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Magazine - Year 1969 - Version 2

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ग्रह नक्षत्रों की गतिविधियाँ हमें प्रभावित करती हैं

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First 28 30 Last
3 फरवरी 1969 को अहमदाबाद में तीसरी अंतर्राष्ट्रीय विद्युतीय वायु विज्ञान गोष्ठी का उद्घाटन हुआ, उस समय अहमदाबाद भौतिक अनुसंधानशाला के दो वैज्ञानिकों प्रो. के.आर. रामनाथन और डा0 एस. अनन्ति कृष्णन की एक महत्वपूर्ण खोज की घोषणा की गई। घोषणा यह थी कि धरती पर आकाशीय पिंडों का व्यापक प्रभाव पड़ता है। इन वैज्ञानिकों ने कुछ सप्ताह पूर्व वायु मण्डल के डी क्षेत्र में विस्तृत अयनकरण (आयनोस्फियर) की खोज की थी और यह पाया था कि शक्तिशाली एक्स किरणों के स्त्रोत स्कोपिओ-11 के गुजरने से वनस्पति और जीवन जगत में व्यापक हलचल उत्पन्न होती है।

परमाणु शक्ति आयोग के अध्यक्ष डा. सारा भाई ने, विभिन्न देशों से आये 85 वैज्ञानिकों, जिनमें 35 भारतीय भी थे, सम्बोधित करते हुए बताया कि सूर्य के अतिरिक्त अन्य किसी आकाशीय पिण्ड से भी प्रेक्षीय प्रभाव धरती पर आता है और यदि उसकी विस्तृत खोजें की गई तो धरती में जीवन और जीवन में आकाशीय पिंडों के प्रभाव की अनेक महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिल सकेंगी।

इस सम्बन्ध में पाश्चात्य वैज्ञानिक काफी अर्से से जागरूक है। चन्द्रमा की यात्रा का नियंत्रण करने वाले रूसी वैज्ञानिकों ने पाया कि जिस प्रकार का चुम्बकीय क्षेत्र (मैगनेटिक फील्ड) धरती पर है, उस तरह का चन्द्रमा और दूसरे ग्रहों पर नहीं है। धरती के समस्त जीवित पदार्थ चूँकि इस चुम्बकीय क्षेत्र में विकसित हुए है, इस लिए यह प्रश्न उठा कि अन्य नक्षत्रों में चुम्बकीय क्षेत्र का अभाव यात्रियों के मस्तिष्क में प्रभाव डालेगा और इसी बात को लेकर एक नये विज्ञान चुम्बकीय जीव शास्त्र (मैगनेटिक एनाटामी) का जन्म हुआ।

सन् 1954 से लेकर 64 तक रूसी वैज्ञानिक ब्लादीमीर देस्यातोव ने इस सम्बन्ध में व्यापक शोधकार्य किया और आंकड़े एकत्रित कर यह बताया कि जब चुम्बकीय तूफान (मैगनेटिकस्टार्म्स) आते है तो धरती के निवासियों में स्नायविक बेचैनी (नर्बसनेस) और मनोरोगों की संख्या बढ़ जाती है। इस तरह के रोगियों की मृत्यु दर भी बढ़ती पाई गई। उल्लेखनीय है कि धरती के चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता या उसकी फ्रीक्वेंसी बदलना आकाशीय पिण्डों की किसी ऊर्जा प्रवाह का परिणाम होते है। इस सम्बन्ध में यदि खोजों का सिलसिला जारी रखा गया तो भारतीय तत्व विज्ञान के उसी सिद्धान्त की पुष्टि होगी, जिसमें यह बताया गय है, कि मनुष्य आकाश की अदृश्य शक्तियों से प्रभावित है, यही नहीं वह मन की चुम्बकीय शक्ति के द्वारा अज्ञान नक्षत्रों से वह शक्ति प्रवाह भी अपने अन्दर आकर्षित और धारण कर सकता है जिसके अभाव में शारीरिक शक्तियाँ अविकसित पड़ी रहती है। आशा है आगे की हेय उपलब्धियाँ भारतीय तत्वज्ञान और उपासना क्षेत्र को क्राँतिकारी ढंग से प्रभावित करेंगे।

प्रारम्भिक शोधों में थ्री ब्लादीमीर ने यह पाया कि जब सूर्य में एक विशेष प्रकार के ज्वाला प्रकोप (फलेयर) फूटते है तो धरती पर प्रचण्ड चुम्बकीय तूफान आते है और उससे मानसिक दृष्टि से दुर्बल व्यक्तियों के जीवन अस्तव्यस्त हो जाते है, आत्म हत्यायें और सड़क दुर्घटनायें भी उसी के फलस्वरूप बढ़ती है। शराबी, क्रोधी, चिड़चिड़े, कामुक, अनैतिक और दुर्बल स्नायु संस्थान वाले व्यक्ति इन फ्लेयर्स के बाद बहुत ही कमजोर और परेशान हो जाते हैं, इसी कारण उक्त घटनाओं में चार पाँच गुनी तक वृद्धि हो जाती है। इसी के आधार पर वैज्ञानिकों ने यह कहा है कि मस्तिष्क की क्रिया क्षमता की बुनियादी ताप (अल्फा एनर्जी) धरती के चुम्बकीय क्षेत्र से जुड़ा है और धरती का चुम्बकीय क्षेत्र चूँकि आकाशीय पिण्डों से जुड़ा है, इसलिए हमारा जीवन आकाशीय पिंडों की शक्तियों से विलक्षण रूप से जुड़ा हुआ है।

इस जानकारी के आधार पर ही भारतीय शास्त्रकारों ने मनुष्य जीवन को स्थूल और सूक्ष्म शक्ति परंपराओं के साथ जोड़ा था, जिससे यहाँ के लोगों का भौतिक जीवन भी सामर्थ्यवान हुआ करता था और योग पद्धति से वे अपनी लघु क्षमता का इतना विकास कर लेते थे कि पिण्ड में हो ब्रह्माण्ड का दर्शन और आनन्द लिया करते थे। इसी विशालता को वेद में यों कहा है-

सूर्यो में बक्षुयतिः प्राणोऽम्तरिक्षमात्मा-

पृथ्वी शरीरम्।

अस्तृती नामाहमयमस्मि म आत्मानं

निबधे द्यादापृथिव्याँ गोपीथाय॥

अथर्व 5। 8। 7,

अर्थात्- सूर्य मेरा नेत्र है, वायु मेरा प्राण है, अन्तरिक्ष मेरी आत्मा (हृदय) और धरती मेरा शरीर है। मैं अपने आपके अपराजित समझकर द्यावा और धरती के मध्य सुरक्षित रखता हूँ।

इसी प्रकार यजुर्वेद में कहा है-

“शीर्ष्णो द्यौः समवर्ततः यस्य बातः प्राणाप्राणौ; नाभ्याऽसीदन्तरिक्ष दिशः ओत्रं पदभ्याँ भूमिः।

अर्थात्- द्यौ मेरा शिर, वायु, प्राण, अन्तरिक्ष, नाभि, दिशा कान और भूमि मेरे पैर हैं।

इन ऋचाओं में यहाँ पिण्ड की विशाल ब्रह्मांडीय शक्ति का परिचय मिलता है, वहाँ उनमें एक महत्वपूर्ण विज्ञान का भी पता चलता है। वह यह कि आकाश में सूक्ष्म और ग्रह नक्षत्रों की ऊर्जा, अयन, विकिरण आदि सब बीज रूप से शरीर में विद्यमान हैं, उन्होंने यह भी पता लगाया कि यह शरीरस्थ सूक्ष्म संस्थान परस्पर नाडियों द्वारा सम्बन्धित है और जब अन्तरिक्ष में कोई हलचल पैदा होती है तो उस हलचल के फलस्वरूप मानवीय प्रकृति भी हलचल करती और मन, बुद्धि एवं चेतना को प्रभावित करती है। विस्तृत ‘विज्ञान ध्यान बिन्दु उपनिषद्’ में इस प्रकार मिलता है-

प्रधानाप्राण बाहिन्यों भूग्रस्तमवश स्मृताः। हडा़ च प्रियमा चैत्र सुषुम्ना च तृतीयका बाग्धारी हस्तिविगाँ च पूजा चैव यशस्विनी अलम्बुला कुहुरत्र शखिनी दशमी स्मृता एवं नाडी़मय चक्रं विशेश्ं योगिनाँ सदा सततं प्राण वाहिम्यः सोमसूडामिन देवता।

-52, 53, 52,

अर्थात्- बहत्तर हजार नाडियों में से दश प्रधान नाड़ियां प्राण को चलाती है, उनके नाम इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना गंगाधारी हस्तिजिह्रा, पूवा, यशस्विनी, अलम्बुसा, कुहू और शंखिनी है। योगियों को (आत्म चेतना को विश्व चेतना में परिणत करने की इच्छा रखने वाले) इस नाड़ी चक्र का ज्ञान होना आवश्यक है। इनमें से इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना ये तीन नाडियों में सूर्य, चन्द्र और अग्नि देवता प्रतिष्ठित हैं, प्राण सदैव इन्हीं में चला करता हैं।

इनमें से भी सुषुम्ना विश्व व्यापी प्राण से सम्बन्ध स्थापित करने वाली मुख्य नाड़ी है, जो मस्तिष्क में ब्रह्मरंध्र से निकलकर गुदा के पास तक रीढ़ की हड्डी के भीतर गई है। यह नाड़ी स्थूल आंखों से नहीं देखी जा सकती, जिस तरह छत के अत्यन्त बारीक छिद्र से प्रकाश की एक किरण प्रवाहित होती दिखाई देती है, उसी तरह का एक शक्ति प्रवाह ही सुषुम्ना कहलाता है, इड़ा और पिंगला (धन और ऋण विद्युत) उसी की दो धाराऐं हैं। सुषुम्ना का प्रवाह जिन 6 चक्रों को पार करता हुआ बढ़ता है, योगियों ने देखा कि उनमें से एक में आकाश के महत्वपूर्ण लोक अपने बीज रूप में विद्यमान हैं- (1) मूलाधार चक्र गुदा से दो अंगुल ऊपर है। यह भूलोक का प्रतिनिधि है, धरती पर होने वाली कोई भी हलचल मूलाधार को प्रभावित करती है और उससे हमारा हृदय और मन प्रभावित होता है। (2) स्वाधिष्ठान चक्र पेड़ के पास है। यह भुवःलोकस्य बीज है। (3) मणिपूरक नाभि में लोक ‘स्वः’। (4) अनहत चक्र, हृदय के पास महःलोक। (5) विशुद्ध चक्र कण्ठ प्रदेश में जनःलोक (6) आज्ञा चक्र दोनों भौंहों के बीच तपःलोक। एक सातवाँ चक्र सहस्रार भी है, जो मस्तिष्क में है और जो ब्रह्मलोक का प्रतिनिधित्व करता है, इन सबसे सर्वोपरि है। वह इन सब पर नियंत्रण की शक्ति रखता है, इसलिए इन शक्तियों को प्राप्त कर लेने वाले के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वह अपने इन सूक्ष्म शक्ति संस्थानों के माध्यम से सूर्य चन्द्रमा, अग्नि, वायु, वर्षा आदि पर भी नियन्त्रण कर सकता है, उस शक्ति का क्या पारावार हो सकता है?

उस व्यक्ति का थोड़ा सा परिचय और विश्वव्यापी नक्षत्र शक्तियों से क्या सम्बन्ध और सामंजस्य हो सकता है, उसकी एक क्षीण कल्पना 1899 में प्रसिद्ध वैज्ञानिक जोसेफ जैन को हुई थी। उन्होंने बताया कि एटम में इलेक्ट्रान्स होते है, उतने ही प्रोटान्स भी होते है, जो एक दूसरे को आपसी आकर्षण द्वारा बाँधे हुए है और न्यूक्लियस से सौर मण्डल के क्रम के समान बँधे हुए है। एटम ऊर्जा के समान है और समस्त शक्तियाँ जैसे विद्युत, गर्मी, ध्वनि, प्रकाश और चुम्बकीय आदि एक दूसरे में परिवर्तित होते हैं। पदार्थ में ऊर्जा कम्पन के रूप में होती है। कम्पन जब तीव्र होता है, तब यह वस्तु ऊर्जा हो जाती है, मध्यम अवस्था में उसे पदार्थ कहते है। इससे मापित होता है कि जड़ पदार्थों को सक्रिय रखने की क्रिया इलेक्ट्रानिक शक्तियाँ, जिन्हें सौर मण्डल की शक्तियाँ कह सकते है, हो करती है। शक्ति (एनर्जी) सम्बन्धी वर्तमान परिभाषायें भी इसी बात को पुष्ट करती हे और यह बताती है कि मनुष्य जीवन अज्ञात नक्षत्रीय शक्तियों से निरन्तर प्रभावित होता रहता है।

ज्योतिष विद्या का प्रादुर्भाव भी इसी सिद्धान्त पर हुआ है। मिश्र के लोगों ने देखा कि जब कुछ तारे प्रकट होते है तभी नील नदी में बाढ़ आती है, इसलिए उन्होंने अनुभव किया कि अन्तरिक्ष के पिण्ड हमारे जीवन को निश्चित विधान के अनुसार प्रभावित करते रहते हे। यदि प्रकृति प्रभावित होती है तो मनुष्य का शरीर और मन भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। इस जानकारी से एक लाभ तो अन्तरिक्षीय ज्ञान के विकास के रूप में मिला और दूसरा मनुष्य शरीर को प्राकृतिक सामंजस्य में रखकर उससे विश्व व्यापी शक्तियों की अनुभूति और प्राप्ति का लाभ मिला।

पिछले दिनों सूर्य के अध्ययन से भी उपरोक्त सिद्धान्त प्रमाणित हुए है। सूर्य में अधिकतम सक्रियता सन 1928, 1937, 1947 और 1959 में दिखाई दी थी, इन वर्षों में धरती में उल्लेखनीय हलचलें हुई। भारतवर्ष की स्वतन्त्रता भी इसी में सम्मिलित है। सूर्य की सक्रियता उसके शब्दों से फूटती दिखाई देती है। उनके बारे में तो कोई निश्चित जानकारी तभी वैज्ञानिक नहीं पा सकें पर यह पता लगाया गया है कि इन शब्दों से ही पति बैंगनी किरणों की शक्तिशाली धारा और सौर कणों की विपुल संख्या का उद्गम होता है दृश्य प्रकाश की बैंगनी किरणों 186000 मील प्रति सेकेंड की रफ्तार से चलती है, पर सौरकण धीमी रफ्तार से चलते है। उनकी गति (बेलास्टी) मण्डल अलग होती है, इसलिए प्रकाश को जहाँ पहुँचने में आठ मिनट लगते है। वह कण 20 से 60 घण्टे तक का समय ले लेते है। जब ये किरणें और कण धरातल में पहुँचते हैं तो वायु मण्डल के विद्युत जलवायु में परिवर्तन हो जाता है। ऐसे स्वाभाविक परिवर्तनों में सन 1972 तक तीव्रता आयेगी और उसने विश्वव्यापी परिवर्तन भी होंगे। वैज्ञानिक उसे बाँधने की अभी से तैयारी कर रहे हैं, पर यह सब किसका खेल है, यह वह नहीं समझ पा रहें।

22 फरवरी 1956 की रात को सूर्य में अत्यन्त शक्तिशाली विस्फोट हुआ था। विश्व की अनेक वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं ने उस घटना को अंकित किया था। विस्फोट की तेजी के अनुरूप सौर कण धरती की ओर दौड़ पड़े थे और उसके कारण एशियाई देशों और आस्ट्रेलिया में भयंकर तूफान और आँधी आई जिससे रेडियो संचार तक गड़बड़ में पड़ गया।

यह विस्फोट जहाँ भावी परिवर्तनों के संकेत है, यहाँ यह भी है कि मनुष्य अपने शरीर में स्थित उन बीज शक्तियोँ को, जो नाड़ी जाल में संसार के ग्रह नक्षत्रों की शक्तियों को बाँधे हुए है, जागृत कर इन परिवर्तनों में लाझेदार हो सकता है। अर्थात् वह उन्हें रोकने को सामर्थ्य भी रखता है और विस्फोट की भी। सम्भव है आगामी परिवर्तन किसी ऐसी ही अदृश्य सत्ता को इच्छा और योग शक्ति का परिणाम हों।

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