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Magazine - Year 1969 - Version 2

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Language: HINDI
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अनन्त सुप्त शक्तियों का भाँडागार-सहस्त्र कमल

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शास्त्रों में कुण्डलिनी को अनेक शक्तियों का प्राण कहा है। सुषुप्त पड़ी कुण्डलिनी को जागृत कर लेने वाला इस लोक के अनन्त ऐश्वर्य का स्वामी वन जाता है। भारतवर्ष में इस विद्या की शोध की गई है। कुण्डलिनी शक्ति की कोई सीमा और थाह नहीं है।

किन्तु कुण्डलिनी जागृत कर लेना जीव का अन्तिम लक्ष्य नहीं है। जीव का अन्तिम लक्ष्य है मोक्ष की प्राप्ति या ब्रह्म निर्वाण। अपने आपको ब्रह्म की सायुज्यता में पहुँचा देना ही मनुष्य देह धारण करने का उद्देश्य है अनेक साधन और योग उसी के लिये बने हैं। कुण्डलिनी का भी वही उद्देश्य है उस पर अपनी टिप्पणी करते हुए योग प्रदीपिका में लिखा है-

उद्घाटयेत्कपार्ट तु यथा कुँचिकया हठात्।

कुँडलिन्या तथा योगी मोक्ष द्वारं विभेदयेत्॥

(105)

अर्थात् जिस प्रकार कोई मनुष्य अपने बल से द्वार पर लगी हुई अगँला आदि को ताली से खोलता है उसी प्रकार योगी कुण्डलिनी के अभ्यास द्वारा सुषुम्ना के मार्ग का भेदन करता है और ब्रह्म-लोक में पहुँच कर मोक्ष को प्राप्त होता है।

शिर के मध्य से (ब्रह्मरंध्र) में 1 हजार पंखुड़ियों का कमल है उसे ही सहस्रार चक्र कहते हैं उसी में ब्राह्मी शक्ति या शिव का वास बताया गया है यहीं आकर कुण्डलिनी शिव से मिल गई है। इसे आत्मा का स्थान, सूत्रात्मा धाम आदि कहते हैं। यहीं से सारे शरीर की गतिविधियों का उसी प्रकार संचालन होता है जिस प्रकार पर्दे में बैठा हुआ कलाकार उँगलियों को गति दे-देकर कठपुतलियों को नचाया करता है। विराट् ब्रह्माण्ड में हलचल पैदा करने वाली सूत्र शक्ति और विभाग इस सहस्रार कमल के आसपास फैल पड़े हैं। यहीं अमृत पान का सुख, विश्व-दर्शन संचालन की शक्ति और समाधि का आनन्द मिलता है। यहाँ तक पहुँचना बड़ा कठिन होता है। अनेक साधक तो नीचे के ही चक्रों में रह जाते हैं उनमें जो आनन्द मिलता है उसी में लीन हो जाते हैं। इसलिये कुण्डलिनी साधना द्वारा मिलने वाली प्रारम्भिक सिद्धियों को बाधक माना गया है। जिस प्रकार धन-वैभव ऐश्वर्य और सौंदर्यवान युवती पत्नियों का सुख पाकर मनुष्य संसार को ही सब कुछ समझ लेता है उसी प्रकार कुण्डलिनी का साधक भी बीच के ही छः चक्रों में दूर दर्शन, दूर श्रवण, दूसरों के मन की बात जानना, भविष्य दर्शन आदि अनेक सिद्धियाँ पाकर उनमें ही आनन्द का अनुभव करने लगता है और परम-पद का लक्ष्य अधूरा ही रह जाता है।

सहस्रार चक्र में पहुँच कर भी साधक बहुत समय तक उस पर स्थिर नहीं रह पाते हैं। वह साधक की आन्तरिक और आध्यात्मिक शक्ति तथा साधना के स्वरूप पर निर्भर है कि वह सहस्रार में कितने समय तक रहता है उसके बाद वह फिर निम्नतम लोकों के सुखों में जा भटकता है पर जो अपने सहस्रार को पका लेते हैं वह पूर्ण ब्रह्म को प्राप्त कर अनन्त काल तक ऐश्वर्य सुखोपभोग करते हैं।

सहस्रार दोनों कनपटियों से 2-2 इंच अन्दर और भौहों से भी लगभग 3-3 इंच अन्दर मस्तिष्क के मध्य में “महाविवर” नामक महाछिद्र के ऊपर छोटे से पोले भाग में ज्योति-पुँज के रूप में अवस्थित है। कुण्डलिनी साधना द्वारा इसी छिद्र को तोड़ कर ब्राह्मी स्थिति में प्रवेश करना पड़ता है इसलिये इसे “दशम द्वार” या ब्रह्मरंध्र भी कहते हैं। ध्यान बिन्दु उपनिषद् में कहा है-

मस्तकेमणिवद्भिन्नं यो जानाति स योगवित्।

तप्तचामीकराकारं तडिल्लेखेव विस्फुरत्॥

(46)

अर्थात्-मस्तक में जो मणि के समान प्रकाश है जो उसे जानते हैं वहीं योगी है। तप्त स्वर्ण के समान विद्युत धारा-सी प्रकाशित वह मणि अग्नि स्थान से चार अंगुल ऊर्ध्व और मेढ़ स्थान के नीचे है यह स्वाधिष्ठान चक्र वे आश्रम में हैं और स्वयं नाद युक्त हैं।

इस स्थान पर पहुँचने की शक्यों का वर्णन करते हुए शास्त्रकार ने कहा है-तस्य सर्वेषु लोकेषु कामचारी भवति” अर्थात् वह परम विज्ञानी, त्रिकालदर्शी और सब कुछ कर सकने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है वह चाहे जो कुछ करे उसे कोई पाप नहीं होता। उसे कोई जीत नहीं सकता।

ब्रह्मरंध्र एक प्रकाश से जीवात्मा का कार्यालय इस दृश्य जगत में जो कुछ है और जहाँ तक हमारी दृष्टि नहीं पहुँच सकती उन सबकी प्राप्ति की प्रयोगशाला है। भारतीय तत्त्वदर्शन के अनुसार यहाँ 17 तत्त्वों से संगठित ऐसे विलक्षण ज्योति पुँज विद्यमान् हैं जो दृश्य जगत में स्थूल नेत्रों से कहीं भी नहीं देखे जा सकते। समस्त ज्ञानवाहक सूत्र और बात नाड़ियाँ यहीं से निकल कर सारे शरीर में फैलती हैं। सूत्रात्मा इसी भास्कर श्वेत दल कमल में बैठा हुआ चाहे जिस नाड़ी के माध्यम से शरीर के किसी भी अंग को आदेश-निर्देश और सन्देश भेजता ओर प्राप्त करता रहता है। वह किसी भी स्थान में हलचल पैदा कर सकता है किसी भी स्थान की बिना किसी बाध्य-उपकरण के सफाई ओर प्राणवर्धा आदि, जो हम सब नहीं कर सकते वह सब कुछ कर सकता है। यह सब ज्योति पुञ्जों के स्स्रण आकुंचन-प्रकुञ्चन आदि से होता है। नाक, जीभ, नेत्र, कर्ण, त्वचा इन सभी स्थूल इन्द्रियों को यह प्रकाश-गोलक ही काम कराते हैं और उन पर नियन्त्रण सहस्रारवासी परमात्मा का होता है। ध्यान की पूर्वावस्था में यह प्रकाश टिमटिमाते जुगनू चमकते तारे, चमकीली कलियाँ, मोमबत्ती, आधे या पूर्ण चन्द्रमा आदि के प्रकाश-सा झलकता है। धीरे-धीरे उनका दिव्य रूप प्रतिभासित होने लगता है उससे स्थूल इन्द्रियों की गतिविधियों में शिथिलता आने लगती है और आत्मा का कार्य-क्षेत्र सारे विश्व में प्रकाशित होने लगता है। सामान्य व्यक्ति को केवल अपने शरीर और सम्बन्धियों तक ही चिन्ता होती है उस पर योगी की व्यवस्था का क्षेत्र सारी पृथ्वी, और दूसरे लोकों तक फैल जाता है उसे यह भी देखना पड़ता है कि ग्रह-नक्षत्रों की क्रियायें भी तो असंतुलित नहीं हो रही। स्थूल रूप से इन गतिविधियों से पृथ्वी वासी भी प्रभावित होते रहते हैं इसलिये अनजाने में ही ऐसी ब्राह्मी स्थिति का साधक लोगों का केवल हित संपादित किया करता है। उसे जो अधिकार और सामर्थ्य मिली होती हैं वह इतने बड़े उत्तरदायित्व को संभालने की दृष्टि से ही होती है। वैसे वह भले ही शरीरधारी दिखाई दे पर उसे शरीर की सत्ता का बिलकुल ज्ञान नहीं होता। वह सब कुछ जानता, देखता, सुनता और आगे क्या होने वाला है वह सब पहचानता है।

विज्ञानमय कोष और मनोमय कोष के अध्यक्ष मन और बुद्धि यहीं रहते हैं और ज्ञानेन्द्रियों से परे दूर के या कहीं भी छिपे हुए पदार्थों के समाचार पहुँचाते रहते हैं। आत्म-संकल्प जब चित्त वाले क्षेत्र से बुद्धि क्षेत्र में पदार्पण करता है तब दिव्य दृष्टि बनती है और वह आज्ञा चक्र से निकल कर विश्व ब्रह्माण्ड में जो अनेक प्रकार की रश्मियाँ फैली हैं उनसे मिलकर किसी भी लोक के ज्ञान को प्राप्त कर लेती है। विद्युत तरंगों के माध्यम से जिस प्रकार दूर के अन्तरिक्ष यानों को पृथ्वी से ही दाहिने-बायें (ट्रीवर्स) किया जा सकता है। जिस प्रकार टेलीविजन के द्वारा कहीं का भी दृश्य देखा जा सकता है उसी प्रकार बुद्धि और संकल्प की रश्मियों से कहीं के भी दृश्य देखे जाना या किसी भी हलचल में हस्तक्षेप करना मनुष्य को भी सम्भव हो जाता है। मुण्डक और छान्दोग्य उपनिषदों में क्रमशः खण्ड 2 और 9 में इन साक्षात्कारों का विशद वर्णन है और कहा गया है-हिरण्यभये परेकोणे विरजं ब्रह्म निष्फलं, तच्छुत्रं ज्योतिषाँ ज्योति तद् परात्मनो बिदुः” अर्थात् आत्मज पुरुष इस हिरण्मयं कोष में शुभ्रतम ज्योति के रूप में उस कला रहित ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं।

धीरे-धीरे विज्ञान भी इन मान्यताओं पर पहुँचने लगा है। पाश्चात्य देशों में मस्तिष्क के अनेक आश्चर्यजनक तथ्यों की खोज की गई है। यद्यपि अभी उनकी जानकारी बहुत स्वल्प और सीमित है तथापि उससे भारतीय तत्त्व दर्शन की पुष्टि को बड़ा बल मिला है। लोग यह मानने लगे हैं कि मस्तिष्क में ऐसे तत्त्व हैं जो अधिक नहीं तो किसी भी पुस्तक के 20 अरब पृष्ठों से भी अधिक ज्ञान भण्डार अपने मस्तिष्क में सुरक्षित रख सकते हैं। एक व्यक्ति एक दिन में लगभग 50 लाख चित्र देखता है। चित्रों के साथ ही वह उनकी बनावट, रंग-रूप ध्वनि, सुगन्ध और मनोभावों का भी आकलन करता है। कुछ समय बाद वह चित्र और पढ़ा हुआ सब विस्तृत हो जाता है। हम केवल यह बातें याद रख पाते हैं जो या तो बहुत आकर्षक रहीं हो अथवा जिनसे अपने जीवन का कोई अंश या सम्पूर्ण जीवन बहुत तीव्रता से प्रभावित हुआ है। ऐसी अविस्मरणीय घटनाओं को छोड़ कर शेष सब भूल जाता है किन्तु ऐसा सोचना भारी भूल है। जिस तरह प्रभावी घटनाओं को हम सेकेण्डों में दोहरा लेते हैं उसी प्रकार मस्तिष्क के तहखानों में संगृहीत प्रति सेकेण्ड एक चित्र की दर से अब तक जो कुछ देख, सुन सके हैं उस सबको कभी भी किसी भी समय मस्तिष्क की पेटी से खोलकर ढूँढ़ा और उसी तरह रंग, वर्ण, सुगन्ध आदि के साथ देखा जा सकता है जिस तरह किसी समय देखा गया है।

इस दिशा में प्रसिद्ध अमरीकी डाक्टर बिल्डर पेनफील्ड ने उल्लेखनीय खोजें की हैं। उन्होंने मस्तिष्क की अनेक बात नाड़ियों की विद्युत इलेक्ट्रान छुआकर देखा कि कोई विशेष नस या नाड़ी उत्तेजित करने से विलक्षण याददाश्तें आती हैं। उन्होंने एक एक बार 9 वर्षीय लड़की पर प्रयोग किया। मस्तिष्क के एक भाग पर विद्युत आवेश देते ही वह एक घटना सुनाने लगी-मैं अपने भाइयों के साथ खेत में घूम रही थी। मेरे भाई मुझे चिढ़ाने के लिये खेत में छुप-छुप जाते। इस तरह मैं उनसे भटक गई तभी एक आदमी दिखाई दिया। कोई सपेरा था। उसने मुझे साँपों का थैला दिखाया तो मैं डर गई और भागकर हाँफते हुए घर पहुँची।”

जब डा.पेनफील्ड ने उस लड़की की माता से पूछा तो माता ने बताया कि सचमुच जब वह 3 वर्ष की थी तब ऐसी घटना घटी थी। आमतौर पर 3 वर्ष की बालिका को कोई घटनायें याद नहीं रहतीं पर इस प्रयोग ने यह सिद्ध कर दिया कि मनुष्य के मस्तिष्क में न जाने कितने जीवनों के संस्कार छिपे पड़े हैं और वह फिल्म की रील की तरह जाग्रत और स्वप्नावस्था में गूँजते रहते हैं।

यह घटना ऐसी थी जो केवल वर्तमान जीवन के ही अदृश्य भाग से सम्बन्धित थी पर एक बार उन्होंने एक लड़के पर जब ऐसा ही प्रयोग किया तो वह लड़का एक मधुर गीत गुनगुनाने लगा। वह गीत रिकार्ड पर लिया गया। यद्यपि उसे वह लड़का भी नहीं जानता था पर पीछे पता लगाने पर मालूम हुआ कि वह गीत किसी अन्य भाषा का अर्थयुक्त सुन्दर गीत था। इस घटना को मस्तिष्क की “सर्वज्ञता” शक्ति के रूप में भी लिया जा सकता है और पुनर्जन्म के भी रूप में। किसी भी रूप में ले सूत्रात्मा की अमरता या उनकी अक्षय शक्ति ही सिद्ध होती है। डा.पेनफील्ड ने अनेक ऐसे प्रयोग किये जो कर्मफल की भी पुष्टि करने में समर्थ हैं।

डा. पेनफील्ड के पास ऐसा रोगी आया जिसे मिर्गी आती थी। उसका आपरेशन करके उन्होंने देखा कि जब मिर्गी आती है तो एक विशेष नस ही उत्तेजित होती है उसे काटकर अलग कर दिया तो वह रोगी सदा के लिए अच्छा हो गया। बाद में पेनफील्ड ने बताया कि मस्तिष्क में कई अरब प्रोटीन-अणु पाये जाते हैं इन प्रोटीन-अणुओं में औसत आयु 70 वर्ष के लगभग सवा दो अरब सेकेण्ड होते हैं इन क्षणों में जागृत स्वप्न में वह जो कुछ देखता, सुनता और अनुभव करता है वह सब मस्तिष्क के कार्यालय में जमा रहता है और उसमें से किसी भी अंश को विज्ञान की मदद से पढ़ा जाना सम्भव है। मस्तिष्क के 10 अरब स्नायु नसों में अगणित आश्चर्य संगृहीत है उन सबकी विधिवत् जानकारी करने वाला कोई यन्त्र बना सका तो जीव किन-किन योनियों में कहाँ-कहाँ जन्म लेकर आया है और उसने कब क्या पाप, क्या पुण्य किया है उस सबकी जानकारी प्राप्त करना सम्भव हो जायेगा। उन सबकी याददाश्त दिलाने वाला सहस्रार में बैठा हुआ वह क्रिस्टल मात्र है जिसे हमारे धर्म ग्रन्थों में सूक्ष्मात्मा कहते हैं।

इस आचरण की पुष्टि के लिये हनावा होकाइशी (जापान) का एक उदाहरण दिया जा सकता है। 101 वर्ष की आयु में मरने वाले इस ज्ञान के अवतार का जन्म सन् 1722 में हुआ था और मृत्यु 1883 में। जब वह सात वर्ष का था विधाता ने उससे नेत्र-ज्योति छीन ली। उसने नेत्रहीन होकर भी ज्ञानार्जन की साधना आरम्भ की। उसने 40 हजार पुस्तकें पढ़ीं। कुछ ग्रन्थ तो उसे केवल एक बार ही सुनाये गये थे। उसके मस्तिष्क में ज्ञान का अनन्त भण्डार जमा हो गया। वह ऐसे उदाहरण प्रस्तुत कर देता था जो कभी औरों की कल्पना में भी न आते थे। अपने मित्रों के आग्रह पर उसने एक पुस्तक लिखी जो 2810 खण्डों में तैयार हुई। क्या इसे मस्तिष्क की साधारण शक्ति कहा जा सकता है?

असाधारण ज्ञान, असाधारण कार्य प्रणाली मस्तिष्क की विलक्षण रचना से जहाँ जीवात्मा के अनेक रहस्यों का ज्ञान होता है वहाँ उसकी दूर-दर्शन और इन्द्रियातीत ज्ञान के भी अनेक प्रमाण पाश्चात्य देशों में संकलित और संगृहीत किये गये है। “दि न्यू फ्रंटियर्स आफ माइन्ड” के लेखक श्री जे.पी. राइन ने दूर-दर्शन के तथ्यों का वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक दोनों तरह से अध्ययन किया और यह पाया कि कुछ मामलों में अभ्यास के द्वारा ऐसे प्रयोग 50 प्रतिशत से अधिक सत्य पाये गये जब कि स्वप्नों एवं मनोयोगों द्वारा भविष्य-दर्शन की अनेक घटनाओं को शत-प्रतिशत सत्य माना गया।

एक घटना का उल्लेख इस प्रकार है-मेरे पड़ोस में एक सज्जन रहते थे। एक रात उनकी धर्मपत्नी ने स्वप्न देखा कि उसका भाई जो वहाँ से काफी दूर एक गाँव में रहता था, अपने खलिहान जाता है। खलिहान पहुँच कर उसने घोड़ा-गाड़ी खोल दी। फिर न जाने क्या सोचकर भूसे के ऊपर बने स्थान पर चढ़ गया और वहीं खड़े होकर उसने पिस्तौल चलाकर आत्म-हत्या कर ली। गोली लगते ही भाई भूसे पर लुढ़क गया। इस स्वप्न से वह स्त्री इतनी घबड़ा गई कि उसने अपने पति से तुरन्त गाँव चलने को कह। वे सज्जन मेरे घर आये और मेरे पिताजी से घोड़ा-गाड़ी देने को कहा। पिताजी ने गाड़ी दे दी। वह स्त्री अपने पति को लेकर गाँव गई और लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उन्होंने खलिहान में जाकर पाया कि उसके भाई की मृत्यु ठीक वैसे ही स्थान और परिस्थितियों में हुई पड़ी थी।

स्वप्नावस्था में हमारे शरीर के सारे क्रिया-कलाप अन्त-मुखी हो जाते हैं। उस समय भी मस्तिष्क जागृत अवस्था के समान ही क्रियाशील रहता है। यदि उस स्थिति में देखे हुए दृश्य सत्य हो सकते हैं तो यह मानना ही पड़ेगा कि आत्म-चेतना का भी अन्त नहीं होता वह एक सर्वव्यापी और अतीन्द्रिय तत्त्व है पर सम्पूर्ण तन्मात्राओं की अनुभूति उसे होती है।

उक्त घटना श्री राइन महोदय के एक प्रोफेसर द्वारा बताई गई जब वे स्नातक थे। बाद में वह लिखते हैं कि मैं जब पेन्सिलवानिया के पहाड़ों पर रहता था तो मुझे भी अनेक निर्देश और सन्देश इसी प्रकार अदृश्य शक्तियों द्वारा भेजे हुए मिलते थे। जब कभी किसी अपवित्र स्थान में चला जाता तब मुझे वैसी अनुभूतियाँ नहीं होती थीं इससे पता चलता है कि मस्तिष्क मानव-जीव की शुद्धता और पवित्रता की अपेक्षा में रहता है या यहीं उसका यथार्थ गुण है और जैसे-जैसे लोग इन गुणों के विपरीत बुराइयों और दुर्गुणों की गांठें मस्तिष्क में पैदा करते जाते हैं शक्तियों का ह्रास होने लगता है। मनुष्य की जड़ता के साथ तो वे बिलकुल समाप्त हो जाती है।

एक अन्य प्रोफेसर की धर्मपत्नी का भी इसी पुस्तक में उल्लेख है और यह बताया है कि वह जब अपनी एक सहेली के घर ब्रिज खेल रही थी तो उन्हें एकाएक ऐसे लगा जैसे उनकी बालिका किसी गहरे संकट में हो। उन्होंने बीच में ही उठकर टेलीफोन में घर से पूछना चाहा पर सहेली के आग्रह पर वे थोड़ी देर खेलती रहीं इस बीच उनकी मानसिक परेशानी काफी बढ़ जाने से वह बीच में ही छोड़ कर टेलीफोन पर गई और अपनी नौकरानी से पूछा- लड़की ठीक है? उसने थोड़ा रुककर कहा, हाँ ठीक है इसके बाद वे फिर खेल खेलने लगीं खेल समाप्त कर जब वे घर लौटी तो पता चला कि एक बड़ी दुर्घटना हो गई थी। उनकी लड़की पिता के साथ कार में आ रही थी वह खेलते खेलते शीशे के बाहर लटक गई और काफी सफर उसने उस भयानक स्थिति में पार किया। जब एक पुलिस वाले ने गाड़ी रोकी तब पता चला कि लड़की मजबूती से कार की दीवार पकड़े न रहती तो किसी भी स्थान पर वह कार से कुचल कर मर गई होती। नौकरानी ने कहा चूँकि बच्ची सकुशल थी इसलिये आपको परेशानी से बचाने के लिये झूठ बोलना पड़ा। यह घटनायें यह बताती हैं कि मस्तिष्क में वह तत्त्व हैं जो जीवात्मा की अमरता, शुद्धता और सर्वव्यापकता से सम्बन्धित हैं। योग प्रणाली द्वारा रूस के विकास का एक निश्चित विधान भारतीय योग शास्त्रों में है पर जो उन कठिनाइयों में प्रवेश नहीं कर सकते वह भी भगवान् के ध्यान और आत्मिक पवित्रता बढ़ाकर सूत्रात्मा के इन गुणों को विकसित कर सकते हैं।

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