
भगवान तो मनुष्य की सैकड़ों भूलें क्षमा करता है (Kahani)
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हवा, अग्नि, समुद्र और सूर्य चारों जंगल में खड़े एक वृक्ष के पास जाकर धमकाने लगे। हवा ने कहा हम तुम्हें उखाड़ फेंकेंगे, अग्नि ने कहा जला डालेंगे, समुद्र ने कहा डुबो देंगे और सूर्य ने कहा सुखा डालेंगे। वृक्ष यह सब सुनकर बहुत घबराया। तभी धरती माता बोली- “लाल! जब तक मैं हूँ तुम चिन्ता न करों तुम्हारा कोई बाल भी बांका न कर सकेगा।” और सचमुच चारों के रहते हुये भी वृक्ष बराबर बढ़ता रहा। वह था साहस न हारने का परिणाम।
शिष्य के असहिष्णु स्वभाव से दुःखी होकर गुरु ने निश्चय किया उसे सही प्रकाश दिखाया ही जाना चाहिये। उन्होंने शिष्य को बुलाया और बोले- “वत्स! अष्टाध्यायी की प्रतिलिपि तैयार करना है, आओ मैं बोलता जाता हूँ तुम उसे लिखते चलो।”
शिष्य ने लेखनी पकड़ी, गुरु ने अष्टाध्यायी की पुस्तक। प्रतिलिपि लिखना प्रारम्भ हो गया। गुरु ने जान-बूझकर एक श्लोक गलत पढ़कर लिखाया और लिख जाने के बाद शिष्य को डाँटते हुए बोले- “तूने यह श्लोक अशुद्ध लिख दिया न। इतना कागज व्यर्थ गया और परिश्रम भी।” शिष्य विचारा गुस्सा पीकर रह गया।
गुरु ने पुनः आगे बोलना प्रारम्भ किया। एक-दो श्लोक शुद्ध लिखाने के बाद पुनः अशुद्ध बोल कर श्लोक अशुद्ध लिखा दिया। और फिर उसे उल्टा डाँटा भी मूर्ख देखता नहीं अष्टाध्यायी में क्या लिखा है और तूने क्या लिख दिया।” शिष्य के ओंठ कुछ कह डालने के लिये तड़पकर रह गये। श्रद्धा थोड़ी बलवान न होती तो गुरु जी को न जाने क्या कह जाता।
आगे का क्रम फिर चल पड़ा। इस बार तो गुरु ने अगला ही श्लोक गलत बोलकर सिखाया। और डाँटने के लिये उनके सुख से आये शब्द भी नहीं निकले थे कि शिष्य जी भड़क उठे। क्रोध में भरकर बोले- “वाह जी गुरु जी! अशुद्ध बोलते है और मुझे ही उल्टा डाँटते हैं, यह रही आपकी गुरुआई और यह रहे पोथी-पन्ने मुझे आपसे कुछ नहीं सीखना।”
गुरु जी मुस्कराये और बोले- “वत्स! भगवान तो मनुष्य की सैकड़ों भूलें क्षमा करता है। तुम तो दो बार में ही खीझ उठे।”
शिष्य ने वस्तुस्थिति समझी और गुरुदेव के पैर पकड़ते हुये प्रतिज्ञा की कि गुरु भी फिर कभी क्रोध नहीं किया करेंगे।