाँ तक की समय की ईकाई क्यों न मानें? क्योंकि अन्तिम सत्य तो यही दो घटनायें होंगी। हमारे जन्म से मृत्यु तक का समय इसी विशाल समय की सापेक्षता (रिलेटिविटी) ही तो है। इसलिये जब तक हम उस अन्तिम समय (एब्सोल्यूट टाइम) को नहीं जान लेते, समय सम्बन्धी सारे माप (मेजरमेन्ट्स) और उनको प्रभावित करने वाले कार्य सब गलत है।
इस दृष्टि से केवल वही कार्य और कर्तव्य हमारे लिये सच्चे होते हैं, जो समय की इस परमगति को प्रभावित करते हैं, शेष सभी कार्य चाहें उसने खाना, पहनना, चलना, उठना-बैठना भी क्यों न सम्मिलित हो गलत भ्रम है, यह कार्य वैसे दोनों ही परिस्थितियों में उभयनिष्ठ रहते हैं, इसलिये हम अपने जीवन में उन्हीं कार्यों को शुद्ध और यथार्थ मानते हैं, जिनसे हमें परम-काल गति की अनुभूति में सहायता मिलती है। केवल भौतिक सुख के लिये किये गये सभी कार्य व्यर्थ है, उसमें हमारा चाहे कितना ही अधिक श्रम, बुद्धि कौशल, साधन क्यों न प्रयुक्त हो रहा हो।
हमारे लिये कोई भी स्थान सत्य नहीं है। हमारे द्वारा वस्तुओं को पहचानने के अतिरिक्त स्थान का कोई अर्थ ही नहीं है। जिस प्रकार समय अनुभव के अतिरिक्त कुछ नहीं था। उसी तरह देश या ब्रह्माण्ड (स्पेस) हमारे मस्तिष्क द्वारा उत्पन्न काल्पनिक वस्तु के अतिरिक्त कुछ नहीं है। वस्तुओं को समझने तथा उनकी व्यवस्था (अरेन्जमेन्ट) जानने में सहायता मिलती है, इसलिये स्थान (स्पेस) को कल्पना को हम सत्य मान लेते हैं, अन्यथा स्थान कुछ निश्चित तरीके के परमाणुओं के अतिरिक्त और है भी क्या? परमाणु भी इलेक्ट्रान्समय होते हैं, इलेक्ट्रान एक प्रकार की ऊर्जा निकालता रहता है, जो तरंग रूप (वेविकल फार्म) में होता है। जिन वस्तुओं के इलेक्ट्रान जितने मन्द गति के हो गये हैं, वह उतने ही स्थूल दिखाई देते हैं। यह हमारे मस्तिष्क की देखने की स्थिति पर निर्भर करता है, यदि हम पृथ्वी को छोड़कर किसी सूर्य जैसे ग्रह में बैठे हों तो पृथ्वी एक प्रकार के विकिरण (रेडिएशन) के अतिरिक्त और कुछ न दिखाई देगी। इसलिये देश या ब्रह्माण्ड भी वस्तुओं की संरचना का अपेक्षित (रिलेटिव) रूप है। उसकी यथार्थता भी परम अवस्था (एब्सोल्यूट स्टेज) पर ही हो सकती है।
यदि हमारे आकाश में और कोई सूर्य, चन्द्रमा और सितारे नहीं होते, तब क्या हम कह सकते थे कि पृथ्वी एक सेकेण्ड में 18 मील प्रति घन्टे की गति से दौड़ रही है। गति (मोशन) का ज्ञान भी हमारी सापेक्ष बुद्धि (रिलेटिव सेन्स) का ही परिणाम है। अभी हम कहते हैं कि यह हमारा कमरा स्थिर है। ऐसा कहने का हमें इसलिये अधिकार है कि पृथ्वी के साथ हमारा कमरा ही नहीं घूमता हम भी घूमते हैं, यदि एक स्टेशन पर दो गाड़ियाँ समान गति से एक ही दिशा में दौड़ रहीं हों तो दोनों गाड़ियों के सवार अपने आपको स्थिर अनुभव करेंगे। यदि एक गाड़ी 45 मील प्रति घण्टा की गति से पूर्व को जा रही हो और दूसरी 45 मील प्रति घण्टा पश्चिम की ओर तो दोनों गाड़ियाँ जिस स्थान पर साथ-साथ होंगी (विल कम ए क्रस) वहीं एक दूसरे की गति 90 मील प्रति घंटा अनुभव करेंगी। इससे यह सिद्ध होता है कि गति भी एक परम गति (एब्सोल्यूट मोशन) की सापेक्ष (रिलेटिव) है, उसमें भी कोई अन्तिम सत्य नहीं है। सौर-मण्डल की तुलना में पृथ्वी की गति 18 मील प्रति सेकेण्ड की समझ में आती है पर यदि हम गैलेक्सी (तारा संसार) के किसी अन्य तारे में बैठकर देख (आर्ब्जव) रहे हों तो यह गति कुछ और हो, तो या तो बहुत धीमी या बहुत तीव्र नजर आ रही होगी। इस तरह गति सम्बन्धी हमारी भौतिक मान्यतायें सही नहीं हैं।
पदार्थों के कारण (कांजेशन) के सम्बन्ध में भी हम पूर्ण सापेक्ष हैं। थोड़े से तत्त्व चाहे उन्हें पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि ओर वायु कहें अथवा हाइड्रोजन, आक्सीजन सल्फर, जिंक, कोबाल्ट, एसिड कहें, इन्हीं से मिल-जुलकर भौतिक पदार्थों का बनना, बिगड़ना जारी रहता है। हमारे कोई भी कार्बोनिक (आर्गेनिक) तथा अकार्बनिक (इनार्गेनिक) पदार्थ इन तत्त्वों की परस्पर रासायनिक क्रिया (केमिकल एक्शन) का ही परिणाम होते हैं। परन्तु जब हम पदार्थ के अन्तिम टुकड़े परमाणु की संरचना, जो कि रासायनिक क्रिया (केमिकल एक्शन) में भाग लेता है, पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि सम्पूर्ण पदार्थों में आवेश (इलेक्ट्रान) का अन्तर है अन्यथा मूलभूत तत्त्व (एब्सोल्यूट एलीमेण्ट) कोई और ही है। एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ में परिवर्तन आवेश की मुक्ति (चेन्ज आफ इलेक्ट्रान) के कारण होता है। पदार्थ शक्तियों के परिवर्तित रूप हैं, इसी प्रकार शक्तियों (इनर्जीस) की भी एक अन्तिम स्थिति (एब्सोल्यूट पोजीशन) होनी चाहिये। इसका आभास प्रकाश की क्वाण्टम थ्योरी से होता है। अर्थात् संसार का कारण भी भौतिक नहीं कोई परम (एब्सोल्यूट)
तत्त्व ही है। उस परम अवस्था (एब्सोल्यूट स्टेज) को कैसे अनुभव करें, जब आइन्स्टीन से यह प्रश्न किया गया तो उसने कहा हम समय, स्थान, गति और कारण (टाइम, स्पेस, मोशन एण्ड कांजेशन) की सापेक्ष अवस्था (रिलेटिविटी) से यदि अपने मस्तिष्क को ऊपर उठा दें तो परम अवस्था की अनुभूति कर सकते हैं। हमारी सापेक्ष अवस्था की अनुभूति ही माया या भौतिकवाद है, यदि हम इन चारों से ऊपर उठकर संसार का अनुभव करें तो अन्तिम सत्य या भगवान् की अनुभूति कर सकते हैं। सापेक्षवाद के सिद्धान्त का यही संक्षेप में सार और निष्कर्ष है।